पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय
डॉ कुसुम खेमानी की ‘कहानियां सुनाती यात्राएं’ एक ऐसा यात्रा संस्मरण हैं जो न सिर्फ भौगोलिक दर्शन हैं बल्कि अनुभूति और रोमांच का प्रसरण भी हैं। दरअसल इस पुस्तक से यात्रा-साहित्य को एक नया आयाम मिलता है जिसके माध्यम से इस साहित्य और शैली को परिपुष्ट किया जा सके। ‘कहानियां सुनाती यात्राएं’ की भाषा उतनी ही जीवंत और रोमांचक हैं जितनी यात्रा। इसके जरिए डॉ खेमानी ने विश्व संस्कृति की जो अप्रतिम व्याख्या की है वो अनन्य है लेकिन इसके आलोक में भारतीयता को जिस तरह गौरवान्वित किया गया है वो मात्रा यात्रा-साहित्य का विषय नहीं है। इस पूरे यात्रा संस्मरण को परम्परागत शैली से भिन्न इस अंदाज में प्रस्तुत किया गया है कि सभी प्रस्तुतियां (यात्रा संस्मरण) एकाकार हो गईं हैं। तभी तो डरबन से शुरू होने वाली यात्रा वेनिस (इटली) तक एक ही फलक पर दृष्टिगोचर होती है लेकिन आनुभूतिक रूप से। डॉ खेमानी ने इस यात्रा संस्मरण से डरबन, रोम, बर्लिन, स्विट्जरलैण्ड, प्राग, मॉस्को, मिस्त्र, भूटान, अलास्का, हरिद्वार, कश्मीर, उज्जयिनी, कोलकाता, शिलांग, हैदराबाद तथा शांतिनिकेतन को एक सूत्र में पिरो दिया है। इन जगहों में इतनी तारतम्यता है कि डरबन विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष सीताराम रामभजन की अनुभूति सभी देशों और यात्राओं में होती है। दरअसल कुसुम खेमानी ने यात्रा के लिए जितने भी कदम बढ़ाए हैं वो सभ्यता और संस्कृति को उतनी बार परितृप्त करती है। इस यात्रा संस्मरण में जो बात सबसे ज्यादा अहम है वो यह कि यात्रा चाहे जिस देश की हो, वो यह दर्शाती है कि किसी भी देश की सभ्यता, ऐतिहासिकता, आदि को यात्रा के माध्यम से ही संजोया जा सकता है और डॉ खेमानी का यह यात्रा संस्मरण इसकी बखूबी व्याख्या भी करता है। उन्होंने अपनी सभी यात्राओं में वहां की सभ्यता का सूक्ष्म अध्ययन किया है तथा उसे एक आनुभूतिक भाषा का प्रारूप देकर उसकी गरिमा को और ज्यादा अंलकृत कर दिया है। इन यात्राओं में विशेषकर विदेश की यात्राओं में यह दृष्टिगोचर होता है कि डॉ खेमानी जहां भी जाती हैं उस देश की संस्कृति के साथ अपनी संस्कृति को एकमेक करना नहीं बिसरती। और यही वजह है कि वैदेशिक सभ्यताओं में भी एक अपनापन झलकता है। नहीं तो डरबन में ‘भारत हमारा देश है,’ ‘भारत भूमि स्वर्ग से महान है,’ ‘जन्मभूमि भारत मां की जय,’ तथा ‘हमें भारत पर गर्व है’ के गगनभेदी नारे नहीं लगाए जाते। लेकिन रोम के ऐश्वर्य को निहारते हुए उनके मानसपटल पर जरूर भारत की रवानगी, प्रवणता, प्रवाह और सौन्दर्य की अद्वितीयता दस्तक देती है जो साधारण सी यक्षी, एलोरा की गुफा, कोणार्क-खजुराहो, जैसलमेर के ‘पटुओं की हवेली’, रणकपुर और दिलवाड़ा के मंदिरों में विद्यमान है। लेकिन इस बात का क्षोभ भी है कि कला के सभी आयाम मौजूद होने के बाद भी हमें दिखाने नहीं आता। परन्तु देश के अंदर की कुछ यात्राएं मसलन हरिद्वार, कश्मीर, हैदराबाद, उज्जयिनी, कोलकाता, गोवा जरूर राहत देती है और विश्वसभ्यता के साथ कदमताल करती है। जिसमें हैदराबाद, और उज्जयिनी की यात्रा ऐतिहासिकता, गोवा की यात्रा प्राकृतिक और आधुनिकता तथा हरिद्वार और शांतिनिकेतन की यात्रा तो मोक्ष का द्वार ही खोल देती हैं और एक अद्भुत रोमांच पल्लवित करते हैं। लेकिन बर्लिन (जर्मनी) जिसे डॉ खेमानी की नजरों से देखकर एक संतोष व्याप्त होता है कि जिसे हिटलर ने हिंसा का पर्याय बना दिया था आज उसी देश का एक शहर विश्व को अहिंसा का पाठ पढ़ा रहा है और इसमें वो अकेला नहीं है बल्कि स्विट्जरलैण्ड और भूटान भी उसका भरपूर साथ दे रहे हैं। भूटान जहां सन्नाटा एक दैवीय धुन सुनाता है वहीं स्विट्जरलैण्ड की धवल पृष्ठभूमि पर नीली आभा के बीच शीतल कांति विद्यमान है जो इस बात की परिचायक है कि स्वर्ग जाने का मार्ग यहीं से गुजरता है। परन्तु एक भारतीय होने के नाते जो अपनापन मॉरिशस में मिलता है वो अन्यत्र नहीं। मॉरिशस ऐसा देश है जिसमें सम्पूर्ण भारतीयता तिरोहित है। वहां जाकर ही डॉ खेमानी जान पाती हैं कि पश्चिमी देशों में भी एक देश ऐसा है जो कोहिनूर की तरह चमक बिखेर रहा है। उन्हें मॉरिशस को ‘छोटा भारत’ कहते हुए सुनना एक सुखद अनुभूति का एहसास कराता है। लेकिन वहां से निकलकर जब ‘लोहे के पर्दे से झांकता मॉस्को’ पर दृष्टिपात करते हैं तो बड़ी विकलता होती है। कारण कि न सिर्फ मॉस्को बल्कि पूरे रूस को जिसे लेनिन ने अप्रतिम योगदान से दुर्भेद्य बना दिया था और बाद में ट्रॉटस्की, खुश्चेव, ब्रेजनेव तथा गोर्वाच्योव ने भी बारी-बारी से मॉस्को को अंलकृत किया था वो आज सेंट पीटर्सवर्ग के आगे नतमस्तक हो गया है। उसके अस्तित्व पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं कि अगर इस शहर को टॉलस्टॉय और गांधीजी मिलकर बनाए होते तो इसका प्रारूप कैसा होता। कम से कम लेखक मॉस्को यात्रा संस्मरण के लिए ‘लोहे के पर्दे से झांकता मॉस्को’ शीर्षक का इस्तेमाल तो नहीं करतीं। परन्तु वहां से निकलकर जब अंकोरवाट में भारतीय मंदिरों का ठाठ देखते हैं तो निःसंकोच भारतीय परम्परा, शैली, नक्काशी की प्रतिभूति दिखने लगती है। यात्रा के क्रम में उज्जयिनी के ‘मृत्यु और प्रेम के जीवन-उत्सव’ से जब बाहर निकलते हैं तो मिस्त्र की वो पिरामिडें मृत्यु का नहीं बल्कि अमरता के ऐश्वर्य को परिभाषित करती हैं। वहां बने अजायबघर मृत्यु से साक्षात्कार कराते हुए जीवन की नई राह दिखा रहे हैं। कुछ ऐसे ही रास्ते अलास्का के शुभ्र धवल खंड दिखा रहे हैं। अपनी यात्रा के आखिरी पड़ाव में जब डॉ कुसुम खेमानी त्रिनिडाड की यात्रा पर जाती हैं तो सहज ही भारतीय माटी की खुशबू आने लगती है तथा ये जानकर मन बड़ा हर्षित होता है कि त्रिनिडाड के चार प्रमुख विशेषताओं में भारतीय मूल के वी एस नॉयपाल का नाम भी शामिल है। इन सभी यात्राओं में अगर सबसे ज्यादा कोई देश या शहर छाप छोड़ता है तो वो रोम (इटली) है, क्योंकि डॉ खेमानी यहां के हवाईअड्डे पर जिस मुसीबत में फंसती हैं और यहां के अधिकारी जो दरियादिली दिखाते हैं वो शायद ही किसी अन्य देश में दिखता है। रोम की यात्रा उन्हें एक नई अनुभूति प्रदान करता है। जहां तक इस शहर की बात है तो यहां के पुरातन चर्च, संग्रहालय, स्मारक खुद अपनी सौन्दर्य को बयां करते हैं। इटली ऐसी कलाकृतियों से भरा है मानो किसी चित्रकार ने एक बड़े कैनवास पर एक चित्ताकर्षक चित्र बना दिया हो। इस प्रकार ‘कहानियां सुनानी यात्राएं’ एक-दो नहीं लगभग सभी जगहों को शब्दों के माध्यम से एक भौगोलिक कैनवास पर उकेरी गई चित्रकथा जो यह बताती है कि घुमक्कड़ी जैसा कुछ नहीं।
कहानियां सुनाती यात्राएं: डॉ कुसुम खेमानी
राधाकृष्ण प्रकाशन,
7/31, अंसारी रोड,
दरियागंज,
नई दिल्ली-110 002
मूल्यः 400रु.
====