Saturday 29 September 2012

स्त्री विमर्शः जरूरत एक तटस्थ सोंच की

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय
साले हाल परिदृश्य में वैचारिकता का पतन कई क्षेत्रों में देखने को मिलता है। चाहे वो राजनैतिक क्षेत्र हो या फिर समाज के अन्य पहलु। इसी अनुक्रम में स्त्री  विमर्श एक महत्वपूर्ण विषय बनकर सामने आता है। दरअसल स्त्री  विमर्श एक ऐसी विषय वस्तु है जिस पर हर काल में अलग-अलग  व्याख्या होती रही है। कुछ लोग तो इस विषय पर चर्चा को ही कोरा समझते हैं। उनके अनुसार इस विमर्श ने कौन सा देश का भला किया है? समाज महिलाओं के प्रति जैसी सोच पहले रखता था वैसी ही आज भी रख रहा है। अर्थात् स्त्री विमर्श ने समाज को कोई नया मौलिक विकल्प नहीं सुझाया है। लेकिन मृणाल पाण्डे का यह वैचारिक लेख संग्रह ‘स्त्री ; लम्बा सफर’ उन लोगों से आग्रह करता है कि उन्हें कुछ दिनों के लिए चुप हो जाना चाहिए। दरअसल इसमें शामिल सभी आलेख तत्कालीन परिवेश में स्त्री  विमर्श के क्षेत्र में हुई परिचर्चाओं पर आधारित  है। मृणाल पाण्डे अपनी पत्रकारिता की सूक्ष्म दृष्टि से तत्कालीन परिवेश में (चाहे वो राजनीतिक हो या फिर  न्यायिक) महिलाओं के नाम पर होने वाले सियासी खेलों को बखूबी परखा है। लोकतंत्र के मंदिर से लेकर न्याय के मंदिर तक नारीवादी परम्पराओं को ताक पर रखा गया है। संसद के बाहर राजनीतिक दलों को महिलाओं के लिए विधायिका  में 33 प्रतिशत आरक्षण के लिए गरजते-चिल्लाते तो देखा जाता है लेकिन संसद के अंदर उस विवादित विधेयक पर चर्चा की हिम्मत किसी भी राजनीतिक दल को नहीं होती। वे इस मुद्दे पर संसद में भय का ऐसा वातावरण पैदा कर देते हैं जैसे महिलाएं देश की सबसे बड़ी खलनायिकाएं हैं। यह समाज और राजनीति का कैसा न्याय है जहां जातिवादी आरक्षण का स्वागत किया जाता है लेकिन देश की आधी  आबादी के आधार  पर विधायिका में 33 प्रतिशत के आरक्षण के मांग पर सियासी भूचाल आ जाता है। दरअसल पुरुष वर्चस्व समाज महिलाओं की राजनैतिक बराबरी को कभी आत्मसात कर ही नहीं पाता है तभी तो महिलाओं की चुनावी लड़ाई को ‘कैट फाइट’ कहा जाता है जबकि इसके ठीक उलट पुरुषों की लड़ाई को आक्रामक और स्वाभाविक प्रवृत्ति माना जाता है। कोई भी राजनीतिक दल महिलाओं पर दांव नहीं लगाना चाहता है यानि वो नारी आरक्षण की बात तो करता है परन्तु पार्टीगत आरक्षण पर नाक-भौं सिकोड़ता है। ऐसे में विधायिका में 33 प्रतिशत आरक्षण की बात दूर की कौड़ी ही साबित होती है। हालांकि इस वैचारिक लेख संग्रह में सिर्फ राजनीति की ही बात नहीं होती बल्कि राजनीति से परे कारपोरेट और मीडिया जगत की भी बात होती है। मीडिया पर आरोप लगाते हुए मृणाल पाण्डे कहती हैं कि मीडिया जो सबकी खबर देता है। महिला आरक्षण से लेकर महिलाओं  के प्रति होने वाली हिंसा तक, खबरों में प्रमुखता से दिखाई जाती हैं लेकिन वो अपनी खबर क्यों नहीं रखता। मीडिया में महिलाओं के लिए ऐसी स्थिति क्यों बन पड़ी है जिससे उनको पत्रकारिता में आने का मतलब ‘रोज कुआं खोदना और पानी पीना है’ लगने लगा है। जवाब शायद- तनख्वाहें कम, सुविधएं नगण्य, तरक्की नदारद और काम उबाऊ ।  महिला सशक्तिकरण की खबर और यौन उत्पीड़न की खबर करने वाला मीडिया यह क्यों भूल जाता है कि 100 में से 22.7 प्रतिशत मीडिया में काम करने वाली महिलाओं ने माना है कि कार्यक्षेत्र में उनका यौन उत्पीड़न हुआ है लेकिन वे चुप रही हैं। दरअसल उनकी इस चुप्पी से दो सवाल खड़े होते हैं कि वे ये सब इसलिए सहन कर लेती हैं कि उनको काम की जरूरत होती है या फिर  अन्यत्र भी हालात ऐसे ही हैं। हालांकि महिलाओं की स्थिति और हालात यहीं नहीं ठहरते। महिलाओं का मुद्दा तो एक प्रकार से कामधेनु  हो गया है क्योंकि दो दशक से महिला आरक्षण का मुद्दा तो फैशनेबल मुद्दा बना ही है और सभी पार्टियां गाहे-बेगाहे इस पर राजनीति भी करती रही हैं। इसके बाद महिलाओं की भूमिका वैश्विक परिदृश्य में भी तलाशी गई। जब भारत की इंदिरा नूई को अमेरिका की पेप्सिको कम्पनी का सीईओ बनते भारतीय महिलाओं ने देखा तो उनकी भी उम्मीदें जगीं लेकिन शायद उस वक्त उन्हें ये नहीं पता था कि देश में 80 प्रतिशत औरतें स्त्री -पुरुष भेदभाव की शिकार बन चुकी हैं। अर्थात् उन्हें किसी-न-किसी प्रकार घर की चहारदीवारी में रोका गया। हालांकि महिलाओं के प्रति हिंसा और अन्य मुद्दों के प्रति कानून ने सक्रियता दिखाई। घरेलु हिंसा कानून ने अपने व्यावहारिक दृष्टिकोण से महिलाओं के प्रति होने वाली न सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक प्रताड़ना को भी दंडनीय माना। कानून ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए ये बात भी स्वीकारी की समाज अपनी दकियानूसी परम्परा की वजह से न सिर्फ पत्नियों को बल्कि बहन-बेटियों को भी नुकसान पहुंचाता है। लेकिन कानून यह सुनिश्चित नहीं कर पाता है कि महिलाओं के प्रति हिंसा होती ही क्यों हैं? अगर किसी पुरुष को बलात्कार, हिंसा आदि करने के लिए सजा दी जाती है तो यातना पूरे समाज या परिवार को उठानी पड़ेगी ही। ऐसे में एक सुखमय परिवार या समाज की कल्पना आकाशकुसुम जैसी होगी। इस बीच बच्चों (लड़कियों) में यौन शिक्षा को लेकर काफी कुछ लिखा-पढ़ा गया है। दरअसल यह मुद्दा बन गया है कि उन्हें इस प्रकार की शिक्षा देना कितना उचित रहेगा कितना अनुचित। बहरहाल इस पूरे वैचारिक लेख संग्रह में मृणाल पाण्डे ने स्त्री  मुक्ति पर विचार किया है लेकिन इस उम्मीद में नहीं कि यह कोई निष्कर्ष निकालेगा, बल्कि इस मंतव्य से कि स्त्री -चर्चा के स्थायी आधार क्या हैं? इस संग्रह में शामिल लेखों ने यह स्पष्ट किया है कि समाज ने महिलाओं को प्रारम्भ से मुक्ति के विपरीत बंधन और बुधि के विपरीत कौटिल्य चरित्र का पर्याय माना है। लेकिन मृणाल पाण्डे ने जो सवाल छोड़े हैं वो वाजिब हैं। इन आलेखों के मर्म और गहराई को समझने से पहले स्त्री  विमर्श के स्थूल धरातल  पर जीवित परम्परा को समझना होगा। दरअसल इस पूरे परिदृश्य में एक जरूरत तटस्थ लेकिन मार्मिक दृष्टिकोण की भी है, नहीं तो ये वैचारिक लेखों की श्रृंखला पत्र-पत्रिकाओं में ही सिमट कर रह जाएंगी। 

स्त्री : लम्बा सफरः मृणाल पाण्डे
राधाकृष्ण प्रकाशन, प्रा.लि.
7/31, अंसारी मार्ग
दरियागंज, नई दिल्ली-02
कीमतः  250 रु.

Friday 21 September 2012

यहां कोई रावण नहीं रहता!

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय
व्यंग्य वह विधा  है जो व्यंग्यकार के भीतर की नकारात्मक प्रतिक्रिया है और यह समाज और जीवन मूल्यों के क्षरण से उत्पन्न होता है। व्यंग्य शैली का इतिहास इस बात का साक्षी है कि जितनी भी व्यंग्य रचनायें हुई हैं वो तत्कालीन समाज के पतन, राजनीति का अवमूल्यन, शिक्षा नीतियों का बाजारीकरण आदि क्षेत्रों के नैतिक पतन पर केन्द्रित है। दरअसल ये सभी पृष्ठभूमि व्यंयग्यकारों को विषय प्रदान करते हैं। पिछले कुछ सालों में राजनीति व्यंग्यकारों के सम्मुख एक ऐसा विषय बनकर सामने आया है जिसमें व्यंग्यकार काफी संभावनाएं तलाश रहे हैं। दरअसल राजनीति अपनी परिभाषा और परिधि को  इस कदर कुंठित और सीमित कर चुकी है कि इसे मात्र नीतिविहीन परम्परा का द्योतक माना जा सकता है। वर्तमान राजनीति एक ऐसा खेल बन चुका है जहां सिर्फ और सिर्फ स्वहित की बातें होती हैं। इसमें ‘आम आदमी’ के लिए कुछ भी नहीं होता। ‘आम आदमी’ तो उसके लिए एक मोहरा होता है जिसकी बलि लेकर वो सत्ता को या तो बचाए रखता है या पिफर सत्तासीन होना चाहता है। शंकर पुणतांबेकर द्वारा रचित ‘रावण तुम बाहर आओ!’ राजनीति के इसी पतन की पराकाष्ठा की पृष्ठभूमि पर आधारित  है। दरअसल यह व्यंग्यात्मक नाटक, लेखक के बेचैन मन की उपज है जिसे वह समकालीन राजनीतिक परिवेश में देखता है। वस्तुतः यह एक ऐसा कथानक प्रस्तुत करता है जो राजनीति के वर्तमान स्वरूप से एकाकार हो जाता है और उस पर मंथन के लिए उत्प्रेरित करता है। ‘रावण तुम बाहर आओ!’ राजनैतिक परिपाटी पर आधारित  नाटक है जहां सामाजिक और मानवीय मूल्यों का अवमूल्यन कदम-कदम पर होता है। नाटक के केन्द्र में राजा वीरसेन होता है जिसके इर्द-गिर्द सारी कहानी घूमती है। राजा उस भ्रष्टतंत्र का प्रतिनिधि है  जहां हर आदमी दो व्यक्तित्व को जीता है। अंदर से रावण होते हुए भी राम बनने की जुगत हर व्यक्ति का आंतरिक प्रवृत्ति होता है। राजा वीरसेन उन्हीं में से एक है। वस्तुतः राजा एक विलासी महत्वाकांक्षी शासक का प्रतीक है जिसकी सोच एक सीमित परिधि में ही घूमती है। वह अपने पास उन सभी वस्तुओं को बंधक  बनाकर रखना पसंद करता है जो उसके विलासिता का मानक होते हैं। इसी क्रम में उसने सोने का पलंग भी बनवाया, जिसे वह प्रदर्शनी के लिए सबके सामने रखता है। दरअसल यह नाटक दो गुटों में बंट गया है। एक वो जो राजा की नीतियों का विरोध् करते हैं। इसमें राजा का बेटा कुमार, उसका दोस्त विक्रम और राजा की पत्नी रत्ना शामिल हैं। जबकि दूसरे गुट में राजा के वे चाटुकार हैं जो सिर्फ राजा की हां में हां मिलाते हैं। ये किसी भी परिस्थिति में राजा के प्रति वफादार नहीं माने जा सकते। हालांकि राजा को इन चाटुकारों से काफी सहारा मिलता है इसीलिए वो उन्हें हमेशा अपनी दराज में बंद करके रखता है। लेकिर ये चाटुकार राजा को सदैव अँधेरे  में धकेलने  का उपक्रम करते रहते हैं। ये चाटुकार वर्तमान राजनीति के उन नेताओं के प्रतिबिम्ब हैं जो अपनी राजनीतिक महात्वाकांक्षा के लिए स्वार्थ, भ्रष्टाचार, विश्वासघात को पोषित करते हैं और फिर  इसी को सीढ़ी बनाकर सत्ता की कुर्सी पर आसीन हो जाते हैं। सम्प्रति ये वो लोग हैं जो अपने राजा के मरने पर शोक तो मनाते हैं लेकिन उसके शोकसभा को जश्न के रूप में मनाते हैं और कहते हैं कि ‘चलो, साला मर गया।’ राजा उस निरंकुशता का प्रतिरूप है जो देश के संविधान  को बंधक  बनाकर उसे पंगु बना दिया है। दरअसल उसने संविधान  को लेकर एक विरोधभाष पैदा कर दिया है जो आम आदमी को अधिकार  तो देता है साथ ही राजा, नेता या विशिष्ट वर्ग को यह भी अधिकार  देता है कि वह आम आदमी के अधिकार  का प्रतिकार कर सके। नाटक के अन्य पात्रों की जहां तक बात है तो वीरसेन का बेटा कुमार, उसका दोस्त विक्रम और युवा पत्रकार शीला राजा के भ्रष्टाचार और भ्रष्टतंत्र से आहत युवा पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं  जो राजा की विलासिता, नीतिविहीन महत्वाकांक्षा का विरोध् करते हैं। वीरसेन की पत्नी रत्ना भी उसके पक्ष में नहीं है वो अपने पति की अतिमहात्वाकांक्षा का पुरजोर विरोध् करती है। इस क्रम में राजा कभी-कभी अकेला पड़ जाता है परन्तु इस मौके पर उसके चाटुकार बड़े काम आते हैं जो राजा के एकाकीपन को अपनी चाटुकारिता से भर देते हैं। इस नाटक का अन्त आम नाटकों की तरह नायक की जीत के साथ नहीं होता। बल्कि इसमें जीत की परम्परा के विपरीत खलनायकों की जीत के साथ होता है। दरअसल यह जीत साले हाल राजनीति को परिलक्षित करता है कि आप चाहे जितना भी ईमानदार बन लें, सत्यनिष्ठ बन जाएं, भ्रष्टाचार के खिलाफ झंडा उठा लें राजनीति के इन खलनायकों के खिलाफ जीत हासिल नहीं कर सकते। इन खलनायकों की एक लम्बी परम्परा बन चुकी है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी सत्ता पर आरूढ़ होते हैं। उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं कि लोग उन्हें रावण कहते हैं या राम। अगर राम कहते हैं तो बेहतर और रावण कहते हैं तो उसके चाटुकार हैं न राम के रूप में प्रस्तुत करने के लिए। ‘रावण तुम बाहर आओ!’ एक ऐसी पृष्ठभूमि पर आधरित नाटक है जिसका आवरण काफी व्यापक है। लेखक ने राजनैतिक परम्परा की छोटी-छोटी बातों पर भी सूक्ष्मता से दृष्टिपात किया है। आमतौर पर पत्रकारों की खबरों के प्रति बाध्यता, छोटी-छोटी घटनाओं पर जांच आयोग बैठाने की मांग, राजनैतिक चाटुकारिता, वादे-इरादे के बीच राजनैतिक रोटी सेंकने की परम्परा इस नाटक को जीवंत बनाती है। जहां तक इस नाटक के शिल्प की बात है तो यह वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य पर बिल्कुल सटीक बैठता है। नेपथ्य से आने वाली ‘पिंजरे की औरत’ की आवाज इस बात का एहसास कराती है कि देश, समाज और मानव राजा के दराज में किस प्रकार बंधक  हैं। लेखक इसके माध्यम से एक शिल्पगत प्रयोग करता है। मंचन के दृष्टिकोण से यह नाटक संतुलित कहा जा सकता है जिसमें किसी भारी-भरकम साजो सामान की जरूरत नहीं पड़ती। आधुनिक  रंगकर्मियों के लिए इसमें काफी गुंजाईश  है जिसे आधुनिकता  को मिश्रित कर और ज्यादा प्रभावशाली बनाया जा सकता है। 
रावण तुम बाहर आओ!: शंकर पुणतांबेकर
वाणी प्रकाशन, 4695, 21ए
दरियागंज, नई दिल्ली-110 002
कीमतः 195रु. 
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AMAR BHARTI (HINDI DAILY)
Pratap Bhawan, 5, Bahadurshah Zafar Marg,
New Delhi-110002
Tel.:011-23724460, 43083451  Fax:011-23724456

Friday 14 September 2012

क्योंकि कहानियां सच कहती हैं

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय
कुसुम खेमानी की यह पुस्तक ‘सच कहती कहानियां’ एक ऐसी कौटुम्बिक परिपाटी पर रची गई मार्मिक कहानियों का संग्रह है जो समाज के भिन्न-भिन्न स्तरों, अनुभवों और प्रसंगों से संवाद कराता है। दरअसल किसी भी काल विशेष का साहित्य सृजन तत्कालीन सामाजिक परम्परा और संस्कृति को समझने का आधार प्रदान करता है और जब ‘सच कहती कहानियां’ जैसे संग्रह के माध्यम से संस्कृतियों और परम्पराओं का प्रासंगिक और आनुभूतिक वर्णन किया जाए तो ऐसे साहित्य रचनाओं से अपेक्षाएं और भी ज्यादा बढ़ जाती हैं क्योंकि भारत संस्कृतियों और परम्पराओं का देश है। इस संग्रह में जितनी भी कहानियों को शामिल किया गया है वो वास्तव में एक-दूसरे की अनुषंगी होने का एहसास कराती हैं। दरअसल ये सभी कहानियां समाज के विभिन्न स्तरों और अनुभवों से लबरेज होकर एक नई रचना का सृजन करती हैं। चौदह कहानियों के इस संग्रह की तीन कहानियां ‘एक मां धरती सी’, ‘लावण्यदेवी’, और ‘रश्मिरथी मां’ समाज की दैवीय रिश्ते की वो पटकथा है जो अनुभवों और एहसासों की सूक्ष्मता और अन्तरंगता से सामाजिक जीवन की यथार्थता को परिलक्षित करता है। ‘एक मां धरती सी’ उस बानी मौसी की कहानी है जो समयचक्र का कोपभाजन बन गईं हैं। दरअसल वो उसे बेटे की मां की प्रतिमूर्ति हैं जो अपनी प्रेमिका के कहने पर अपनी मां के मीठे कलेजे को निकाल तेजी से अपनी प्रेमिका को देने जाता है लेकिन तभी ठोकर खाकर गिर जाता है उसी वक्त मां के कलेजे से आवाज आती है कि ‘अरे बेटा! कहीं चोट तो नहीं लगी?’ ‘रश्मिरथी मां’ उस मातृत्व की कहानी है जो गरीबी और सामाजिक झंझावतों में डूबे अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए समाज के उस आक्षेप को भी सह लेती है जिसमें सेरोगेसी को ‘किराए पर कोख’ का तमगा देकर उसको सामाजिक रूप से बहिष्कृत कर देता है। लेकिन इस कहानी की मुख्य पात्र जाहिदा तो उन मांओं की मां है जो ऐसा दर्शन प्रस्तुत करती है जिससे भगवान शंकर के औढ़रदानी होने का एकाधिकार टूट जाता है। मातृत्व की अगली कड़ी में ‘लावण्यदेवी’ का भी प्रारूप देखने को मिलता है जो अपने माता-पिता की लाड़ली और अकूत सम्पति की इकलौती वारिश होती है। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक उन्होंने अनुशासन को इस तरह जिया है कि अनुशासन स्वयं झेप जाए। बचपन में उनके मां-बाप का प्यार, जवानी में पति का प्यार दरअसल एक परिलोक की कहानी जैसा प्रतीत होता है लेकिन जब उनके बेटे-बेटियां बड़े हो जाते हैं और उनकी जब शादी हो जाती है तो फिर वही अलौकिक सी जीवन जीने वाली लावण्यदेवी अपेक्षा और उपेक्षा के बीच निर्वात में अपने अस्तित्व को भी नहीं बचा पाती हैं। ‘काला परिजात’ एक ऐसी कहानी है जो इस बात का परिचायक है कि मनुष्य स्वयं में चाहे जैसा हो सामने वाले से एक आदर्श की उम्मीद करता है और ये आदर्श उसके व्यवहार से लेकर रूप-रंग तक में शामिल है। इस कहानी में दो ऐसे नीग्रो लोगों की कहानी है जो भारत आते हैं और उम्मीद करते हैं कि यहां के लोग सांवले हैं तो उन्हें यहां किसी भेदभाव से नहीं गुजरना पड़ेगा। उन्हें यहां वही सम्मान और अपनापन मिलेगा जो उन्हें अपने समुदायों में रहते हुए मिलता है लेकिन हकीकत की स्थूल धरातल पर उन्हें जो अनुभूति होती है उससे उनका यहां प्रवास बोझिल हो जाता है। रिश्तों के ताने-बाने से उन्मुक्त ‘पुरुष सती’ उस त्यागमयी मूर्ति बिशु की कहानी है जो अपनी पत्नी की खुशी के लिए अपने एहसासों को कुर्बान कर देता है। यहां तक की अपनी पत्नी के पुरुष मित्र के साथ रहने पर भी कोई एतराज नहीं जताता। दरअसल वह उस बात का पक्षधर है कि ‘जिसे जो करना होता है वह उसे करता ही है, इसके लिए वो साम, दाम, दंड, भेद सभी प्रवृतियों को अपनाता है ऐसे में किसी के रास्ते में रोड़ा डालकर बाधा उत्पन्न करना उचित नहीं’। और इसी आदर्श के सहारे वह अपनी पत्नी का त्याग भी कर देता है। संग्रह के अगले हिस्से में ‘जज्बा एक जर्रे का’ एक ऐसी महिला लक्ष्मी की कहानी है जो विपरीत परिस्थितियों की मार से टूटती नहीं बल्कि उसके साथ कदमताल करती है। दरअसल उसका सम्पूर्ण जीवन एक ऐसा दर्शन प्रस्तुत करता है जिसके आलोक से यह साफ हो जाता है कि दर्शन सामाजिक अनुभवों के गर्भ से निकलता है। लक्ष्मी अपने सरल जीवन से धर्म का इस प्रकार व्याख्यान कर पाती है कि धर्म मन में बसा होता है उसका तन भेद से कोई सरोकार नहीं होता। हमारे समाज में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो शहरों में रहते हैं लेकिन उनका ग्रामीण परिवेश से कहीं-न-कहीं एक लगाव होता है। इस संग्रह में कुछ ऐसी ही कहानियां हैं जो ग्रामीण परिवेश का एक पृथक कलेवर प्रस्तुत करती हैं। ‘पतराम दरवज्जा’, ‘वक़त एक साधारण औरत की’ दो ऐसी कहानियां है जो ग्रामीण परिदृश्य की अलौकिक गर्द को लौकिक बना देती हैं। दरअसल ये दोनों कहानियां हरियाणवी पृष्ठभूमि पर रची बसी है। इन दोनों कहानियों के पीछे दो अलग-अलग व्यक्तित्व की कहानी छिपी है जो अपने त्याग और आदर्श की वजह से दंतकथाओं जैसे प्रतीत होने लगते हैं। लेकिन ये दोनों पात्र भूतकाल में वर्तमान समाज के देवतुल्य थे। ‘पतराम दरवज्जा’ जहां पतरामजी की सामाजिक प्रतिष्ठा और उनके दरियादिली का आख्यान है वहीं ‘वक़त एक साधारण औरत की’ पतरामजी की अनुषंगी लगने वाली चुनिया बुआ की। पतरामजी अपनी कहानी में एक कुएं को 500 रुपये में खरीदकर उसके पानी को निःशुल्क करवाते हैं तो चुनिया बुआ 4000 में एक सार्वजनिक कुआं खुदवाती हैं। भारतीय समाज में विधवा औरत की सामाजिक स्वीकृति सम्मानजनक नहीं होती, शुभकार्यों में तो लोग उनका नाम तक नहीं लेते। लेकिन यहां चुनिया काकी इस सोच से परे हर मौके पर याद की जाती हैं। इन दोनों कहानियों के पात्रों में जहां पतरामजी पुरुष समाज का नेतृत्व करते हैं वहीं चुनिया काकी महिला समाज को। कुसुम खेमानी के इस पहले संग्रह में शामिल कहानियों में मानवीय और कौटुम्बिक पक्षधरता सर्वोपरि है। सभी कहानियां अलग-अलग परिवेश लेकिन एक समान रिश्तों की नाजुक डोर से बुनी गई है। उनकी कहानियों में कठोर यथार्थ का पुट विद्यमान है। ‘फर्द होना आदमी का’ और ‘एक पारस पत्थर’ इसी श्रृंखला की अगली कड़ी में शामिल है जो समाज के पारिवारिक उलझनों और अच्छे-बुरे अनुभवों को भाष्य रूप प्रदान करता है। इस संग्रह की शेष चार कहानियां ‘राज्यपाल ऐसा हो’, ‘गरीबधन’, ‘मेरीएन भेद बताओ’, और ‘एकदम चंगे’ मानवीय मूल्यों की वो कहानियां हैं जिसमें सिर्फ और सिर्फ उनके आदर्शों की बात होती है। ‘राज्यपाल ऐसा हो’ एक ऐसे राज्यपाल की कहानी है जो अपने जीवन काल में कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे, पद के मुताबिक पैसे भी खूब कमाए लेकिन अपने आखिरी वक्त में उनके पास सिर्फ एक नौकर और एक बाल्टी बचता है। उन्होंने अपना हवेलीनुमा घर उन गरीब बच्चों के लिए छोड़ दिया जो काफी समय से उस घर में रह रहे थे। ‘गरीबधन’ भी ऐसे ही एक व्यवसायी पुरुष की कहानी है जो नेपथ्य में रहकर भी अपने होने का एहसास कराता हैं। कहानी का मुख्य पात्र राजेन्द्र जिसका बचपन आभावों और मां-बाप के स्नेहिल स्पर्श से परे अपनी बुआ के घर में बीतता है। और फिर राजेन्द्र उस कहानी को चरितार्थ करता है जिसमें कहा जाता है कि ‘उद्यमी और भले साधक की सहायता स्वयं भगवान भी करते हैं।’ राजेन्द्र अपने जीवन दर्शन से अर्थ की नश्वरता को समझ उसकी अर्थवत्ता को समझा रहा है। ‘मरीएन भेद बताओ’ उस अमेरिकी भारतीय महिला की कहानी है जो जीवन और मानव मूल्यों के अलावा कुछ नहीं समझती। अमेरिका के वाशिंगटन में एक समृद्ध परिवार में नाजो-नखरे से पली-बढ़ी मेरीएन को भारत की सोंधी माटी की खुशबु भाती है और यहां के लोगों के सुख-दुख में भागीदार बनती है। उसके लिए एक दिन में 24 घंटे नहीं होते बल्कि 48 घंटे होते हैं। वो एक समृद्ध जीवन का त्याग का त्याग कर कभी सुन्दरवन में रहने वाले बच्चों के लिए उनी कपड़े ले जा रही है तो कभी मानसिक रूप से बीमार महिलाओं के लिए गाउन। इस बीच कभी उस बीमारी की परवाह नहीं करती है जो उसे मानसिक और शारीरिक रूप से तिल-तिल कर मार रही है। श्रृंखला के अंत में ‘एकदम चंगे’ एक ऐसी कहानी है जो डॉक्टर पुरुष के सहारे पंजाबी लोगों की जीवन के प्रति सकरात्मक और उर्जावान जीवन की व्याख्या करती है। दरअसल यह कहानी यह संदेश देती है कि जीवन चाहे जिस मोड़ पर हो पंजाबी लोगों का हाल पूछने पर एक ही जवाब जानते हैं ‘एकदम चंगे’। बहरहाल संग्रह की सभी कहानियां परिदृश्य और परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाकर जो भाव प्रस्तुत करती है वो अपने आप में अप्रतिम है। जहां तक भाषा की बात है तो इन कहानियों में सबसे प्रबल पक्ष भाषा और शैली ही है। ये सभी कहानियां हिन्दी में लिखी गई हैं लेकिन अपने साथ बांग्ला, मारवाड़ी (राजस्थानी), हरियाणवी, उर्दू और अंग्रेजी को जिस प्रकार एकाकार करती है उससे कथा शैली की एक नई परम्परा का दर्शन होता है। कुसुम खेमानी अपनी पहली कहानी संग्रह के माध्यम से एक छाप छोड़ती हैं जो उन्हें साहित्य के प्रति एक सशक्त और गंभीर शैलीकार के रूप में स्थापित करता है।

Tuesday 11 September 2012

असीम पर लगा देशद्रोह का आरोप वापस होगा?

नई दिल्ली।। कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी पर लगे देशद्रोह के आरोप अगले 24 घंटों में वापस लिए जा सकते हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक असीम पर अब सिर्फ राष्ट्रीय प्रतीक के अपमान के मामला चलेगा।

वहीं, असीम की गिरफ्तारी के विरोध में देशभर में धरने और प्रदर्शन किए जा रहे हैं। मंगलवार को अरविंद केजरीवाल ने मुंबई की आर्थर रोड जेल जाकर असीम से मुलाकात की और यह ऐलान किया है कि अगर शुक्रवार तक असीम के खिलाफ केस नहीं हटाया गया तो शनिवार को जेल के बाहर धरने पर बैठ जाएंगे।

गौरतलब है कि अन्ना समर्थक और इंडिया अगेंस्ट करप्शन से जुड़े 25 वर्षीय असीम को 'आपत्तिजनक' कार्टून बनाने के आरोप में आईपीसी की धारा 124A (राजद्रोह), इंफॉर्मेशन टेक्नॉलजी ऐक्ट के तहत शनिवार को अरेस्ट किया गया था। पहले उन्हें 7 दिन की पुलिस हिरासत में भेजा था। एक दिन की पूछताछ के बाद पुलिस ने यह कहते हुए कि इस मामले में और जांच की जरूरत नहीं है, असीम को कस्टडी से इनकार कर दिया था। बाद में कोर्ट ने असीम को 24 सितंबर तक न्यायिक हिरासत में भेजा दिया। उधर, असीम ने खुद जमानत लेने से इनकार कर दिया था।

कानपुर के रहने वाले त्रिवेदी पर आरोप लगाया गया है कि उन्होंने मुंबई में पिछले साल दिसंबर में अन्ना हजारे की एक रैली के दौरान संविधान का मजाक उड़ाते हुए बैनर लगाए। असीम ने अपने एक कार्टून में तीन शेरों के स्थान पर तीन भेड़िये दिखाए थे और कार्टून के नीचे 'सत्यमेव जयते' की जगह 'भ्रष्टमेव जयते' लिखा था।

16 अक्टूबर को सैफ-करीना की शादी, कार्ड छपे

पटौदी। सैफ अली खान एवं करीना कपूर की शादी पूर्व निर्धारित तिथि 16 अक्टूबर को मुंबई में हो सकती है। लेकिन सैफ की मा शर्मिला टैगोर ने इसकी रिसेप्शन पार्टी पैतृक गाव पटौदी में देने का निर्णय कर लिया है। यहा तक कि कार्ड में स्थल और 18 अक्टूबर की तिथि भी तय कर दी गई है।

अभी तक सैफ-करीना की शादी को लेकर विरोधाभासी बयान आते रहे हैं। कुछ दिन पूर्व भोपाल में शर्मिला टैगोर ने कहा था कि शादी अक्टूबर में होगी तथा रिसेप्शन मुंबई में होगा। शादी के तीन कार्यक्रम तय हुए थे। परिवार शादी मुंबई में करने पर विचार कर रहा है तथा बाद में पार्टी दिल्ली तथा पटौदी में भी दी जाएगी। अब लगभग इस बात पर मुहर लग गई है। नवाब परिवार से जुड़े सूत्रों की माने तो नवाब परिवार ने शादी का कार्यक्रम तय कर लिया है। शादी 16 अक्टूबर को मुंबई में ही होगी। 17 अक्टूबर को दिल्ली में और 18 अक्टूबर को पटौदी में रिसेप्शन पार्टी दी जाएगी। 18 तथा 19 अक्टूबर को पटौदी में ही कार्यक्रम होंगे तथा इस दौरान सैफ-करीना यहीं रहेंगे। नवाब से जुड़े सूत्रों की माने तो पटौदी में होने वाली पार्टी के कार्ड भी छप चुके हैं। इसमें आमंत्रित करने वाले के रूप में शर्मिला टैगोर उर्फ रिंकू का नाम लिखा गया है। शर्मिला टैगोर का घरेलू नाम रिंकू है।

देश का सबसे महंगा तलाक: 5 करोड़ रुपये में टूटी 20 साल पुरानी शादी

नई दिल्‍ली. दिल्‍ली के एक जोड़े ने 20 साल के बाद शादी तोड़ने का फैसला किया है। इसके लिए पति ने पांच करोड़ रुपये चुकाने की हामी भरी है। पत्‍नी भी इतनी रकम लेकर तलाक के लिए तैयार है। पति-पत्‍नी की आपसी सहमति से होने जा रहे इस तलाक पर दिल्‍ली की साकेत फैमिली कोर्ट ने अपनी मुहर लगा दी है। यह देश के सबसे 'महंगे' तलाक में से एक है। तलाक लेने वाला पति दिल्‍ली का एक बड़ा कारोबारी है। इनकी शादी 1992 में हुई थी। इस साल फरवरी में उन्‍होंने तलाक की अर्जी दी। शुरुआत में उन्‍होंने तलाक के एवज में एक करोड़ रुपये देने की सहमति दी थी, लेकिन तलाक पर अंतिम मुहर लगने के लिए जो छह महीने का वक्‍त मिला, उस बीच उन्‍होंने चार करोड़ रुपये और देने का फैसला किया। इस जोड़े के दो नाबालिग बच्‍चे हैं। पति-पत्‍नी ने यह भी तय कर लिया कि बेटा बाप के साथ रहेगा, जबकि बेटी को मां रखेगी। महिला को पचास लाख रुपये का भुगतान किया जा चुका है। समझौते के मुताबिक अब कारोबारी को बेटी के नाम ढाई करोड़ रुपये की एफडी करानी है और शेष रकम मां मकान खरीदने के लिए इस्‍तेमाल करेगी। कोर्ट ने तलाक के समझौते पर मुहर लगाते हुए आदेश दिया कि पांच करोड़ रुपये मिल जाने के बाद महिला का अपने पूर्व पति की संपत्ति पर कोई दावा नहीं रह जाएगा।

जगजाहिर हुआ शाहरुख की फिल्‍म का नाम, पोस्‍टर


मुंबई. इस साल दिवाली के मौके पर रिलीज होने वाली शाहरुख खान की फिल्‍म का नाम सामने आ गया है। किंग खान की इस फिल्‍म का नाम है, 'जब तक है जान'। यश राज फिल्‍म्‍स के बैनर तले बन रही इस फिल्‍म में शाहरुख के अलावा अनुष्‍का शर्मा और कैटरीना कैफ होंगी। इस फिल्‍म के पोस्‍टर मंगलवार को कुछ अखबारों के फ्रंट पेज पर दिखाई दिए। इसमें शाहरुख को आर्मी की वर्दी पहने और रॉयल एनफील्‍ड पर बैठे दिखाया गया है। रोमांटिक कहानी वाली इस फिल्‍म का डायरेक्‍शन यश चोपड़ा कर रहे हैं। स्‍क्रीनप्‍ले आदित्‍य चोपड़ा ने लिखा है जो इस फिल्‍म के प्रोड्यूसर भी हैं। बतौर डायरेक्‍टर यश चोपड़ा इस फिल्‍म के जरिये आठ साल बाद वापसी कर रहे हैं। 'प्रेम त्रिकोण' पर आधारित इस फिल्‍म के पोस्‍टर पर पोएट्री भी लिखी हुई है। फिल्‍म की कुछ शूटिंग हाल में जम्‍मू-कश्‍मीर की वादियों में हुई है। जहां उनके प्रशंसकों को उन्‍हें देखने के लिए पुलिस की लाठियां तक खानी पड़ी थीं।


शराब छोड़ने के लिए भी जरूरी है संगत

नई दिल्ली || रमेश (बदला हुआ नाम), जिनकी शराब की लत ने आज से सात साल पहले न सिर्फ खुशहाली छीन ली थी बल्कि उन्हें लिवर सिरोसिस जैसे गंभीर रोग का मरीज बना दिया था, आज न सिर्फ शराब से पूरी तरह छुटकारा पा चुके हैं बल्कि दूसरों को भी इससे निजात पाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। वह एक फार्मासिस्ट हैं और ‌आज अपने परिवार के साथ एक खुशहाल और सेहतमंद जिंदगी जी रहे हैं।

रमेश जैसे कई लोग जो कभी चाहकर भी शराब नहीं छोड़ पा रहे थे, आज खुद अपने प्रयासों से नशे से पूरी तरह मुक्त हो चुके हैं। इसमें उनकी भूमिका के साथ-साथ 'ऐल्कॉहॉलिक्स एनॉनिमस' के अंतर्गत चलने वाले कई स्वयं सहायता समूहों का योगदान है।

यहां उन्हें एक ऐसा मंच मिलता है जिसपर वह शराब छोड़ने में आने वाली सारी अड़चनों, अपनी कोशिशों, अपने अनुभवों को एक-दूसरे से साझा कर सकते हैं। साथ ही, अपनी लत के छूटने के बाद अपने ही जैसे दूसरे लोगों का हौसला बढ़ाते हैं।

क्या है 'ऐल्कॉहॉलिक्स एनॉनिमस'
रमेश जैसे कई लोग शराब की लत से छुटकारा पाने की चाह में 'ऐल्कॉहॉलिक्स एनॉनिमस' से जुड़े कई संगठनों में शामिल होते हैं और समूह में अपने अनुभव एक-दूसरे से बांटते हैं। अगर शराब छोड़ने की चाह किसी व्यक्ति में हो तो इस माध्यम से उसकी मुश्किलें काफी हद तक आसान हो सकती हैं।

ऐल्कॉहॉलिक्स एनॉनिमस से जुड़े संगठन 'गोल्डन फूटवर्क्स' के एक कार्यकर्ता ने अपना नाम न बताने की शर्त पर बताया, "इस तरह के समूहों से जुड़ने के पीछे हर व्यक्ति की अपनी-अपनी वजह होती हैं। कोई खुद हमसे संपर्क करता है कि वह अपनी शराब छोड़ना चाहता है पर छोड़ नहीं पाता।"

उन्होंने कहा, "कोई यहां आना नहीं चाहता पर उसके परिवार वाले हमसे संपर्क करते हैं और हम उसे अपने समूह में शामिल करने का हर संभव प्रयास करते हैं। कोई स्वास्थ्य के कारणों से शराब छोड़ना चाहता है तो कोई पारिवारिक व आर्थिक दायित्वों को पूरा न कर पाने की ग्लानि में छोड़ना चाहता है, पर छोड़ नहीं पाता।"

कैसे मदद करता है यह नेटवर्क
'ऐल्कॉहॉलिक्स एनॉनिमस' एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का नेटवर्क या संस्था है जिससे देश-विदेश के कई स्वयं सेवी संगठन और स्वयं सहायता समूह जुड़े हुए हैं। दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश आदि कई राज्यों में इस नेटवर्क के तहत स्थानीय स्तर पर कई समूह जुड़े हुए हैं। इन समूहों में शराब की समस्या से जूझ रहे लोग शामिल होते हैं।

समूह में लोग अपनी समस्याओं और उपायों को साझा तो करते हैं ही, साथ ही शराब छोड़ चुके लोग दूसरों को अपने अनुभवों से शराब छोड़ने की प्रेरणा भी देते हैं। इन समूहों में हर वह व्यक्त‌ि शामिल हो सकता है जो शराब छोड़ने का इच्छुक है।

'गोल्डन फूटवर्क्स' के कार्यकर्ता ने इसके कुछ नियमों पर प्रकाश डालते हुए बताया कि इसमें किसी भी व्यक्त‌ि का व्यक्तिगत रिकॉर्ड नहीं रखा जाता है। यहां तक कि मीटिंग के दौरान भी शामिल लोगों का परिचय उनके पहले नाम से ही कराया जाता है।

परिवार के लिए भी होते हैं सेशन
कोई व्यक्ति कितनी भी शराब छोड़ने की कितनी भी कोशिश कर ले लेकिन अगर उसे अपने परिवार का सहयोग पूरी तरह नहीं मिल पा रहा है तो सारे प्रयास निरर्थक हैं। यही वजह है कि 'ऐल्कॉहॉलिक्स एनॉनिमस' से जुड़े सहायता समूहों में परिवार की काउं‌सलिंग को भी तवज्जो दिया जाता है।

इसमें शुरुआती दौर में कुछ सेशन ऐसे कराए जाते हैं जिसमें रोगी अपने परिवार के साथ शामिल हो सकता है, इन्हें ओपेन सेशन कहते हैं। इसके अलावा केवल रोगियों के लिए 'क्लोज सेशन' किए जाते हैं, जिसमें केवल वही लोग शामिल हो सकते हैं जो शराब छोड़ने की जद्दोजहद में हैं।

इस बारे में 'गोल्डन फूटवर्क्स' के कार्यकर्ता बताते हैं, 'हम अपने ओपन सेशन में शराब छोड़ने के इच्छुक व्यक्ति के साथ परिवार को इसलिए जोड़ते हैं कि जिस तरह हमारे सेशन में आने से उस व्यक्ति की सोच बदल रही है, उसी तरह उसके परिवार को भी अपनी सोच में बदलाव करना चाह‌िए। कई बार ऐसा होता है कि शराबी तो अपनी कोशिशों से शराब छोड़ देता है लेकिन उसका परिवार उस पर विश्वास नहीं करता जिससे उपेक्षित होकर वह व्यक्ति वापस नशा शुरू कर देता है।'

वह यह भी बताते हैं कि कई बार शराबी यह मानने के लिए तैयार ही नहीं होता कि वह शराब की लत में है। ऐसे में उसके परिवार के लोग हमारे पास मदद के लिए आते हैं। तब हम परिवार के लोगों के सेशन लेते हैं और रोगी के घर जाकर उससे अपने अनुभव बांटते हैं।

सिर्फ '12 स्टेप्स' का कमाल
शराब 'ऐल्कॉहॉलिक्स एनॉनिमस' के सहायता समूहों की बैठकों में शराब छुड़ाने का प्रयास 12 स्टेप में किया जाता है जिन्हें आध्यात्म से जोड़ा गया है। कायकर्ता के अनुसार, '12 आध्यात्मिक चरणों से हम शराब की लत से जूझ रहे व्यक्ति को यह विश्वास दिलाते हैं ईश्वर इस काम में उनके साथ है। इससे व्यक्ति का मनोबल बढ़ता है और उसे यह एहसास कराया जाता है कि कोई भी लत उसके मनोबल से बढ़कर नहीं है।'

बैठक के इन चरणों में पहले उसकी समस्याओं को सुनकर उसे प्रोत्साहित किया जाता है, फिर चरणबद्ध तरीके से शराब छोड़ने के प्रयासों और उसकी उपलब्धियों की जानकारी ली जाती है, उसके आस-पास का वातावरण कैसा है इसके आधार पर उसे उन लोगों से बतचीत के लिए प्रोत्साहित किया जाता है जो इसमें उसकी मदद करते हैं और उन लोगों से दूर रखने की कोशिश की जाती है जो उसे कमजोर बनाते हैं। इसके अलावा, ध्यान और प्रार्थना द्वारा उसके जीवन में सकारात्मकता लाने का प्रयास किया जाता है।

शराब छुड़ाने के लिए बैठकों में लोग जहां अपने अनुभव बांटते हैं, वहीं इसके लिए उन्हें कुछ किताबें भी पढ़ने के लिए दी जाती हैं जिनसे उनकी सोच बदल सके। इसमें किताबों के प्रकाशन के शुल्क और बैठक के दौरान चाय-पानी के शुल्क को छोड़कर उनसे किसी प्रकार का शुल्क नहीं लिया जाता है।

'मुगलों और अंग्रेजों के मुखबिर थे दिग्गी के पूर्वज'

मुंबई।। ठाकरे परिवार को बिहार मूल का बताने वाले कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह पर उन्हीं के अंदाज में पलटवार किया गया है। शिवसेना के मुखपत्र 'दोपहर का सामना' के एक लेख में दिग्विजय के पूर्वजों 'दगाबाज' कहते हुए दावा किया गया है कि वे मुगलों और अंग्रेजों के मुखबिर थे। लेख में ठाकरे के पूर्वजों की खूब तारीफ गई है। कहा गया है कि शिवाजी की सेना में ठाकरे के पूर्वजों का अहम स्थान रहा है। वहीं, दिग्विजय को खिंची कुल का बताया गया है। लेख में कहा गया है कि दिग्विजय के पूर्वज मुगलों और अंग्रेजों की मुखबिरी करते थे।

इसमें लिखा गया है, 'ठाकरे कुल पर आरोप लगाने वाले दिग्विजय सिंह का कुल भी जांच लिया जाए। ठाकरे कुल के पूर्वज तो छत्रपति शिवराज की सेना के शूरवीर थे। वे हिंदू स्वराज के लिए लड़ रहे थे। दिग्विजय सिंह का कुल खींची राजपूतों का है। वे जिस राघोगढ़ रियासत के राजा हैं उसका अधिकृत इतिहास उनके खींची होने की पुष्टि करता है। खींची संस्थान, जोधपुर से प्रकाशित 'सर्वे ऑफ खींची हिस्ट्री'जिसके लेखक ए.एच निजामी और जी. ए. खींची हैं, का दावा है कि खींची उपजाति राजपूत धन लेकर युद्ध करने के लिए कुख्यात रहे हैं। ... दिग्वजिय जिस रोघागढ़ रियासत के कुंवर हैं, वह रियासत गरीबदास नामक योद्धा को बादशाह अकबर ने दी थी। जब राजपूताना और मामलाव के अधिकांश क्षत्रिय राणा प्रताप की ओर हो लिए थे, तब भी राघोगढ़ का गरीबदास अकबर का मुखबिर था। इस गद्दी पर 17 97 तक दिग्विजय का पूर्वज बलवंत सिंह मौजूद था। '1778 के प्रथम मराठा-अंग्रेज युद्ध में बलवंत सिंह ने अंग्रेजों की मदद की थी।

गौरतलब है कि पिछले कुछ दिनों से दिग्विजय सिंह और ठाकरे परिवार के बीच जुबानी जंग छिड़ी हुई है। विवाद तब शुरू हुआ जब दिग्विजय सिंह ने यह कहा कि बिहारियों का विरोध करने वाला ठाकरे परिवार खुद बिहार से आया है। इसके लिए उन्होंने ठाकरे परिवार पर लिखी किताब का हवाला भी दिया। दिग्विजय के इस बयान से तिलमिलाए उद्धव ठाकरे ने उन्हें पागल तक कह डाला।

'राहुल गांधी पर रेप के आरोप के पीछे अखिलेश'

नई दिल्ली/ कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के खिलाफ लड़की के रेप और अपहरण के आरोप मामले ने नया मोड़ ले लिया है। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता किशोर समरिते की वकील कामिनी जायसवाल ने कहा कि राहुल गांधी के खिलाफ रेप और अपहरण से संबंधित याचिका सपा नेता अखिलेश यादव के इशारे पर इलाहाबाद हाईकोर्ट में दायर की गई थी। अखिलेश यादव फिलहाल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं।

समाचार एजेंसी के मुताबिक समरिते की वकील जायसवाल ने अदालत से कहा कि उन्हें पंडारा रोड से निर्देश मिला था कि वह राहुल गांधी के खिलाफ हाईकोर्ट में यह याचिका दायर करें। जब जज स्वतंत्र कुमार ने पंडारा रोड के जिक्र पर स्पष्टीकरण मांगा तो जायसवाल ने कहा कि निर्देश यूपी के मौजूदा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की ओर से मिले थे।

न्यायमूर्ति बीएस चौहान और न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार की खंडपीठ मध्य प्रदेश के पूर्व विधायक किशोर समरीते की उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी जिनमें समरीते ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी। हाईकोर्ट ने समरिते के खिलाफ सीबीआई जांच शुरू करने और 50 लाख जुर्माना लगाने का आदेश दिया था। हालांकि सुनवाई के दौरान अखिलेश यादव के वकील रत्नाकर दास ने समरीते के वकील के बयान का पुरजोर विरोध किया। बाद में अदालत ने 17 सितंबर तक के लिए कार्यवाही स्‍थगित कर दी।

समरिते का आरोप था कि 2006 में राहुल गांधी और उनके दोस्तों की अमेठी यात्रा के दौरान स्थानीय लड़की गायब हो गई थी। उन्होंने आरोप लगाया कि लड़की के साथ रेप हुआ था।

कोयला घोटाले में एक और कांग्रेसी नेता का नाम

कोल घोटाले में एक और कांग्रेसी नेता संतोष बगरोड़िया का नाम सामने आया है। एक अंग्रेजी अखबार के मुताबिक पूर्व कोयला मंत्री संतोष बगरोड़िया के परिवार की 10 फीसदी हिस्सेदारी वाली कंपनी मिनेक्स फिनवैस्ट प्राइवेट लिमिटेड को खनन का कोई अनुभव नहीं होने के बावजूद पकरी बरवाडीह खदान का अनु‌बंध दिया गया।

खास बात यह है कि इस कंपनी के पास अधिक वित्तीय स्‍त्रोत नहीं थे, फिर भी 23 हजार करोड़ रुपए का अनुबंध दिया गया। कोयला मंत्रालय के तहत एक पीएसयू सिंगरेनी कोलरी को छोड़कर खनन के अनुबंध के लिए कोई दूसरी बोली नहीं थी। इसके बाद सिंगरेली की बोली रद्द कर दी गई और बगरोडिया के भाई विनोद की हिस्सेदारी वाली कंपनी को ब्लॉक का कोयला खनन का अनुबंध दिया गया।

मालूम हो कि बगरोड़िया मनमोहन सराकर में अप्रैल 2008 से मई 2009 के बीच कोयला राज्य मंत्री रहे थे। हालांकि बगरोड़िया ने अपने भाई की हिस्सेदारी वाली कंपनी को अनुबंध दिए जाने में अपनी किसी भी भूमिका से इनकार किया है। उन्होंने कहा कि विनोद उनके भाई है लेकिन उन्हें पता नहीं ‌है वे किस तरह का कारोबार कर रहे हैं और न ही वे कारोबार के सिलसिले में उनसे कोई सलाह लेते हैं।

Monday 10 September 2012

'मिनरल वाटर' से पांव धोते हैं लालू...!


मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राजद प्रमुख लालू प्रसाद द्वारा ‘मिनरल वाटर’ से पैर धोने के मामले में सोमवार को चुटकी लेते हुए कहा कि वे तो इसका उपयोग पीने के लिए करते हैं।

गोपालगंज में एक जनसभा के दौरान लालू प्रसाद रविवार को मिनरल वाटर की बोतल से अपना पैर धोते हुए दिखे थे। उनके बगल में पूर्व सांसद प्रभुनाथसिंह भी मंच पर बैठे हुए थे। इस संबंध में संवाददाताओं के सवाल पर लालू पर चुटकी लेते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि यह तो लालू जी जाने। हम तो मिनरल वाटर केवल पीने के काम में लाते हैं। 

विनाशकाले विपरीत बुद्धि : विशेष राज्य का दर्जा की मांग को लेकर राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के बयानों से आहत नीतीश कुमार ने कहा कि पूर्व मुख्यमंत्री का 'विनाश काले विपरीत बुद्धि' वाला हाल है। लालू प्रसाद बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने के संबंध में जदयू के अभियान को आड़े हाथ ले रहे हैं और इसके बदले में राज्य को विशेष पैकेज देने की मांग को व्यावहारिक बता रहे हैं। 

मुख्यमंत्री ने इस संबंध में लालू के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा, विशेष राज्य का दर्जा बिहार के जन-जन की मांग है और राज्य के लोगों का हक है। बिहार का नेता होने का दावा करने वाला व्यक्ति (लालू) विशेष राज्य का दर्जा का विरोध करता है तो इसे विनाश काले विपरीत बुद्धि ही कहेंगे। 

आगामी चुनावों में राजग के बड़ी शक्ति के रूप में उभरने का परोक्ष रूप से संभावना व्यक्त करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा, जनता हमें इतनी शक्ति देगी कि हम विशेष राज्य का दर्जा लेकर रहेंगे। विशेष राज्य को लेकर पुराने पैमाने पर केंद्र को लकीर का फकीर बने नहीं रहना चाहिए। 

नीतीश ने कहा कि अभी विशेष पैकेज नहीं, बल्कि विशेष राज्य का दर्जा की मांग करने की दरकार है। विशेष पैकेज तो केंद्र की ओर से 10वीं पंचवर्षीय योजना से मिल रहा है। दिल्ली में राजग सरकार में रहते हुए इसे हमने उठाया था। उन्होंने कहा, बिहार को विकसित राज्य बनाना है तो विशेष राज्य का दर्जा केंद्र को देना होगा। 2006 से इसकी मांग हम उठा रहे हैं। बिहार विधानमंडल में सर्वसम्मति से इसका प्रस्ताव पारित किया गया था। राजद ने भी इसका समर्थन किया था। 

पीएम पद का उम्मीदवार राजग तय करेगा : शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे द्वारा सुषमा स्वराज को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बताए जाने पर नीतीश ने कहा, प्रधानमंत्री के उम्मीदवार का फैसला राजग की बैठक में तय होगा। इस मामले में मेरी टिप्पणी की जरूरत नहीं है। भाजपा इस पर विचार रखेगी तो सहयोगी दल चर्चा करेंगे और राजग की ओर से कोई फैसला होगा। पहले भी ऐसा होता आया है कि भाजपा प्रधानमंत्री उम्मीदवार के बारे में विचार रखती आई है। 

वर्ष के अंत में होने वाले गुजरात विधानसभा और वहां चुनाव प्रचार के लिए जाने के संबंध में पूछे गए सवाल के बारे में नीतीश ने कहा, इस संबंध में फैसला पार्टी का शीर्ष नेतृत्व लेगा। मैं आने वाले समय में अधिकार यात्रा, सेवा यात्रा और बिहार विधानमंडल के शीत सत्र में व्यस्त रहूंगा। इसके अलावा पाकिस्तान जाने का भी कार्यक्रम है। जदयू पहले भी गुजरात में विधानसभा चुनाव लड़ती रही है। 

मैं प्राचीन कलाकृति बन गया हूं-प्रणब


एक सक्रिय राजनीतिक जीवन के बाद राष्ट्रपति भवन पहुंचने के बदलाव पर मजाकिया टिप्पणी करते हुए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने सोमवार को कहा कि मैं प्राचीन कलाकृति बन गया हूं।

देश के वित्तमंत्री का पद छोड़कर इसी वर्ष जुलाई में राष्ट्रपति की कुर्सी संभालने वाले प्रणब मुखर्जी के सम्मान में आज सीआईआई द्वारा आयोजित सम्मान समारोह में उन्होंने कहा कि निश्चित रूप से यह (राष्ट्रपति बनना) तस्वीर का दूसरा रुख है कि मैं भारतीय राजनीतिक गतिविधियों के मंच पर एक प्राचीन कलाकृति बन गया हूं।

उन्होंने कहा कि मेरी क्षमता अलग हो गई है, जहां मुझे एक फायदा है और एक भारी नुकसान भी है। फायदा यह कि मैं सलाह के तौर पर खुलकर बोल सकता हूं और नुकसान यह है कि मैं जो कुछ बोलता हूं, उसे अमल में नहीं ला सकता। 
राष्ट्रपति ने संसद में वित्तमंत्री के तौर पर अपने अंतिम भाषण को याद करते हुए एक बार फिर अपने शानदार सेंस ऑफ ह्यूमर का परिचय दिया।

ठहाकों और तालियों के बीच उन्होंने कहा कि लोकसभा में अपने अंतिम भाषण में मैं यह नहीं भूला कि शायद लोकसभा में यह मेरा अंतिम भाषण हो क्योंकि मैं उस परिसर में प्रवेश से वंचित होने वाला था। मुखर्जी ने कहा कि अब नई पीढ़ी को राजनीति में अपना दायित्व निभाना चाहिए।

उन्होंने कहा कि पुरानी पीढ़ी (राजनीति में हम सब जो हैं) अभी भी जगह भरे बैठी है। शायद हम में से कुछ को युवाओं के लिए जगह खाली कर देनी चाहिए।

Friday 7 September 2012

पत्रों में बिहार

पुस्तक समीक्षा

अजय पाण्डेय
इस पुस्तक को पढ़ते हुए श्रीकांत बाबू को धन्यवाद करने की असीम उत्कंठा हो रही है। दरअसल श्रीकांत द्वारा संकलित ‘बिहारः चिट्ठियों की राजनीति’ पुस्तक कोई साहित्यिक विमर्श की प्रस्तुति नहीं है जिसकी साहित्यिक और अलंकारिक परिपाटी पर समीक्षा की जाए। वस्तुतः यह एक ऐसा संकलन है जो राजनीति की वास्तविकता से संवाद कराता है। बिहार और वहां की राजनीति के संदर्भ में अभी तक जो जानकारी थी वो इस पुस्तक के अध्ययन से और भी व्यापक हो जाती है। इससे पहले कि किसी विशेष पत्र का जिक्र हो, इस पुस्तक की महत्ता पर थोड़ी और चर्चा अपेक्षित है। यह ऐसा संकलन है जो बिहार के हर काल को आइने में उतारता है। देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद से लेकर नीतीश कुमार तक के पत्र ने, न सिर्फ राजनेताओं के आपसी वैचारिक मतभेद को उजागर किया है बल्कि जातिवाद, हिन्दु-मुस्लिम एकता, वोट-बैंक की राजनीति और आपसी तनातनी पर से भी पर्दा उठाया है। इस संकलन का पहला पत्र जो 1947 में डॉ राजेन्द्र प्रसाद द्वारा श्रीबाबू को लिखा गया था, वो बिहार की जातिगत और हिन्दु-मुस्लिम एकता की व्यक्तिवादी सोच पर आधरित राजनीति को दर्शाता है जो आजतक बिहार की राजनीति में परिलक्षित हो रही है। इस संकलन में खास बात यह है कि इसमें जितने भी राजनेताओं के पत्र शामिल किए गए हैं वो नेता किसी-न-किसी बड़े आंदोलन की उपज हैं चाहे वो राजेन्द्र बाबू हों या फिर नीतीश कुमार। और सबके राजनीतिक स्त्रोत एक ही हैं। अर्थात् बिहार की राजनीतिक पृष्ठभूमि पर दृष्टिगोचर होने वाले सभी राजनेता इतिहास की परिस्थितियों से बाहर निकले हैं जिन्हें राजनीतिक महत्वकांक्षाओं ने एक-दूसरे के सामने खड़ा कर दिया है। यह संकलन दरअसल राजनीतिक अन्तर्कलहों और अंतर्विरोधों का प्रतीक है नहीं तो बापू को संबोधित अपने पत्र में सूर्यनारायण आदर्शवादिता की दुहाई नहीं देते। हालांकि यह एकमात्र ऐसा पत्र नहीं है जिसमें आपसी मतभेद और परिस्थितियों की बात कही गई है बल्कि पूरी श्रृंखला है जो वैचारिक और राजनीतिक मतभेद और संवादहीनता के बीच निर्वात में गोता लगा रही है। आज हम जिन नेताओं को राजनीति के आपाधापी से पृथक कर, उनके लिए एक आदर्श दृष्टिकोण रखते हैं उनको संबोधित पत्र या उनके द्वारा लिखे पत्र को पढ़ते हुए एहसास होता है कि वे भी राजनैतिक परिभाषा की परिधि से बाहर नहीं थे। हालांकि इस संकलन में बात सिर्फ राजनीति तक सीमित नहीं है बल्कि राजनीति से आगे उसके अपराधीकरण की भी है। इस संकलित पत्रों से स्पष्ट होता है कि बिहार की राजनीति न सिर्फ जातिगत मुद्दों में उलझी रही बल्कि अपराधिक प्रवृति से भी लबरेज रही है। इससे बिहार की राजनीति का पतन तो हुआ ही है साथ ही नौकरशाही व्यवस्था को भी पतोन्मुख कर दिया। जिसका प्रमाण है अशोक चौधरी द्वारा 1978 में यशवंत सिन्हा को लिखा पत्र जो तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के प्रधान सचिव थे। इसमें लिखी बातों से स्पष्ट होता है कि तत्कालीन न्याय व्यवस्था को जातीय आधर पर स्थापित किया जा रहा है। हालांकि कुछ पत्रों में इसकी पीड़ा को भी देखा जा सकता है। जैसे ब्रम्हेश्वर मुखिया को लेकर कारा महानिरीक्षक को लिखा गया बक्सर के पुलिस अधीक्षक अमिताभ कुमार दास का पत्र। संकलित पत्रों को पढ़कर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि न सिर्फ बिहार शुरू से ही जातिवाद की राजनीति के दलदल में फंसा रहा बल्कि जितने भी बड़े नेता हुए हैं वो जातिवादी रहे हैं। हालांकि वर्तमान बिहार जो तथाकथित विकास की सीढ़ियों पर लगातार अग्रसर हो रहा है आज भी इस जातिगत मुद्दों से उबरा नहीं है। विकास के ‘अग्रदूत’ बने नीतीश कुमार भी इसी जोड़-तोड़ के परिणाम हैं। नीतीश कुमार जहां दलितों की राजनीति करते रहे और आरोप झेलते रहे कि उनके बाहरी और भीतरी व्यक्तित्व में काफी असमानता है। दूसरी तरफ नीतीश कुमार के समकालीन लालू यादव के पत्रों को पढ़कर यह स्पष्ट होता है कि वे हमेशा जातिगत आधारों के भरोसे रहे। वे हमेशा अवसरवादिता की राजनीति करते रहे। चाहे वो बिहार में मुख्यमंत्री बने रहने का दौर हो या फिर केन्द्र में रेलमंत्री बनने का। सभी परिस्थितियों में उनके अवसरवादी होने की भावना परिलक्षित होती है। हालांकि इस बीच शिवानंद तिवारी के पत्रों की भी बड़ी चर्चा रही। उनके लिखे पत्रों से तो यह स्पष्ट होता है कि वो लालू यादव और नीतीश कुमार के दो ध्रुवी खेमों में डोलते रहे। वे कभी लालू यादव के शुभचिंतक बन उन्हें नसीहत देते रहे तो कभी नीतीश कुमार को। चिट्ठियों की इस राजनीति में सबसे ज्यादा राजनीतिक दाव-पेंच लालू यादव और नीतीश कुमार के पत्र में देखने को मिलता है। यह उस दौर की बात थी जब महाराष्ट्र में रेलवे की परीक्षा देने गए बिहारियों के साथ हिंसा की घटना हुई थी। तब लालू यादव केन्द्र में रेलमंत्री थे और नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री । इन दोनों के पत्रों को पढ़कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस वक्त राजनीति किस कदर की जा रही थी। इसके अलावा इसमें कुछ पत्र और भी शामिल हैं जो बिहार की समाजवादी राजनीति को दर्शाते हैं। जैसे कर्पूरी ठाकुर और रामानंद तिवारी के बीच का पत्र। बहरहाल इस पुस्तक के माध्यम से आजादी के छह दशकों के राजनीति परिदृश्य में हुए बदलावों को देखा जा सकता है। दरअसल ये सभी पत्र बिहार की राजनीति को समझने का जरिया प्रदान करते हैं। इससे यह भी समझा जा सकता है कि बिहार की राजनीति तीन पीढ़ियों से गुजरी है और जिस युग की बागडोर जिन नेताओं के पास थी उनकी सोच अगली पीढ़ी के नेताओं से कितनी पृथक थी। 

बिहारः चिट्ठियों की राजनीतिः श्रीकांत
वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज
नई दिल्ली- 110 002
कीमतः 200रु.

AMAR BHARTI (HINDI DAILY)
Pratap Bhawan, 5, Bahadurshah Zafar Marg,
New Delhi-110002
Tel.:011-23724460, 43083451 Fax:011-23724456

Sunday 2 September 2012

साहित्यिक परम्परा का दर्शन


पुस्तक समीक्षा

 अजय पाण्डेय

श्रीलाल शुक्ल की ‘अज्ञेयः कुछ रंग, कुछ राग’ एक ऐसी आलोचनात्मक रचना है जो इस शैली की सभी परम्पराओं से पृथक एक नई रंग पेश करती है। दरअसल उन्होंने जितनी भी रचनाएं की हैं वो किसी शैली विशेष की व्याख्या या आलोचना न होकर उसे समझने और समझाने की कला है। पुस्तक के प्रथम खण्ड ‘कहानी आन्दोलन और अज्ञेय की कहानियां’ इस बात पर प्रकाश डालती हैं कि कोई भी कहानी किसी एक क्षण का चित्रा प्रस्तुत करती है और वह क्षण किसी भी प्रारूप में हो सकता है। लेकिन श्रीलाल शुक्ल ने उस क्षण की बात कही है जब अज्ञेय ने भाषा, नई पीढ़ी, सैधांतिक पक्षों की प्रबलता और बदलाव के कारण कहानी लेखन छोड़ चुके थे। उसके बाद कथाकारों का जो दौर शुरू हुआ, उन्होंने अपने को पूर्ववर्ती लेखकों से भावबोध्, शिल्पबोध्, प्रवाह, मौलिकता आदि कई बिन्दुओं पर अलग स्थापित किया। साहित्य के घूमते पहिए ने अज्ञेय को औचित्यहीन बना दिया था । हालांकि इसका वाजिब कारण यह भी था कि कुछ समवयस्क लेखक अज्ञेय सरीखे कथाकारों की शैली को खारिज कर रहे थे। लेकिन अज्ञेय ने उस उम्र से कहानियां लिखनी शुरू की थी जिस उम्र में उनके समकालीन कथाकार भाषा और शैली को समझ रहे थे। वैसे इसमें एक बात और खास है कि इस कालखंड में जहां प्रेमचंद की शैली एक अलग ही साहित्यिक छाप छोड़ रही थी वहीं अज्ञेय प्रेमचंद के प्रभाव से बाहर एक अलग परम्परा स्थापित कर रहे थे। अज्ञेय अपनी कहानियों में विभिन्न परिस्थितियों में अवस्थित व्यक्ति के मनोलोक के अन्वेषण की ओर हमेशा अग्रसर रहे। और यही विध उन्हें बाकियों से अलग करता है। अज्ञेय अपनी रचना में इतने सचेष्ट हैं कि उनकी रचनाएं साहित्यिक हस्तक्षेप प्रस्तुत करती हैं। हालांकि आगे चलकर श्रीलाल शुक्ल ने अज्ञेय के बारे में यह भी लिखा है कि उनकी अनेक ऐसी कहानियां हैं जिसमें अपरिपक्वता थी, लेकिन तब यह भी स्पष्ट है कि ऐसा आरोप लगभग सभी लेखकों पर लगता रहा है और अज्ञेय ने तो अधिकतम कहानियां अपने युवावस्था में लिखी हैं। जहां तक उनकी कहानियों के आकलन की बात है तो अज्ञेय अपनी सभी विधाओं में मुखर नजर आते हैं। वे अपनी रचनाओं में चाहे जितना भी लोकभाषा से अलग रहे हों लेकिन जब उन्हीं रचनाओं का सूक्ष्म अध्ययन करते हैं तो स्पष्ट होता है कि अज्ञेय लोक-जीवन के कथाकार हैं।

इस पुस्तक का दूसरा खंड ‘आधुनिक हिन्दी उपन्यास और अज्ञेय’ दरअसल हिन्दी उपन्यास की यात्रा पर प्रकाश डालता है और यात्राकाल में अज्ञेय की ‘शेखरः एक जीवनी’ हिन्दी उपन्यास को एक नया आयाम देता है। श्रीलाल शुक्ल इस उपन्यासिक यात्रा गाथा को परिपुष्ट करने के लिए कई उपन्यासों का जिक्र करते हैं लेकिन इन सबमें अज्ञेय की ‘शेखरः एक जीवनी’ ने जो अमिट छाप छोड़ी है वो किसी अन्य ने नहीं। वस्तुतः यह पहला ऐसा उपन्यास है जिसमें शेखर (मुख्य पात्र) को इस रूप में प्रस्तुत किया गया है जो मृत्यु, प्रेम, ओज, देशभक्ति और दर्शन का प्रतिबिम्ब है। इतना ही नहीं यह पहला ऐसा उपन्यास है जिसमें तत्कालीन भारतीय समाज, संस्कृति, और भौगोलिक जीवन को भी कागजी ध्रातल पर लाया गया है और अज्ञेय इसमें पूरी तरह सफल भी होते हैं। दरअसल यह उस काल के सभी उपन्यासों से पृथक एक ऐसा उपन्यास है जो आधुनिक युग की ज्ञान- विधाओं और उपकरणों को एक संपुंजन के रूप में प्रस्तुत कर सका है। हालांकि ‘शेखरः एक जीवनी’ को लेकर कुछ आलोचकों में इस बात पर एकमत नहीं है कि शेखर के चरित्र को किस रूप में परिभाषित किया जाए। कुछ आलोचक उसे नियतिवादी मानते हैं तो कुछ विद्रोही। लेकिन उन्हें अवश्य ही समझ लेना चाहिए कि शेखर का कोई भी व्यक्तित्व अज्ञेय के दोनों खंडों में स्थापित नहीं हो सका है। बहरहाल सोच चाहे जो भी हो ‘शेखरः एक जीवनी’ का प्रकाशन हिन्दी उपन्यास की परंपरा को काफी पीछे छोड़ देता है। दरअसल यह उपन्यास विधा एक ऐसी फलक को प्राप्त करती है जो एक मुक्ति का एहसास करती है। वर्तमान में उपन्यास किसी विशेष घटनाओं का पुंज नहीं रहा, उसमें अब जीवन के समग्र अनुभव समेटे जा रहे हैं। उसमें मनुष्य के समानान्तर एक ऐसी दुनिया बसी है जो उसकी जटिल अनुभूतियों को इंगित करती है और अज्ञेय की ‘शेखरः एक जीवनी’ इस कसौटी पर खरी उतरती है। इस पुस्तक के अंतिम खंड 'आधुनिक हिन्दी व्यंग्यः अज्ञेय के संदर्भ के साथ’ वस्तुतः समकालीन हिन्दी के व्यंग्य लेखन का एक सर्वेक्षण है जो उस समय के व्यंग्य साहित्य का विश्लेषण करता है। लेकिन फिर भी श्रीलाल शुक्ल की नजर में व्यंग्य की कोई सुनिश्चित परिभाषा नहीं है। आजतक व्यंग्य को हास्य से जोड़ने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। दरअसल व्यंग्य के बारे में आम समझ ‘निंदात्मक’ और ‘आक्रामक’ लेखन के इर्द-गिर्द घूमता है जो शायद किसी लेखन शैली का नकारात्मक पक्ष भी माना जा सकता है लेकिन व्यंग्य विधा का एक सकारात्मक पक्ष यह भी है कि इस विधा में लेखक की निजी अवधरणा छिपी होती है जो किसी भी आदर्श सामाजिक व्यवस्था से जुड़ी होती है। इसके माध्यम से दूषित समाज या व्यवस्था के प्रति आक्रोश (निजी अवधरणा) व्यक्त किया जाता है। इस विधा की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह लेखन के सकारात्मक पक्ष को लोकस्वीकृति देता है और उसकी नकारात्मक-आक्रामकता को न्यायोचित बनाता है। दूसरे शब्दों में व्यंग्य, मूलतः जरूरत के अनुसार निन्दात्मक और आक्रामक लेखन के साहित्यिक उपयोग की परम्परा है। इस खंड की व्याख्या करते समय श्रीलाल शुक्ल ने व्यंग्य की यूरोपीय शैली का भी जिक्र किया है जो उस (यूरोपीय) भाषा में ‘सैटायर’ के समकक्ष प्रतीत होता है। जहां तक अज्ञेय के व्यंग्य शैली की बात है तो उनकी एक टिप्पणी ‘रमणीय गम्भीरता के हलके चापल्य की कौंध्’ काफी है उनकी व्यंग्य विशिष्टता को दर्शाने के लिए। बहरहाल जो भी हो व्यंग्य को दृष्टिगत रखते हुए यह निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए कि हिन्दी में व्यंग्य अन्य विधाओं का अनुषंगी नहीं रह गया है बल्कि वह इनसे परे नित स्वतंत्र विकास कर रहा है। कुल मिलाकर श्रीलाल शुक्ल ने ऐसी पुस्तक लिखी है जो हिन्दी की अलग-अलग विधाओं पर लिखी कई पुस्तकों की पुनरावृत्ति प्रस्तुत करता है। उन्होंने विभिन्न आयामों और स्वच्छंद समीक्षा के माध्यम से आधुनिक साहित्य को परखने की एक नई दृष्टि दी है। 

अज्ञेयः कुछ रंग, कुछ रागः श्रीलाल शुक्ल
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कीमतः 150रु.
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