Friday 21 September 2012

यहां कोई रावण नहीं रहता!

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय
व्यंग्य वह विधा  है जो व्यंग्यकार के भीतर की नकारात्मक प्रतिक्रिया है और यह समाज और जीवन मूल्यों के क्षरण से उत्पन्न होता है। व्यंग्य शैली का इतिहास इस बात का साक्षी है कि जितनी भी व्यंग्य रचनायें हुई हैं वो तत्कालीन समाज के पतन, राजनीति का अवमूल्यन, शिक्षा नीतियों का बाजारीकरण आदि क्षेत्रों के नैतिक पतन पर केन्द्रित है। दरअसल ये सभी पृष्ठभूमि व्यंयग्यकारों को विषय प्रदान करते हैं। पिछले कुछ सालों में राजनीति व्यंग्यकारों के सम्मुख एक ऐसा विषय बनकर सामने आया है जिसमें व्यंग्यकार काफी संभावनाएं तलाश रहे हैं। दरअसल राजनीति अपनी परिभाषा और परिधि को  इस कदर कुंठित और सीमित कर चुकी है कि इसे मात्र नीतिविहीन परम्परा का द्योतक माना जा सकता है। वर्तमान राजनीति एक ऐसा खेल बन चुका है जहां सिर्फ और सिर्फ स्वहित की बातें होती हैं। इसमें ‘आम आदमी’ के लिए कुछ भी नहीं होता। ‘आम आदमी’ तो उसके लिए एक मोहरा होता है जिसकी बलि लेकर वो सत्ता को या तो बचाए रखता है या पिफर सत्तासीन होना चाहता है। शंकर पुणतांबेकर द्वारा रचित ‘रावण तुम बाहर आओ!’ राजनीति के इसी पतन की पराकाष्ठा की पृष्ठभूमि पर आधारित  है। दरअसल यह व्यंग्यात्मक नाटक, लेखक के बेचैन मन की उपज है जिसे वह समकालीन राजनीतिक परिवेश में देखता है। वस्तुतः यह एक ऐसा कथानक प्रस्तुत करता है जो राजनीति के वर्तमान स्वरूप से एकाकार हो जाता है और उस पर मंथन के लिए उत्प्रेरित करता है। ‘रावण तुम बाहर आओ!’ राजनैतिक परिपाटी पर आधारित  नाटक है जहां सामाजिक और मानवीय मूल्यों का अवमूल्यन कदम-कदम पर होता है। नाटक के केन्द्र में राजा वीरसेन होता है जिसके इर्द-गिर्द सारी कहानी घूमती है। राजा उस भ्रष्टतंत्र का प्रतिनिधि है  जहां हर आदमी दो व्यक्तित्व को जीता है। अंदर से रावण होते हुए भी राम बनने की जुगत हर व्यक्ति का आंतरिक प्रवृत्ति होता है। राजा वीरसेन उन्हीं में से एक है। वस्तुतः राजा एक विलासी महत्वाकांक्षी शासक का प्रतीक है जिसकी सोच एक सीमित परिधि में ही घूमती है। वह अपने पास उन सभी वस्तुओं को बंधक  बनाकर रखना पसंद करता है जो उसके विलासिता का मानक होते हैं। इसी क्रम में उसने सोने का पलंग भी बनवाया, जिसे वह प्रदर्शनी के लिए सबके सामने रखता है। दरअसल यह नाटक दो गुटों में बंट गया है। एक वो जो राजा की नीतियों का विरोध् करते हैं। इसमें राजा का बेटा कुमार, उसका दोस्त विक्रम और राजा की पत्नी रत्ना शामिल हैं। जबकि दूसरे गुट में राजा के वे चाटुकार हैं जो सिर्फ राजा की हां में हां मिलाते हैं। ये किसी भी परिस्थिति में राजा के प्रति वफादार नहीं माने जा सकते। हालांकि राजा को इन चाटुकारों से काफी सहारा मिलता है इसीलिए वो उन्हें हमेशा अपनी दराज में बंद करके रखता है। लेकिर ये चाटुकार राजा को सदैव अँधेरे  में धकेलने  का उपक्रम करते रहते हैं। ये चाटुकार वर्तमान राजनीति के उन नेताओं के प्रतिबिम्ब हैं जो अपनी राजनीतिक महात्वाकांक्षा के लिए स्वार्थ, भ्रष्टाचार, विश्वासघात को पोषित करते हैं और फिर  इसी को सीढ़ी बनाकर सत्ता की कुर्सी पर आसीन हो जाते हैं। सम्प्रति ये वो लोग हैं जो अपने राजा के मरने पर शोक तो मनाते हैं लेकिन उसके शोकसभा को जश्न के रूप में मनाते हैं और कहते हैं कि ‘चलो, साला मर गया।’ राजा उस निरंकुशता का प्रतिरूप है जो देश के संविधान  को बंधक  बनाकर उसे पंगु बना दिया है। दरअसल उसने संविधान  को लेकर एक विरोधभाष पैदा कर दिया है जो आम आदमी को अधिकार  तो देता है साथ ही राजा, नेता या विशिष्ट वर्ग को यह भी अधिकार  देता है कि वह आम आदमी के अधिकार  का प्रतिकार कर सके। नाटक के अन्य पात्रों की जहां तक बात है तो वीरसेन का बेटा कुमार, उसका दोस्त विक्रम और युवा पत्रकार शीला राजा के भ्रष्टाचार और भ्रष्टतंत्र से आहत युवा पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं  जो राजा की विलासिता, नीतिविहीन महत्वाकांक्षा का विरोध् करते हैं। वीरसेन की पत्नी रत्ना भी उसके पक्ष में नहीं है वो अपने पति की अतिमहात्वाकांक्षा का पुरजोर विरोध् करती है। इस क्रम में राजा कभी-कभी अकेला पड़ जाता है परन्तु इस मौके पर उसके चाटुकार बड़े काम आते हैं जो राजा के एकाकीपन को अपनी चाटुकारिता से भर देते हैं। इस नाटक का अन्त आम नाटकों की तरह नायक की जीत के साथ नहीं होता। बल्कि इसमें जीत की परम्परा के विपरीत खलनायकों की जीत के साथ होता है। दरअसल यह जीत साले हाल राजनीति को परिलक्षित करता है कि आप चाहे जितना भी ईमानदार बन लें, सत्यनिष्ठ बन जाएं, भ्रष्टाचार के खिलाफ झंडा उठा लें राजनीति के इन खलनायकों के खिलाफ जीत हासिल नहीं कर सकते। इन खलनायकों की एक लम्बी परम्परा बन चुकी है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी सत्ता पर आरूढ़ होते हैं। उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं कि लोग उन्हें रावण कहते हैं या राम। अगर राम कहते हैं तो बेहतर और रावण कहते हैं तो उसके चाटुकार हैं न राम के रूप में प्रस्तुत करने के लिए। ‘रावण तुम बाहर आओ!’ एक ऐसी पृष्ठभूमि पर आधरित नाटक है जिसका आवरण काफी व्यापक है। लेखक ने राजनैतिक परम्परा की छोटी-छोटी बातों पर भी सूक्ष्मता से दृष्टिपात किया है। आमतौर पर पत्रकारों की खबरों के प्रति बाध्यता, छोटी-छोटी घटनाओं पर जांच आयोग बैठाने की मांग, राजनैतिक चाटुकारिता, वादे-इरादे के बीच राजनैतिक रोटी सेंकने की परम्परा इस नाटक को जीवंत बनाती है। जहां तक इस नाटक के शिल्प की बात है तो यह वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य पर बिल्कुल सटीक बैठता है। नेपथ्य से आने वाली ‘पिंजरे की औरत’ की आवाज इस बात का एहसास कराती है कि देश, समाज और मानव राजा के दराज में किस प्रकार बंधक  हैं। लेखक इसके माध्यम से एक शिल्पगत प्रयोग करता है। मंचन के दृष्टिकोण से यह नाटक संतुलित कहा जा सकता है जिसमें किसी भारी-भरकम साजो सामान की जरूरत नहीं पड़ती। आधुनिक  रंगकर्मियों के लिए इसमें काफी गुंजाईश  है जिसे आधुनिकता  को मिश्रित कर और ज्यादा प्रभावशाली बनाया जा सकता है। 
रावण तुम बाहर आओ!: शंकर पुणतांबेकर
वाणी प्रकाशन, 4695, 21ए
दरियागंज, नई दिल्ली-110 002
कीमतः 195रु. 
--
AMAR BHARTI (HINDI DAILY)
Pratap Bhawan, 5, Bahadurshah Zafar Marg,
New Delhi-110002
Tel.:011-23724460, 43083451  Fax:011-23724456

No comments:

Post a Comment