Saturday 29 September 2012

स्त्री विमर्शः जरूरत एक तटस्थ सोंच की

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय
साले हाल परिदृश्य में वैचारिकता का पतन कई क्षेत्रों में देखने को मिलता है। चाहे वो राजनैतिक क्षेत्र हो या फिर समाज के अन्य पहलु। इसी अनुक्रम में स्त्री  विमर्श एक महत्वपूर्ण विषय बनकर सामने आता है। दरअसल स्त्री  विमर्श एक ऐसी विषय वस्तु है जिस पर हर काल में अलग-अलग  व्याख्या होती रही है। कुछ लोग तो इस विषय पर चर्चा को ही कोरा समझते हैं। उनके अनुसार इस विमर्श ने कौन सा देश का भला किया है? समाज महिलाओं के प्रति जैसी सोच पहले रखता था वैसी ही आज भी रख रहा है। अर्थात् स्त्री विमर्श ने समाज को कोई नया मौलिक विकल्प नहीं सुझाया है। लेकिन मृणाल पाण्डे का यह वैचारिक लेख संग्रह ‘स्त्री ; लम्बा सफर’ उन लोगों से आग्रह करता है कि उन्हें कुछ दिनों के लिए चुप हो जाना चाहिए। दरअसल इसमें शामिल सभी आलेख तत्कालीन परिवेश में स्त्री  विमर्श के क्षेत्र में हुई परिचर्चाओं पर आधारित  है। मृणाल पाण्डे अपनी पत्रकारिता की सूक्ष्म दृष्टि से तत्कालीन परिवेश में (चाहे वो राजनीतिक हो या फिर  न्यायिक) महिलाओं के नाम पर होने वाले सियासी खेलों को बखूबी परखा है। लोकतंत्र के मंदिर से लेकर न्याय के मंदिर तक नारीवादी परम्पराओं को ताक पर रखा गया है। संसद के बाहर राजनीतिक दलों को महिलाओं के लिए विधायिका  में 33 प्रतिशत आरक्षण के लिए गरजते-चिल्लाते तो देखा जाता है लेकिन संसद के अंदर उस विवादित विधेयक पर चर्चा की हिम्मत किसी भी राजनीतिक दल को नहीं होती। वे इस मुद्दे पर संसद में भय का ऐसा वातावरण पैदा कर देते हैं जैसे महिलाएं देश की सबसे बड़ी खलनायिकाएं हैं। यह समाज और राजनीति का कैसा न्याय है जहां जातिवादी आरक्षण का स्वागत किया जाता है लेकिन देश की आधी  आबादी के आधार  पर विधायिका में 33 प्रतिशत के आरक्षण के मांग पर सियासी भूचाल आ जाता है। दरअसल पुरुष वर्चस्व समाज महिलाओं की राजनैतिक बराबरी को कभी आत्मसात कर ही नहीं पाता है तभी तो महिलाओं की चुनावी लड़ाई को ‘कैट फाइट’ कहा जाता है जबकि इसके ठीक उलट पुरुषों की लड़ाई को आक्रामक और स्वाभाविक प्रवृत्ति माना जाता है। कोई भी राजनीतिक दल महिलाओं पर दांव नहीं लगाना चाहता है यानि वो नारी आरक्षण की बात तो करता है परन्तु पार्टीगत आरक्षण पर नाक-भौं सिकोड़ता है। ऐसे में विधायिका में 33 प्रतिशत आरक्षण की बात दूर की कौड़ी ही साबित होती है। हालांकि इस वैचारिक लेख संग्रह में सिर्फ राजनीति की ही बात नहीं होती बल्कि राजनीति से परे कारपोरेट और मीडिया जगत की भी बात होती है। मीडिया पर आरोप लगाते हुए मृणाल पाण्डे कहती हैं कि मीडिया जो सबकी खबर देता है। महिला आरक्षण से लेकर महिलाओं  के प्रति होने वाली हिंसा तक, खबरों में प्रमुखता से दिखाई जाती हैं लेकिन वो अपनी खबर क्यों नहीं रखता। मीडिया में महिलाओं के लिए ऐसी स्थिति क्यों बन पड़ी है जिससे उनको पत्रकारिता में आने का मतलब ‘रोज कुआं खोदना और पानी पीना है’ लगने लगा है। जवाब शायद- तनख्वाहें कम, सुविधएं नगण्य, तरक्की नदारद और काम उबाऊ ।  महिला सशक्तिकरण की खबर और यौन उत्पीड़न की खबर करने वाला मीडिया यह क्यों भूल जाता है कि 100 में से 22.7 प्रतिशत मीडिया में काम करने वाली महिलाओं ने माना है कि कार्यक्षेत्र में उनका यौन उत्पीड़न हुआ है लेकिन वे चुप रही हैं। दरअसल उनकी इस चुप्पी से दो सवाल खड़े होते हैं कि वे ये सब इसलिए सहन कर लेती हैं कि उनको काम की जरूरत होती है या फिर  अन्यत्र भी हालात ऐसे ही हैं। हालांकि महिलाओं की स्थिति और हालात यहीं नहीं ठहरते। महिलाओं का मुद्दा तो एक प्रकार से कामधेनु  हो गया है क्योंकि दो दशक से महिला आरक्षण का मुद्दा तो फैशनेबल मुद्दा बना ही है और सभी पार्टियां गाहे-बेगाहे इस पर राजनीति भी करती रही हैं। इसके बाद महिलाओं की भूमिका वैश्विक परिदृश्य में भी तलाशी गई। जब भारत की इंदिरा नूई को अमेरिका की पेप्सिको कम्पनी का सीईओ बनते भारतीय महिलाओं ने देखा तो उनकी भी उम्मीदें जगीं लेकिन शायद उस वक्त उन्हें ये नहीं पता था कि देश में 80 प्रतिशत औरतें स्त्री -पुरुष भेदभाव की शिकार बन चुकी हैं। अर्थात् उन्हें किसी-न-किसी प्रकार घर की चहारदीवारी में रोका गया। हालांकि महिलाओं के प्रति हिंसा और अन्य मुद्दों के प्रति कानून ने सक्रियता दिखाई। घरेलु हिंसा कानून ने अपने व्यावहारिक दृष्टिकोण से महिलाओं के प्रति होने वाली न सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक प्रताड़ना को भी दंडनीय माना। कानून ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए ये बात भी स्वीकारी की समाज अपनी दकियानूसी परम्परा की वजह से न सिर्फ पत्नियों को बल्कि बहन-बेटियों को भी नुकसान पहुंचाता है। लेकिन कानून यह सुनिश्चित नहीं कर पाता है कि महिलाओं के प्रति हिंसा होती ही क्यों हैं? अगर किसी पुरुष को बलात्कार, हिंसा आदि करने के लिए सजा दी जाती है तो यातना पूरे समाज या परिवार को उठानी पड़ेगी ही। ऐसे में एक सुखमय परिवार या समाज की कल्पना आकाशकुसुम जैसी होगी। इस बीच बच्चों (लड़कियों) में यौन शिक्षा को लेकर काफी कुछ लिखा-पढ़ा गया है। दरअसल यह मुद्दा बन गया है कि उन्हें इस प्रकार की शिक्षा देना कितना उचित रहेगा कितना अनुचित। बहरहाल इस पूरे वैचारिक लेख संग्रह में मृणाल पाण्डे ने स्त्री  मुक्ति पर विचार किया है लेकिन इस उम्मीद में नहीं कि यह कोई निष्कर्ष निकालेगा, बल्कि इस मंतव्य से कि स्त्री -चर्चा के स्थायी आधार क्या हैं? इस संग्रह में शामिल लेखों ने यह स्पष्ट किया है कि समाज ने महिलाओं को प्रारम्भ से मुक्ति के विपरीत बंधन और बुधि के विपरीत कौटिल्य चरित्र का पर्याय माना है। लेकिन मृणाल पाण्डे ने जो सवाल छोड़े हैं वो वाजिब हैं। इन आलेखों के मर्म और गहराई को समझने से पहले स्त्री  विमर्श के स्थूल धरातल  पर जीवित परम्परा को समझना होगा। दरअसल इस पूरे परिदृश्य में एक जरूरत तटस्थ लेकिन मार्मिक दृष्टिकोण की भी है, नहीं तो ये वैचारिक लेखों की श्रृंखला पत्र-पत्रिकाओं में ही सिमट कर रह जाएंगी। 

स्त्री : लम्बा सफरः मृणाल पाण्डे
राधाकृष्ण प्रकाशन, प्रा.लि.
7/31, अंसारी मार्ग
दरियागंज, नई दिल्ली-02
कीमतः  250 रु.

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