Sunday 2 September 2012

साहित्यिक परम्परा का दर्शन


पुस्तक समीक्षा

 अजय पाण्डेय

श्रीलाल शुक्ल की ‘अज्ञेयः कुछ रंग, कुछ राग’ एक ऐसी आलोचनात्मक रचना है जो इस शैली की सभी परम्पराओं से पृथक एक नई रंग पेश करती है। दरअसल उन्होंने जितनी भी रचनाएं की हैं वो किसी शैली विशेष की व्याख्या या आलोचना न होकर उसे समझने और समझाने की कला है। पुस्तक के प्रथम खण्ड ‘कहानी आन्दोलन और अज्ञेय की कहानियां’ इस बात पर प्रकाश डालती हैं कि कोई भी कहानी किसी एक क्षण का चित्रा प्रस्तुत करती है और वह क्षण किसी भी प्रारूप में हो सकता है। लेकिन श्रीलाल शुक्ल ने उस क्षण की बात कही है जब अज्ञेय ने भाषा, नई पीढ़ी, सैधांतिक पक्षों की प्रबलता और बदलाव के कारण कहानी लेखन छोड़ चुके थे। उसके बाद कथाकारों का जो दौर शुरू हुआ, उन्होंने अपने को पूर्ववर्ती लेखकों से भावबोध्, शिल्पबोध्, प्रवाह, मौलिकता आदि कई बिन्दुओं पर अलग स्थापित किया। साहित्य के घूमते पहिए ने अज्ञेय को औचित्यहीन बना दिया था । हालांकि इसका वाजिब कारण यह भी था कि कुछ समवयस्क लेखक अज्ञेय सरीखे कथाकारों की शैली को खारिज कर रहे थे। लेकिन अज्ञेय ने उस उम्र से कहानियां लिखनी शुरू की थी जिस उम्र में उनके समकालीन कथाकार भाषा और शैली को समझ रहे थे। वैसे इसमें एक बात और खास है कि इस कालखंड में जहां प्रेमचंद की शैली एक अलग ही साहित्यिक छाप छोड़ रही थी वहीं अज्ञेय प्रेमचंद के प्रभाव से बाहर एक अलग परम्परा स्थापित कर रहे थे। अज्ञेय अपनी कहानियों में विभिन्न परिस्थितियों में अवस्थित व्यक्ति के मनोलोक के अन्वेषण की ओर हमेशा अग्रसर रहे। और यही विध उन्हें बाकियों से अलग करता है। अज्ञेय अपनी रचना में इतने सचेष्ट हैं कि उनकी रचनाएं साहित्यिक हस्तक्षेप प्रस्तुत करती हैं। हालांकि आगे चलकर श्रीलाल शुक्ल ने अज्ञेय के बारे में यह भी लिखा है कि उनकी अनेक ऐसी कहानियां हैं जिसमें अपरिपक्वता थी, लेकिन तब यह भी स्पष्ट है कि ऐसा आरोप लगभग सभी लेखकों पर लगता रहा है और अज्ञेय ने तो अधिकतम कहानियां अपने युवावस्था में लिखी हैं। जहां तक उनकी कहानियों के आकलन की बात है तो अज्ञेय अपनी सभी विधाओं में मुखर नजर आते हैं। वे अपनी रचनाओं में चाहे जितना भी लोकभाषा से अलग रहे हों लेकिन जब उन्हीं रचनाओं का सूक्ष्म अध्ययन करते हैं तो स्पष्ट होता है कि अज्ञेय लोक-जीवन के कथाकार हैं।

इस पुस्तक का दूसरा खंड ‘आधुनिक हिन्दी उपन्यास और अज्ञेय’ दरअसल हिन्दी उपन्यास की यात्रा पर प्रकाश डालता है और यात्राकाल में अज्ञेय की ‘शेखरः एक जीवनी’ हिन्दी उपन्यास को एक नया आयाम देता है। श्रीलाल शुक्ल इस उपन्यासिक यात्रा गाथा को परिपुष्ट करने के लिए कई उपन्यासों का जिक्र करते हैं लेकिन इन सबमें अज्ञेय की ‘शेखरः एक जीवनी’ ने जो अमिट छाप छोड़ी है वो किसी अन्य ने नहीं। वस्तुतः यह पहला ऐसा उपन्यास है जिसमें शेखर (मुख्य पात्र) को इस रूप में प्रस्तुत किया गया है जो मृत्यु, प्रेम, ओज, देशभक्ति और दर्शन का प्रतिबिम्ब है। इतना ही नहीं यह पहला ऐसा उपन्यास है जिसमें तत्कालीन भारतीय समाज, संस्कृति, और भौगोलिक जीवन को भी कागजी ध्रातल पर लाया गया है और अज्ञेय इसमें पूरी तरह सफल भी होते हैं। दरअसल यह उस काल के सभी उपन्यासों से पृथक एक ऐसा उपन्यास है जो आधुनिक युग की ज्ञान- विधाओं और उपकरणों को एक संपुंजन के रूप में प्रस्तुत कर सका है। हालांकि ‘शेखरः एक जीवनी’ को लेकर कुछ आलोचकों में इस बात पर एकमत नहीं है कि शेखर के चरित्र को किस रूप में परिभाषित किया जाए। कुछ आलोचक उसे नियतिवादी मानते हैं तो कुछ विद्रोही। लेकिन उन्हें अवश्य ही समझ लेना चाहिए कि शेखर का कोई भी व्यक्तित्व अज्ञेय के दोनों खंडों में स्थापित नहीं हो सका है। बहरहाल सोच चाहे जो भी हो ‘शेखरः एक जीवनी’ का प्रकाशन हिन्दी उपन्यास की परंपरा को काफी पीछे छोड़ देता है। दरअसल यह उपन्यास विधा एक ऐसी फलक को प्राप्त करती है जो एक मुक्ति का एहसास करती है। वर्तमान में उपन्यास किसी विशेष घटनाओं का पुंज नहीं रहा, उसमें अब जीवन के समग्र अनुभव समेटे जा रहे हैं। उसमें मनुष्य के समानान्तर एक ऐसी दुनिया बसी है जो उसकी जटिल अनुभूतियों को इंगित करती है और अज्ञेय की ‘शेखरः एक जीवनी’ इस कसौटी पर खरी उतरती है। इस पुस्तक के अंतिम खंड 'आधुनिक हिन्दी व्यंग्यः अज्ञेय के संदर्भ के साथ’ वस्तुतः समकालीन हिन्दी के व्यंग्य लेखन का एक सर्वेक्षण है जो उस समय के व्यंग्य साहित्य का विश्लेषण करता है। लेकिन फिर भी श्रीलाल शुक्ल की नजर में व्यंग्य की कोई सुनिश्चित परिभाषा नहीं है। आजतक व्यंग्य को हास्य से जोड़ने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। दरअसल व्यंग्य के बारे में आम समझ ‘निंदात्मक’ और ‘आक्रामक’ लेखन के इर्द-गिर्द घूमता है जो शायद किसी लेखन शैली का नकारात्मक पक्ष भी माना जा सकता है लेकिन व्यंग्य विधा का एक सकारात्मक पक्ष यह भी है कि इस विधा में लेखक की निजी अवधरणा छिपी होती है जो किसी भी आदर्श सामाजिक व्यवस्था से जुड़ी होती है। इसके माध्यम से दूषित समाज या व्यवस्था के प्रति आक्रोश (निजी अवधरणा) व्यक्त किया जाता है। इस विधा की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह लेखन के सकारात्मक पक्ष को लोकस्वीकृति देता है और उसकी नकारात्मक-आक्रामकता को न्यायोचित बनाता है। दूसरे शब्दों में व्यंग्य, मूलतः जरूरत के अनुसार निन्दात्मक और आक्रामक लेखन के साहित्यिक उपयोग की परम्परा है। इस खंड की व्याख्या करते समय श्रीलाल शुक्ल ने व्यंग्य की यूरोपीय शैली का भी जिक्र किया है जो उस (यूरोपीय) भाषा में ‘सैटायर’ के समकक्ष प्रतीत होता है। जहां तक अज्ञेय के व्यंग्य शैली की बात है तो उनकी एक टिप्पणी ‘रमणीय गम्भीरता के हलके चापल्य की कौंध्’ काफी है उनकी व्यंग्य विशिष्टता को दर्शाने के लिए। बहरहाल जो भी हो व्यंग्य को दृष्टिगत रखते हुए यह निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए कि हिन्दी में व्यंग्य अन्य विधाओं का अनुषंगी नहीं रह गया है बल्कि वह इनसे परे नित स्वतंत्र विकास कर रहा है। कुल मिलाकर श्रीलाल शुक्ल ने ऐसी पुस्तक लिखी है जो हिन्दी की अलग-अलग विधाओं पर लिखी कई पुस्तकों की पुनरावृत्ति प्रस्तुत करता है। उन्होंने विभिन्न आयामों और स्वच्छंद समीक्षा के माध्यम से आधुनिक साहित्य को परखने की एक नई दृष्टि दी है। 

अज्ञेयः कुछ रंग, कुछ रागः श्रीलाल शुक्ल
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कीमतः 150रु.
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