Friday 5 October 2012

अनुभूतियों को मथती एक परम्परा

Jindagi ke liye hi
पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय

रिपुसूदन श्रीवास्तव का यह काव्य संग्रह ‘जिन्दगी के लिए ही ’ दरअसल उनकी एक कविता ‘देरिदा और कविता’ के माध्यम से स्पष्ट होता है। वैसे यह पूरा संग्रह कविताओं के बदलते चरित्र को प्रस्तुत करता है क्योंकि वर्तमान काव्य लेखन न किसी बंधन  को समझता है और न ही किसी परम्परा को। वह तो एक नदी की तरह है जो रोज अपनी धारा बदलती है। वह एक रस्सी तोड़कर भागे हुए बैल की तरह है जो कभी इस खेत में मुंह लगाता है तो कभी उस खेत में। बहरहाल अपने प्रारंभिक परिचय में यह पुस्तक लेखक के अनुभवों का वो शाब्दिक विस्तार है जो अपने आप में सम्पूर्णता की पराकाष्ठा है। इस संग्रह की सभी कविताएं कल्पना और विचार के साथ धरातल  की वास्तविकता से ऐसा तारतम्य स्थापित करती है जो अपने लिए एक नया मार्ग स्वयं तलाश लेती है। ये सभी कविताएं एक ऐसे अनुभव का उदाहरण बनती हैं जहां मनुष्य, प्रकृति और समाज के बीच एक गहरी खाई है। यह साक्ष्य है उन परिस्थितियों का जहां मनुष्य अपनी माटी से दूर होकर एक बनावटी जिन्दगी के छोटे से डिब्बे में कैद हो गया है। कवि के मन में आज भी यादों की एक कसक है जो बरसों पूर्व ध्रीतराष्ट्र  रूपी समय के अलिंगन में  दम तोड़ चुके हैं। लेकिन मनुष्य ने भी अपनी ‘जिजीविषा’ को कम नहीं होने दिया। बिल्कुल उस दूब की तरह जो पत्थर के नीचे दबकर भी सतत संघर्ष करती है और अंततः मरती नहीं, बल्कि उस पत्थर पर ही दरार डाल देती है। रिपुसूदन श्रीवास्तव की अधिकतम  कविताएं उनकी आनुभूतिक अभिव्यक्ति की देन है जो कल्पना और विचारों के समागम से बाहर आया है। अधिकांश  कविताओं में कवि ने मनुष्य और प्रकृति के बीच के अर्न्तद्वन्द्व को ही भाष्य रूप दिया है। इस क्रम में ‘फूल’, ‘एक शहर’, ‘अविष्कार ’, ‘दहशत’ ऐसी कविताएं हैं जो मनुष्य द्वारा प्रकृति को उपेक्षित किए जाने की परम्परा से बाहर आती है। इसके बाद की जितनी भी कविताएं हैं वो मनुष्य और समाज के बदलते चरित्र की परिपाटी पर रची बसी है। दरअसल इन कविताओं में वैसी स्मृतियां छिपी हुई हैं जो वर्तमान परिदृश्य पर दस्तक देती है। इसमें शामिल तमाम ऐसी कविताएं जैसे ‘महुआ’, ‘संस्पर्श’, ‘जाड़े की सुबह’, ‘सुख’, ‘गांव की चिट्ठी’ हैं जो मनुष्य के उन क्षणों पर दृष्टिपात करती हैं जो समयचक्र में विस्मृति हो गए हैं लेकिन कवि ने उन्हें अपने सरल और सहज भाष्य भाव से पुनर्जीवित कर दिया है। इस संग्रह की अन्य कविताएं जैसे ‘भूख’, ‘मांओं के सपने’ ‘जाड़े की रात’ ये वो कविताएं हैं जो जीवन की उस यर्थाथता से पर्दा उठाते हैं जो उम्मीद और आकांक्षा लिए दम तोड़ देते हैं। इसमें वो दर्द छिपा है जहां आंखों में सपने तैरते तो हैं लेकिन कभी मूर्त रूप नहीं धर  पाते। इसके अलावा कुछ ऐसी कविताएं हैं जो सिर्फ और सिर्फ कविमन की अनुभूतियों का प्रमाण हैं। इनमें ‘आग’, ‘अगहन में’, ‘पुल’, ‘चाभी’, ‘रूई’, ‘सन्दर्भ’, आदि प्रमुख हैं। हालांकि इन कविताओं के आलोक में जीवन के वो सारे तथ्य समाहित हैं जिन्हें मनुष्य नेपथ्य में महसूस करता है। मनुष्य की इच्छाएं कभी मरती नहीं, ये मनुष्य जीवन का एक पहलु है और रिपुसूदन श्रीवास्तव ने इसकी व्याख्या भी बड़ी सहजता से की है जो ‘मछली की चाह’ शीर्षक से प्रस्तुत है। इस कविता के माध्यम से कवि बड़ी साफगोशी से स्पष्ट करते हैं कि इच्छाओं के न तो पैर होते हैं और न ही उसकी कोई सीमा। वो बस अंतहीन निर्वात में अपनी उत्कंठा लिए मनुष्य के जीवन में लिप्सा पैदा करती रहती है। हालांकि कवि ने अपनी कुछ कविताओं से हल्के-फुल्के विषय को भी भाव प्रदान किया है। जिसमें ‘नए वर्ष की कविता’, ‘आश्वस्ति’, ‘दूरियां’, ‘एक सुबह’, ‘तुम्हारे जाने के बाद’, ‘शीत लहर’, ‘कहां हो तुम’ प्रमुख हैं। वैसे तो इस संग्रह की सभी कविताएं कविताओं की परम्परा से बाहर होकर एक उन्मुक्त शैली स्थापित करती है ये सभी कविताएं इस कड़ी की प्रतिनिधि  कविता कहीं जा सकती है। लेकिन ‘जीवन’ कविता के माध्यम से कवि ने मानव जीवन की सच्ची तस्वीर पेश की है। यह कितना बड़ा सत्य है कि मनुष्य के लिए वर्तमान में सबसे बड़ा शाश्वत लक्ष्य रोटी ही रह गया है। यानि जीवन की पूरी परिभाषा रोटी के ही इर्द-गिर्द घूम रही है। फिर  मानव अपने सम्पूर्ण जीवन में एक पुतला बनकर रह जाता है, शायद इसी वजह से शेक्सपीयर ने जीवन को किसी मूर्ख की कही हुई बिना सिर-पैर की कहानी की संज्ञा दी है। इतना ही नहीं जीवन को लेकर मनुष्य के उहापोह की स्थिति ‘जिन्दगी के लिए’ में भी दिखाई देती है। तभी तो कवि ‘गणित का मनोविज्ञान’ और ‘जाड़े की धूप और बीअर’ के माध्यम से जीवन की गहराइयों में नहीं जाना चाहता। वो तो ‘एक शहर’ में जीना चाहता है उन लोगों की तरह जो बस जी रहे हैं बिना यह जाने कि क्यों जी रहे हैं। बहरहाल रिपुसूदन श्रीवास्तव अपने इस संग्रह के जरिये एक सम्पूर्ण आनुभूतिक सोच को परिलक्षित करते नजर आते हैं जिसमें मनुष्य, समाज, और प्रकृति के सारे तत्व विद्यमान हैं। जहां तक भाषा की बात है तो इन कविताओं में एक प्रवाह है जो पाठक वर्ग से एक सामान्य भाष्य रूप में तारतम्य बैठाता है। कवि के मौलिक अनुभव का भाष्य रूप होने के कारण गंभीर परिस्थितियां भी सरल और सहज भाव से प्रस्तुत होती हैं। 
जिन्दगी के लिए हीः रिपुसूदन श्रीवास्तव
राधकृष्ण प्रकाशन, प्रा. लि.
7/31, अंसारी रोड, दरियागंज
नई दिल्ली- 110 002 
कीमतः 150 रु.

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