Saturday 25 August 2012

सभ्यता को संजोती यात्राएं


पुस्तक समीक्षा

अजय पाण्डेय

डॉ कुसुम खेमानी की ‘कहानियां सुनाती यात्राएं’ एक ऐसा यात्रा संस्मरण हैं जो न सिर्फ भौगोलिक दर्शन हैं बल्कि अनुभूति और रोमांच का प्रसरण भी हैं। दरअसल इस पुस्तक से यात्रा-साहित्य को एक नया आयाम मिलता है जिसके माध्यम से इस साहित्य और शैली को परिपुष्ट किया जा सके। ‘कहानियां सुनाती यात्राएं’ की भाषा उतनी ही जीवंत और रोमांचक हैं जितनी यात्रा। इसके जरिए डॉ खेमानी ने विश्व संस्कृति की जो अप्रतिम व्याख्या की है वो अनन्य है लेकिन इसके आलोक में भारतीयता को जिस तरह गौरवान्वित किया गया है वो मात्रा यात्रा-साहित्य का विषय नहीं है। इस पूरे यात्रा संस्मरण को परम्परागत शैली से भिन्न इस अंदाज में प्रस्तुत किया गया है कि सभी प्रस्तुतियां (यात्रा संस्मरण) एकाकार हो गईं हैं। तभी तो डरबन से शुरू होने वाली यात्रा वेनिस (इटली)  तक एक ही फलक पर दृष्टिगोचर होती है लेकिन आनुभूतिक रूप से। डॉ खेमानी ने इस यात्रा संस्मरण से डरबन, रोम, बर्लिन, स्विट्जरलैण्ड, प्राग, मॉस्को, मिस्त्र, भूटान, अलास्का, हरिद्वार, कश्मीर, उज्जयिनी, कोलकाता, शिलांग, हैदराबाद तथा शांतिनिकेतन को एक सूत्र में पिरो दिया है। इन जगहों में इतनी तारतम्यता है कि डरबन विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष सीताराम रामभजन की अनुभूति सभी देशों और यात्राओं में होती है। दरअसल कुसुम खेमानी ने यात्रा के लिए जितने भी कदम बढ़ाए हैं वो सभ्यता और संस्कृति को उतनी बार परितृप्त करती है। इस यात्रा संस्मरण में जो बात सबसे ज्यादा अहम है वो यह कि यात्रा चाहे जिस देश की हो, वो यह दर्शाती है कि किसी भी देश की सभ्यता, ऐतिहासिकता, आदि को यात्रा के माध्यम से ही संजोया जा सकता है और डॉ खेमानी का यह यात्रा संस्मरण इसकी बखूबी व्याख्या भी करता है। उन्होंने अपनी सभी यात्राओं में वहां की सभ्यता का सूक्ष्म अध्ययन किया है तथा उसे एक आनुभूतिक भाषा का प्रारूप देकर उसकी गरिमा को और ज्यादा अंलकृत कर दिया है। इन यात्राओं में विशेषकर विदेश की यात्राओं में यह दृष्टिगोचर होता है कि डॉ खेमानी जहां भी जाती हैं उस देश की संस्कृति के साथ अपनी संस्कृति को एकमेक करना नहीं बिसरती। और यही वजह है कि वैदेशिक सभ्यताओं में भी एक अपनापन झलकता है। नहीं तो डरबन में ‘भारत हमारा देश है,’ ‘भारत भूमि स्वर्ग से महान है,’ ‘जन्मभूमि भारत मां की जय,’ तथा ‘हमें भारत पर गर्व है’ के गगनभेदी नारे नहीं लगाए जाते। लेकिन रोम के ऐश्वर्य को निहारते हुए उनके मानसपटल पर जरूर भारत की रवानगी, प्रवणता, प्रवाह और सौन्दर्य की अद्वितीयता दस्तक देती है जो साधारण  सी यक्षी, एलोरा की गुफा, कोणार्क-खजुराहो, जैसलमेर के ‘पटुओं की हवेली’, रणकपुर और दिलवाड़ा के मंदिरों में विद्यमान है। लेकिन इस बात का क्षोभ भी है कि कला के सभी आयाम मौजूद होने के बाद भी हमें दिखाने नहीं आता। परन्तु देश के अंदर की कुछ यात्राएं मसलन हरिद्वार, कश्मीर, हैदराबाद, उज्जयिनी, कोलकाता, गोवा जरूर राहत देती है और विश्वसभ्यता के साथ कदमताल करती है। जिसमें हैदराबाद, और उज्जयिनी की यात्रा ऐतिहासिकता, गोवा की यात्रा प्राकृतिक और आधुनिकता  तथा हरिद्वार और शांतिनिकेतन की यात्रा तो मोक्ष का द्वार ही खोल देती हैं और एक अद्भुत रोमांच पल्लवित करते हैं। लेकिन बर्लिन (जर्मनी)  जिसे डॉ खेमानी की नजरों से देखकर एक संतोष व्याप्त होता है कि जिसे हिटलर  ने हिंसा का पर्याय बना दिया था आज उसी देश का एक शहर विश्व को अहिंसा का पाठ पढ़ा रहा है और इसमें वो अकेला नहीं है बल्कि स्विट्जरलैण्ड और भूटान भी उसका भरपूर साथ दे रहे हैं। भूटान जहां सन्नाटा एक दैवीय धुन  सुनाता है वहीं स्विट्जरलैण्ड की धवल  पृष्ठभूमि पर नीली आभा के बीच शीतल कांति विद्यमान है जो इस बात की परिचायक है कि स्वर्ग जाने का मार्ग यहीं से गुजरता है। परन्तु एक भारतीय होने के नाते जो अपनापन मॉरिशस में मिलता है वो अन्यत्र नहीं। मॉरिशस ऐसा देश है जिसमें सम्पूर्ण भारतीयता तिरोहित है। वहां जाकर ही डॉ खेमानी जान पाती हैं कि पश्चिमी देशों में भी एक देश ऐसा है जो कोहिनूर की तरह चमक बिखेर रहा है। उन्हें मॉरिशस को ‘छोटा भारत’ कहते हुए सुनना एक सुखद अनुभूति का एहसास कराता है। लेकिन वहां से निकलकर जब ‘लोहे के पर्दे से झांकता मॉस्को’ पर दृष्टिपात करते हैं तो बड़ी विकलता होती है। कारण कि न सिर्फ मॉस्को बल्कि पूरे रूस को जिसे लेनिन ने अप्रतिम योगदान से दुर्भेद्य बना दिया था और बाद में ट्रॉटस्की, खुश्चेव, ब्रेजनेव तथा गोर्वाच्योव ने भी बारी-बारी से मॉस्को को अंलकृत किया था वो आज सेंट पीटर्सवर्ग के आगे नतमस्तक हो गया है। उसके अस्तित्व पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं कि अगर इस शहर को टॉलस्टॉय और गांधीजी  मिलकर बनाए होते तो इसका प्रारूप कैसा होता। कम से कम लेखक मॉस्को यात्रा संस्मरण के लिए ‘लोहे के पर्दे से झांकता मॉस्को’ शीर्षक का इस्तेमाल तो नहीं करतीं। परन्तु वहां से निकलकर जब अंकोरवाट में भारतीय मंदिरों का ठाठ देखते हैं तो निःसंकोच भारतीय परम्परा, शैली, नक्काशी की प्रतिभूति दिखने लगती है। यात्रा के क्रम में उज्जयिनी के ‘मृत्यु और प्रेम के जीवन-उत्सव’ से जब बाहर निकलते हैं तो मिस्त्र की वो पिरामिडें मृत्यु का नहीं बल्कि अमरता के ऐश्वर्य को परिभाषित करती हैं। वहां बने अजायबघर मृत्यु से साक्षात्कार कराते हुए जीवन की नई राह दिखा रहे हैं। कुछ ऐसे ही रास्ते अलास्का के शुभ्र धवल  खंड दिखा रहे हैं। अपनी यात्रा के आखिरी पड़ाव में जब डॉ कुसुम खेमानी त्रिनिडाड की यात्रा पर जाती हैं तो सहज ही भारतीय माटी की खुशबू आने लगती है तथा ये जानकर मन बड़ा हर्षित होता है कि त्रिनिडाड के चार प्रमुख विशेषताओं में भारतीय मूल के वी एस नॉयपाल का नाम भी शामिल है। इन सभी यात्राओं में अगर सबसे ज्यादा कोई देश या शहर छाप छोड़ता है तो वो रोम (इटली) है, क्योंकि डॉ खेमानी यहां के हवाईअड्डे पर जिस मुसीबत में फंसती हैं और यहां के अधिकारी  जो दरियादिली दिखाते हैं वो शायद ही किसी अन्य देश में दिखता है। रोम की यात्रा उन्हें एक नई अनुभूति प्रदान करता है। जहां तक इस शहर की बात है तो यहां के पुरातन चर्च, संग्रहालय, स्मारक खुद अपनी सौन्दर्य को बयां करते हैं। इटली ऐसी कलाकृतियों से भरा है मानो किसी चित्रकार ने एक बड़े कैनवास पर एक चित्ताकर्षक चित्र बना दिया हो। इस प्रकार ‘कहानियां सुनानी यात्राएं’ एक-दो नहीं लगभग सभी जगहों को शब्दों के माध्यम से एक भौगोलिक कैनवास पर उकेरी गई चित्रकथा जो यह बताती है कि घुमक्कड़ी जैसा कुछ नहीं। 

कहानियां सुनाती यात्राएं:  डॉ कुसुम खेमानी
राधाकृष्ण  प्रकाशन,
7/31, अंसारी रोड,
दरियागंज, 
नई दिल्ली-110 002
मूल्यः 400रु.
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Saturday 18 August 2012

समय के साथ-साथ


पुस्तक समीक्षा

अजय पाण्डेय

शुरूआत गुलजार की ही पंक्ति से ‘किताबों से कभी गुजरो तो यूं किर्दार मिलते हैं! गए वक्तों की ड्योढ़ी में खड़े कुछ यार मिलते हैं!! दरअसल ‘ड्योढ़ी’ संस्मरण युक्त कहानी बहुआयामी प्रतिभा के किवदंती और मूर्धन्य, शायर, फिल्मकार , लेखक और गीतकार  गुलजार की रचना है जिसमें गुलजार का व्यक्तित्व आइने की तरह स्पष्ट झलकता है। ‘ड्योढ़ी’ एक संग्रह है जिसमें कुल आठ अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय में तीन-तीन परन्तु अध्याय दो में चार कहानियां हैं। ‘ड्योढ़ी’ की भाषा इतनी जीवंत है कि गुलजार कहानी के सभी पात्रों से संवाद करते नजर आते हैं। अर्थात् इसमें कथा तत्व भरपूर है। गुलजार ने कहानी में तारतम्य बनाए रखने के लिए एक अध्याय में एक सी पृष्ठभूमि पर रची-बसी कहानियों को इस कड़ी में रखा है कि एक कहानी बड़ी सहजता से दूसरी में प्रवेश कर जाती है। भाषा और अनुभव के बेजोड़ संगम ने कहानियों पर अप्रतिम छाप छोड़ा है। शुरूआती अध्याय के तीनों संस्मरण में भावावेग और संवेदना इस तरह समाहित है कि पाठक स्वयं उसका अंश बन जाता है। जादू (जावेद अख्तर) और साहिर लुधियानवी  के रिश्ते एक ऐसी परिपाटी पर आधरित है जहां भावनाएं इतनी प्रखर हो जाती हैं कि खुद से साक्षात्कार करने लगती हैं। फिर  निर्वात में एक प्रश्न खड़ा हो जाता है कि इस रिश्ते का स्वरूप क्या होगा? इसी रिश्ते के पायदान से ऐसी यादें प्रस्फुटित होती है जिससे कुलदीप नैयर की यादें जीवंत हो उठती है। ये यादें उनकी माताजी और उनके पीर साहब से इस कदर जुड़ी हैं कि वे ताउम्र उससे जुड़े रहते हैं। लेकिन कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं जो समय की मधुर  शिला पर एक हक से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। भूषण बनमाली की भी यही स्थिति है जो अपनी मित्रामंडली में जॉन स्टुअर्ट मिल के व्यक्तिवादी सिदधांत को परिपुष्ट करते हैं। कहानी की श्रृंखला जब आगे बढ़ती है तो मुम्बई की सच्ची तस्वीर जीवंत हो उठती है। वहां की मलिन बस्तियां और उसमें रहने वाले लोग और उनके बीच रहने वाला दामू, मारूति या फिर  भीखू उस चरित्र की अप्रतिम चित्रण करते हैं जहां आज भी लोग शराब के नशे में अपना सब कुछ दाव पर लगा देते हैं। हालांकि बात सिर्फ इतनी सी नहीं है। बस्तियों में रहने वाले लोगों का जो चरित्र-चित्रण किया गया है वो पाठक के सामने कभी धुंधली  न पड़ने वाली तस्वीर छोड़ जाते हैं। रिश्तों के लिए जद्दोजहद समाज की प्रकृति के रूप में दृष्टिगोचर होती है। गुलजार के शब्दों के कशीदे और इन्द्रजाल में रिश्ते इतनी गहराई तक जुडें हैं कि इसका प्रभाव और असर सरहद पार भी देखा जा सकता है। उन्हें आज भी देश के बंटवारे की आह लेकर जीवन के बोझ को ढ़ोते हुए देखा जा सकता है। चाहे वो फत्तू मासी, सीमा पर तैनात बुझारत सिंह हो या फिर  न्यूयार्क में रेस्तरां चलाने वाला रिटायर्ड कर्नल शाहीन। ये सभी लोग एक ही मनोदशा की प्रतिमूर्ति हैं। विभाजित हुए क्षेत्रों के बारे में जानने की कौतुहलता एक ऐसी इंसानी फितरत  को दर्शाती है जो उम्रभर इंसान का पीछा साए की तरह करती है। लेकिन गुलजार ने बड़ी साफगोशी से सीमा पर होने वाली रक्तरंजिश को देश की सीमा से ही जोड़ दिया है। तभी तो बंगाल में हुए दंगों का वीभत्स चेहरा देखने को मिलता है। दंगे मे इंसान का वो कुरूप चेहरा सामने आया है जिसमें कई लोगों ने मिलकर एक लड़की के उपर अपना ‘पुरुषार्थ' उतार दिया है। सड़क पर उसकी लाश ऐसे पड़ी है जैसे थाली में कटी हिल्सा मछली। इस पूरे घटना में आम आदमी कभी अपने अस्तित्व को जान नहीं पाता है। अगर वो जान पाता तो कश्मीर के लोग हिन्दुस्तान को दूसरा देश क्यों मानते? हमारी हुकूमतें वहां से आने वाले लोगों को बेधती  नजर से क्यों देखतीं? दरअसल यही वो सवाल है जिसके जवाब मिलते-मिलते कई पीढ़ियां गुजर गईं। गुलजार ने ‘स्वयंवर’ शीर्षक से एक ऐसे प्रधानमंत्री की मौत का मंजर पेश किया है जिनकी यादें आज भी हिन्दुस्तानियों के जेहन में घूम रही हैं। वो एक ऐसा स्वयंवर था जिसमें दोनों अमर हो गए। यह घटना एक बड़ा और अबूझ सवाल छोड़ जाता है कि आखिर वे कौन लोग थे जिन्होंने यह किया। लेकिन अगले ही पल यह जवाब मिल जाता है कि ये वो लोग थे जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में हुए विकास के असमानता के गर्भ से पैदा हुए और समाज के जमींदारों और सामंतों के दलनों के साये में पले-बढ़े। नहीं तो गोरख पांडे जैसे लोग व्यवस्था के खिलाफ आवाज क्यों उठाते? उन्हें नक्सलवादी बनने की जरूरत ही नहीं पड़ती। गुलजार ने ‘अठन्नियां’ शीर्षक से आम आदमी की जिस भावनाओं को जोड़ा है वो अपने आप में मातबरी से लबरेज है। दरअसल यह एक आम आदमी की सच्ची तस्वीर है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था और इस व्यवस्था की चूक से पैदा हुई अवैध् लोकतांत्रिक परिणति के बीच कैसे पिसता है इसका माकूल दृष्टांत है। लेकिन अगले पल जीवन और मौत से संघर्ष के बीच की लम्बी लेकिन मार्मिक अवस्था को गुलजार ने बखूबी शब्दों के जाल में पिरोया है। गुलजार के कहानी के पात्र मौत के रास्ते में होने वाली पीड़ा से अंजान हैं और उन्हें मौत  कहानी की किताबों के सुपरमैन जैसी दिखने लगती है। लेकिन मौत से जीतने की संघर्षगाथा सिर्फ मानवीय फितरत  में शुमार नहीं होती, बल्कि पशु-पक्षियों में भी होती है और एक उन्मुक्त आकांक्षा उनके दिल में भी पनपती है। लेकिन समय के साथ-साथ मनुष्य की स्थिति बिल्कुल अमजद की नारंगी जैसी हो जाती है जो समय के साथ पिलपिले और दागदार हो जाते हैं। मौत हमेशा वक्त से जीतती आ रही है जैसा कि भूकंप से जमींदोज हुई इमारतों के बोझ तले बुखारी तिल-तिल कर मौत की आगोश में जाता है परन्तु उसकी जिजिविषा उसे अठ्ठारह दिन मौत से लड़ने की ताकत देता है और अंततः वह मौत को पटखनी भी दे देता है। लेकिन हर बार ऐसा नहीं होता क्योंकि जिन्दगी को कभी ‘शॉर्टकट’ से नहीं जिया जा सकता। गुलजार ये बता देना चाहते हैं कि जीवन के उस पार एक गहरी खोह है जहां से पार नहीं पाया जा सकता। अंत में गुलजार ने सांझ के उस ढ़लते सूरज को याद किया है जो समय और समाज दोनों से ‘एडजस्टमेंट’ करते रहते हैं। लाला जी को जहां अपनी बीबी के बुढ़ापे में बाल कटवाने से इतनी कुफ्र होती है कि वह घर तक त्याग देते हैं और संन्यासी का रूप धरण कर उम्र भर न बाल कटवाते हैं और न ही दाढ़ी। वहीं उम्र के आखिरी पायदान पर खड़े दादा को अपने पोते से इस बात के लिए एडजस्टमेंट करनी पड़ती है क्योंकि उसने अपने पोते को डांटते हुए तीन-चार थप्पड़ लगा दिया है। इस उम्र में एडजस्टमेंट करना कितना मुश्किल है वो ‘एडजस्टमेंट’ खुद बयां कर देता है। 
कुल मिलाकर गुलजार की ‘ड्योढ़ी’ सम्पूर्ण वायवीय संसार को समेटे एक भावपरक शैली में प्रस्तुत की गई है जिसमें मानवीय संवेदना, रिश्तों का ताना-बाना, समाज का वीभत्स चेहरा, बुढ़ापे का दर्द वो सबकुछ है जो समय के साथ-साथ अपने आप से संवाद करता है। 
                                                                                                                                                                अजय पाण्डेय
                                                                                                                                                                ड्योढ़ीः गुलजार 
                                                                                                                                वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज,
                                                                                                                                                                नई दिल्ली-110002
                                                                                                                                                                        मूल्यः 250रु.

Saturday 11 August 2012

कहना तो आता है... [ साहित्य दर्पण ]

पुस्तक समीक्षा

अजय पाण्डेय
समाज सजग कवि के रूप मे चर्चित पवन करण के काव्य संकलन ‘कहना नहीं आता’ की कविताएं विचारशीलता, वैविध्य, संवेदनशीलता, संवाद धर्मिता , समरसता तथा समाजिक सरोकार की वजह से अपनी ओर आकर्षित  करती है। इस संकलन की सभी कविताएं आधुनिक  समाज, समयचक्र और कालान्तर में  होने वाली अनुभूतियों  की परिणति हैं जो यह दर्शाती है कि कविता तो कहीं से भी निकाली जा सकती है। दरअसल इसकी (संग्रह)  सभी कविताएं समकालीन समाज में अपने होने का एहसास कराती है। वैसे पिछले कई सालों में यह देखा गया है कि हिन्दी काव्य एक संक्रमण के दौर से गुजरा है जो कई परिवर्तनों का साक्षी रहा है। इन परिस्थितियों में जो नई कवि पीढ़ी हुई है उसके सामने आत्माभिव्यक्ति सबसे बड़ी चुनौती साबित हुई और इस चुनौती में पवन करण खड़े दिखाई देते हैं। दरअसल पवन करण अपनी आत्माभिव्यक्ति के लिए जिस समाजिकता और प्रायोगिक धरा को अपनाते हैं उससे इनकी कविताएं संवदेनशील और ईमानदार बन जाती हैं। उसमें एक सामाजिक निर्दोषता आ जाती है। जहां तक इस संकलन में शामिल कविताओं की शिल्प और संरचना की बात है तो ये कविताएं समाज संस्कृति, आधुनिकता  की परिपाटी, मानवीय आयामों समेत सोच और कल्पना के वैविध्य संसार को समटे हुए है। इनमें से ‘मोबाइल’ शीर्षक से पांच, ‘गरीब देश’ शीर्षक से दो, ‘मिलना’ शीर्षक से पांच, ‘अपने दोस्तों के बीच ईश्वर’ शीर्षक से पांच, और ‘मैं स्त्री  होना चाहता हूं  शीर्षक से दो कविताएं हैं। इसके अलावा इनमें से ‘इन्हें चाव से पढ़ें’ एक ऐसी कविता है जो शौचालयी भाषा को पोषित करती है। ‘सूर्या सावित्री , ‘आरक्षण गली अति सांकरी’, ‘चकबारा’, ‘सवारा’, ‘जयश्री राम’ ये कुछ ऐसी कविताएं हैं जो रूढ़िवादी समाज की सीमित सोच पर कुठाराघात है। हां बीच-बीच में ‘झूठ’, ‘रक्त’, ‘कल’, ‘कहना’, ‘माचिस’ आदि कई कविताएं जो पृथक लेकिन सार्थक संदेश छोड़ती हैं। कवि ने इस काव्य संग्रह में सामाजिक परिवेश और आम जीवन में होने वाली घटनाओं के इतने दृष्टिकोणों का समग्र रूप से उठाया है कि शायद ही उसका अंशमात्रा पहलू छूटा हो। इन कविताओं की सबसे अच्छी बात यह है कि यह मनुष्य, समाज, मानवीय कार्यशैली की सकारात्मक और नकरात्मक पक्ष दोनों पर प्रकाश डालती है। कवि ने कुछ कविताओं में समाज के कुरूप चेहरे पर से पर्दा उठाने का प्रयास भी किया है। ‘बल्ब’, ‘उस फोटोग्राफर का नाम पता करो’ से समाज की एक यथार्थता सामने आती है। पवन करण की कविताएं ‘सवारा’ और ‘भाई’ के माध्यम से रूढ़िवादी समाज और उसकी कौटिल्य परम्परा पर चोट करती नजर आती है। हां इसमें कवि ने ‘फोकटिया’ के माध्यम से दूर गांव में रहने वाले मुफ्त  की कमाई पर गुजर-बसर करने वाले लोगों पर प्रकाश डाला है। पवन करण की यह काव्य संग्रह ‘कहना नहीं आता’ एक समाज-सजग होने के साथ ही सामाजिक रूप से संवेदनशील और मानस पटल पर एक व्याकुलता की दुनिया है। इसमें लगभग सभी कविताएं कवि और आम जनमानस के जीवन में होने वाली दैनंदिनी घटनाओं का काव्यंकित रूप है। इसमें संवेदना, अनुभूति, और विचार की पराकाष्ठा है जो किसी भी शैली से पृथक एक अलग ही काव्यत्व-निर्वाह को प्राप्त करती है। अधिकतर कविताओं की संवेदनात्मक आख्यान उसे प्राकृतिक भावावेग से लिप्त कर काव्यात्मक-निर्वाह से ऐसे परिपूर्ण करती है कि लम्बी कविताएं भी एक प्रवाह प्राप्त करती है। जहां तक समकालीन कविताओं से तुलना की बात है तो जब उन कविताओं को परिदृश्य में रखकर पवन करण की कविताओं का अध्ययन करते हैं तो कुछ वैशिष्ट्य विचार जरूर दृष्टिगोचर होते हैं। हालांकि कवि ने इसे सामाजिकता से ओत-प्रोत करके बाजारोन्मुख शिल्प देने का प्रयास किया है। लेकिन कुछ कविताओं में अबूझ शिल्प भी नजर आते हैं जो सामाजिक कविता के दृष्टिकोण से निराशा पैदा करते हैं। इसके पीछे कारण है कि इस शैली में यह देखा जाता है कि आम जनमानस का इनसे कोई सरोकार नहीं होता। अगर इसे बाजारोन्मुखी भाव से परे देखें तो पवन करण की कविताएं बौद्धिकता  और संवेदनशीलता के साथ-साथ सामाजिक सजगता का माहौल तैयार करती है। कुछ कविताएं ऐसी भी हैं जो अपनी विचाराधरात्मक आयामों की वजह से भारतीय समाज की रूढ़िवादिता को निर्मिमेष भाव से प्रकट करती है। लेकिन इसी बीच कुछ कविताएं आधुनिकता  का आवरण ओढ़े कवि की समझदारी और प्रयोगिक्धार्मिता  को एक व्यापक आयाम दे देते हैं। इन कविताओं से पाठकवर्ग को एक संवाद करने का माध्यम मिलता है और एक ऐसी आकांक्षा पनपती है जिससे उसकी चाह ऐसे मोड़ पर पहुंच जाती है जहां से वह अपने आप से साक्षात्कार कर सके। उनकी कविताएं कलात्मक और रचनात्मक दृष्टिकोण से बिल्कुल भावशून्य हैं और वैसे देखा जाए तो कवि ने इसकी लेशमात्र कोशिश भी नहीं की है। लेकिन यह कहना सत्य है कि माध्यम के प्राकृतिक और अकृत्रिम रचाव ने ही कविता को संवेदना की पराकाष्ठा पर स्थापित किया है। इसमें एक बात और जो संग्रह की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है वो यह कि समाज, सभ्यता-संस्कृति, यात्रा, आधुनिक  परिवेश आदि का हर विक्षोभ कविता का शक्ल धर  लेता है।
 
कहना नहीं आताः पवन करण
वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली
मूल्यः 150रु. 

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Friday 10 August 2012

बहुजन आत्मा की खोज में एक कदम [ साहित्य दर्पण ]

फारवर्ड प्रेस (पत्रिका)
अजय पाण्डेय
आज बहुजन साहित्य और पत्रिका पढ़ते हुए यह जिज्ञासा प्रबल हो रही है कि ऐसे साहित्य की जरूरत क्यों पड़ी क्योंकि साहित्य का तो कोई दायरा होता ही नहीं है, उसमें बहुजन, ब्राह्मणवाद या द्विजता जैसी कोई बात नहीं होती है। लेकिन पत्रिका को पढ़ने के बाद जिज्ञासा पर विराम लगा। और स्पष्ट हुआ कि जिस समाज में ब्राह्मणवादी और द्विज साहित्य की मौजूदगी को ज्यादा तवज्जो दिया गया है उसमें इस बहुजन साहित्य की आवश्यकता है।  दरअसल बहुजन साहित्य को लिखने का यह मंतव्य नहीं है कि पूरे हिन्दी साहित्य को इस नजरिये से देखा जाए।  बल्कि यह इस बात को इंगित करता है कि समाज समस्त साहित्य के मूल्यों को अंगीकार करे। हालांकि पत्रिका के संपादकीय लेख में जिस कहानी का जिक्र कर समाज के ताने-बाने को दर्शाने की कोशिश की गई है उससे तो स्पष्ट है कि समाज में जो दलित, आदिवासी या पिफर मुसलमानों के नाम पर जो भ्रांतियां पफैली हुई हैं वो दरअसल सामाजिक असंतुलन का परिणाम है। इसके अलावा जिस विषय वस्तु पर ज्यादा जोर दिया गया है वो है ‘बहुजन साहित्य’। इस खंड में बहुजन साहित्य समय की मांग को लेकर इतना विस्तृत हो गया है कि इसमें ओबीसी साहित्य धरा, दलित साहित्य धरा और आदिवासी साहित्य भी समावेशित हो गया है। इसमें इस बात को प्रखरता से उभारा गया है कि बहुजन साहित्य अस्मिता और भूख से लड़ने का हथियार मुहैया कराती है और स्पष्ट करती है कि जो लड़ाई भूख और अस्मिता के लिए लड़ी जाती है वही अगर साहित्य के लिए की जाए तो उसे ‘बहुजन साहित्य’ कहते हैं। इसके अलावा जहां तक बहुजन आलोचना की बात है तो इतना तो स्पष्ट है कि किसी साहित्य की आलोचना उसकी सम्यक विवेचन, निरीक्षण तथा सूक्ष्म अध्ययन करती है। इसमें न सिर्फ कृति के बाहरी आवरण का परीक्षण होता है बल्कि साहित्यकार की भी अंतःचेतना की परख होती है। इसके अलावा आलोचना की मार्क्सवादी शैली का अनुपयुक्त करार देना भी इस साहित्य की सार्थकता पर जोर देता है क्योंकि भारत में वर्ग-संघर्ष से ज्यादा जाति-संघर्ष देखा जाता है ऐसे में यह उचित है कि मार्क्सवादी आलोचना भारत में बेईमानी है। पत्रिका के अगले खंड में उन साहित्यकारों और लेखकों का जिक्र है जो समय और समाज के जातीय पदसोपान की अंध्ेरी स्याह में गुमनाम हो गए। पत्रिका ऐसे लोगों को पुनर्जीवित करती है जिन्हें सवर्ण साहित्य और साहित्यकारों ने नेपथ्य में भेज दिया था। चाहे वो ज्योतिबा पुफले, ताराबाई शिंदे, अनूपलाल मंडल या पिफर इन जैसे कितने ही साहित्यकार जिन्हें सवर्ण साहित्य ने कभी अंगीकार नहीं किया और इनकी रचनाओं को पल्लवित तक नहीं होने दिया। आज ज्योतिबा पफुले को आधुनिक  बहुजन साहित्य का अग्रदूत माना जाता है, अनूपलाल मंडल की साहित्य उस काल की अमूल्य धरोहर  हो सकती थी जब हमारा साहित्य गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा आजादी के ख्वाब बुन रहा था और क्रांतिकारी लेखिका ताराबाई शिंदे उन्नीसवीं सदी उन साहित्यकारों में से एक थी जिन्होंने सामाजिक जटिलताओं पर प्रहार किया था। बावजूद इसके इन जैसे साहित्यकारों ने ख्याति तो दूर समाज में पहचान तक नहीं बना सके।  ‘बहुजन साहित्य की अवधरणा और आदिवासी’ खंड में दलित साहित्य के साथ-साथ आदिवासी साहित्य को स्पष्ट करना भी पत्रिका की विशेषता की एक कड़ी है। दरअसल इन दोनों साहित्यों में मामूली पफर्क है। आदिवासी साहित्य का अध्ययन जहां जंगलों और जमीनों के संघर्ष के साथ होता है वहीं दलित साहित्य के अध्ययन के केन्द्र में दलित-मुक्ति और जातीय संघर्ष है। इस खंड में आदिवासियों की सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्राता के प्रश्न का उत्तर बहुजन साहित्य में ढूंढना  भी इस साहित्य की यथार्थता पर प्रकाश डालता है। इन सब के बीच पत्रिका में जो पथप्रदर्शक और सच्चाई से रूबरू कराती कवितायें हैं वो वास्तव में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। कुछ कविताओं में दलित आत्मा की खोज भी सामाजिक वैमनस्य का परिणाम है। 

AMAR BHARTI (HINDI DAILY)
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Tuesday 7 August 2012

संसद की कार्यवाही में आज हिस्सा लेंगे सचिन और रेखा

मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर और फिल्म अभिनेत्री रेखा बुधवार से शुरू हो रहे संसद के मानसून सत्र में हिस्सा लेंगे। सचिन और रेखा राज्यसभा के मनोनीत सदस्य हैं। मंगलवार को हुए उपराष्ट्रपति चुनाव में अपना वोट डालने के बाद तेंदुलकर ने पत्रकारों से कहा कि मैं बुधवार को संसद में मौजूद रहूंगा, लेकिन मैं पूरे सत्र के दौरान सदन में मौजूद रहने के बारे में आश्वस्त नहीं हूं। मानसून सत्र में मौजूद रहने के बारे में पूछे जाने पर रेखा ने भी हां में सिर हिलाया। इसके पहले तेंदुलकर और रेखा ने उपराष्ट्रपति पद के चुनाव में अपने मताधिकार का प्रयोग किया। संसदीय राज्य मंत्री राजीव शुक्ला के साथ रेखा और तेंदुलकर संसद भवन पहुंचे। यह पूछे जाने पर कि तेंदुलकर कितने दिन तक सदन में मौजूद रहेंगे, शुक्ला ने कहा कि सचिन क्रिकेटर हैं और उनका सांसद सचिन से कोई संबंध नहीं है। उन्होंने यह पहले ही साफ कर दिया था कि क्रिकेट उनकी पहली प्राथमिकता होगी। वह अपनी संसदीय जिम्मेदारियों से भलीभांति अवगत हैं और समय मिलने पर वह सदन में मौजूद रहेंगे। सचिन और रेखा को इस साल मई में संसद के ऊपर सदन के लिए नामित किया गया था।