Friday 25 January 2013

अंतहीन सड़क पर गुलज़ार



पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय

इस पुस्तक को पढ़ते हुए मन बार-बार एक ही सवाल आ रहा है कि इस पुस्तक के लिए किसका शुक्रगुजार होना चाहिए और किसकी तारीफ की जानी चाहिए। गुलज़ार की, जिन्होंने काव्य श्रृंखला की एक ऐसी आभासी दुनिया बनाई है जिसे किसी परम्परा और समय विशेष में नहीं बांध जा सकता या  फिर विनोद खेतान की जिन्होंने गुलजार के लिखे गीतों,  कविताओं के इस संग्रह से हिन्दी संकलन को और ज्यादा समृद्ध  किया है। 
दरअसल उम्र से लम्बी सड़कों परः गुलज़ार,   विनोद खेतान द्वारा गुलजार की उन रचनाओं को संग्रहित कर अपनी भाषा दी गई है जो समय के साथ कदमताल करते हुए कालजीवी बन गई हैं। विनोद खेतान इस पुस्तक को मूर्त रूप देते हुए गुलज़ार की रंगों में नजर आते हैं क्योंकि उन्होंने इस पुस्तक को जिस अंदाज में प्रस्तुत किया है वो कहीं-न-कहीं गुलजार की भाषा बोलती नजर आती है। आज हिन्दी साहित्य में गुलज़ार पर लिखी पुस्तक को पढ़ते हुए लगता है कि क्या ये वही गुलज़ार हैं जो लम्बे समय तक हिन्दी साहित्य में अनजान बने रहे वो भी सिर्फ इसलिए कि उनकी पहचान फिल्मों  से है। लेकिन तब जो भी हुआ हो आज गुलज़ार जिस अंतहीन सड़क पर हैं वहां उन्हें शब्दों और सीमाओं में बंधना गुस्ताखी है क्योंकि उन्हें लम्हों में कैद नहीं किया जा सकता। हालांकि इस पुस्तक में विनोद खेतान ने अपनी व्यक्तिगत पसंद के नज्मों को शामिल किया है लेकिन इससे परे भी जो रचनाएं हैं या फिर  इसमें जो शामिल हैं वे ऐसी रूहानी शब्दों की कड़ी से जुड़ी हैं जो मानस पटल पर एक आभा बनाती हैं, उसमें एक ऐसा बिम्ब होता है जो कौंधता  है। अर्थात यह पुस्तक गुलज़ार द्वारा फिल्मों  के लिए लिखी गई रचनाओं में छिपी काव्य रस को दर्शाता है। समय की सीमा से परे लिखने वाले गुलज़ार को हो सकता है कि आम समाज संदेह की दृष्टि से देखता हो क्योंकि उनकी लेखनी हमेशा आभासी लगने वाले फिल्मी  संसार को ही आलोकित करती रही। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि फिल्में  भी हमारे समाज की आइना होती हैं उसमें भी वही विषय-वस्तु होती है जो हमारे आसपास के समाज में घटित होती हैं। ऐसे में गुलज़ार ने जो कुछ भी लिखा वे परिस्थितिजन्य थी। उनकी कविताएं वे चाहे जिस भाव से पैदा हुईं हो उनमें समय के साथ तारतम्य बैठाने की काबिलियत होती थी। उन कविताओं में वे सभी सार थे जो समय के साथ साक्षात्कार कर सकें और समय उन कविताओं में झांककर अपनी परछाईं देख सके। इस पुस्तक को पढ़कर इतना तो समझा जा सकता है कि गुलजार ने फिल्मों  के लिए जो रचनाएं लिखी हैं उसका दायरा न सिर्फ व्यापक है बल्कि उसके आकर्षण का दायरा भी इतना बड़ा है कि उसकी जद से बचा नहीं जा सकता। और शायद विनोद खेतान भी वही कर रहे हैं। यानि गुलज़ार की रचनाओं के काव्य रसों को रेखांकित कर रहे हैं और अगर यह कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह पुस्तक भी उसी का परिणाम है। 

पुस्तक को पढ़ते हुए आभास होता है कि एक ऐसा रचनाकार जिसकी रचनाएं उस पृष्ठभूमि के लिए तैयार की गई है जहां जीवन के हर पल का अतिनाटकीय ढंग से प्रस्तुत की जाती है वहां उसकी रचनाओं में एक गंभीरता है, एक ठहराव है, जिसके खामोश शब्द भी जीवन के फलसफा को कह जाते हैं यानि जहां खामोशी भी बोलती है और ऐसी बोलती है कि ‘बहते हुए आसुओं  से ज्यादा तकलीफ पलकों पर ठहरे मोती पैदा करते हैं’। फिर  भी उन्हें जिन्दगी से कोई नाराजगी नहीं बस उसके मासूम सवाल से परेशान हैं। दरअसल विनोद खेतान ने गुलज़ार की उस  खामोशी को बयां किया है जिसमें उन्होंने जिन्दगी के अकेलेपन, खालीपन और उदासी को इतना मुखर कर दिया है कि बेजान पड़ी सूनी आंखों ने कह दिया कि ‘मैं एक सदी से बैठी हूं, इस राह से कोई गुजरा नहीं, कुछ चांद के रथ तो गुजरे थे, पर चांद से कोई उतरा नहीं’। गुलजार की नज़्मों में इतनी विविधता  है कि जब वे नई पीढ़ी के लिए ‘कजरारे-कजरारे तेरे कारे-कारे नैना’ लिखते हैं तो उसमें भी एक शायर मन को यह कहने से नहीं रोक पाते कि ‘तेरी बातों में किमाम की खुशबू है, तेरा आना भी गर्मियों की लू है’। 

दरअसल गुलज़ार ने जितनी भी रचनाएं लिखी हैं वे सभी सार्थकता को मूर्त रूप देते हैं, उनमें ऐसा अक्स उभरता है जो भावनाओं के विस्तार में गोता लगाती नजर आती है। फिल्मों  के लिए लिखते समय उनके भाव सहजता को संजाए रहता है। यानि फिल्मों  में संगीत की जो अनुकूल प्रभाव की जरूरत होती है, कहानी के बीच में गानों की जो   प्रासंगिकता होती है उसे गुलज़ार के गीतों ने और ज्यादा सार्थक बना दिया है। उनकी गीतों से गुजरते हुए यह एहसास होता है कि उनमें एक अल्हड़पन है जो कभी पड़ोसी के चूल्हे से आग मांगने को कहता है तो कभी कहता है कि ‘गोली मार भेजे में, भेजा शोर करता है’। लेकिन जब वे कहते हैं कि ‘इतना लम्बा कश लो यारों, दम निकल जाए, जिन्दगी सुलगाओ यारो, गम निकल जाए’। तो इतना साफ हो जाता है कि वे जिन्दगी को हर तरह से जीने का भाव देते हैं और उन भावों को शायरी की शक्ल में ढाल देना ये तो गुलज़ार की खासियत है। और इतना ही नहीं जिस तरह वे जिंदगी को समझते हैं उसी तरह मौत को भी एक कविता समझते हैं जैसे ‘मौत तू एक कविता है, मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको’। 
बहरहाल गुलज़ार ने जो बात कही और जो नज़्म लिखे चाहे वे लफ्जों , प्रतीकों और प्रसंग के हिसाब से सार्थकता बैठाने में जो भी मुश्किलें पैदा करते हों लेकिन असल में वे एक कोशिश है जो जिन्दगी की जद्दोजहद से जूझने का सलीका बताती है। इस पुस्तक के बारे में लिखते समय शब्द बेशक कम पड़ जाते हैं लेकिन गुलजार के नज्मों की विवेचना कम नहीं होती। विनोद खेतान की यह पुस्तक गुलजार के लिखे गए गीतों का एक विश्लेषित रूप है। यहां लेखक की तारीफ करना होगा कि उन्होंने गुलज़ार साहब के गीतों का सूक्ष्म और गहनता से अध्ययन किया और जैसा कि उन्होंने  कहा भी है कि ये पुस्तक गुलज़ार के गानों को समझने की कोशिश में लिखी गई है।


AMAR BHARTI (HINDI DAILY)
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Saturday 19 January 2013

भारत का साप्ताहिक इतिहास


पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय

वरिष्ठ पत्रकार शशि शेखर की यह पुस्तक ‘मिटता भारत बनता इंडिया’ एक ऐसे समसामयिक लेखों का संग्रह है जो सर्वकालीन परिवेश का जीवंत उदाहरण है जिसमें राजनीति और प्रशासन की दुरवस्थाओं के बीच मिटते भारत और बनते इंडिया को दर्शाया गया है। लेकिन ये इंडिया नकारात्मक न होकर शशि शेखर की सकारात्मक सोच और अर्थों में पल्लिवत हो रहा था। दरअसल यह इंडिया वैश्वीकरण के कंधे  पर तो सवार है लेकिन उसने पश्चात्य सभ्यता और मॉडल की अंगुली तक नहीं पकड़ी है जो इस बात की परिचायक है कि देश जब बुनियादी निराशा में जकड़े भविष्य के प्रति नकारात्मक सोच पाल रहा था तब शशि शेखर ने अपने लेखों से विकास के नजरिए को सकारात्मक आयाम दिया और विकास को पहचानने का प्रयास किया। वैसे यह कहा जाए कि उन्होंने अपने लेखों में ‘माइक्रोजर्नलिज्म’ का परिचय दिया है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि उन्होंने अपने लेखों में साप्ताहिक होने वाली उन सभी घटनाओं पर सूक्ष्म निगाह डाली है जो कहीं-न-नहीं देश और समाज को प्रभावित करता है। दरअसल ये वो लेख हैं जिनमें साप्ताहिक इतिहास को दर्ज किया गया है और जहां जनमानस की आमचेतना का सम्पूर्ण इतिहास सुरक्षित है। इन लेखों की खास बात यह है कि ये आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जब ये लिखे गए थे। समय-समय पर लिखे गए ये लेख एक मंच प्रदान करते हैं जहां समय के साथ बहस किया जा सके, उसके साथ साक्षात्कार किया जा सके। उनके लेखों ने उदारीकरण, अर्थव्यवस्था, राजनीतिक गलियारों, वैश्विक परिस्थतियों, समेत पत्रकारिता की उठा-पटक आदि पर सूक्ष्मता से प्रकाश डाला है तभी तो वे जितनी सहजता से यह कहकर नई अर्थव्यवस्था पर चोट करते हैं कि ... आज हम उस बाजार में जा खड़े हुए हैं, जहां बाजार को हम नहीं, हमें बाजार खरीदता है। उतनी सहजता से बताते हैं कि पत्रकारिता अपने वास्तविक उद्देश्यों से किनारा कर चुकी है। हालांकि उनकी लेखनी किसी विषय विशेष की मोहताज नहीं थी जो उसका अनुकरण करे, वो तो स्वछंद थी स्वतंत्र लेखन के लिए। लेकिन साप्ताहिक घटनाक्रमों ने उन्हें पूरा मौका दिया। और उन्होंने ने भी किसी भी विषय को छुटने नहीं दिया। चाहे वो बांग्लादेश में होने वाली खूनी राष्ट्रवाद की आंधी  हो, कश्मीर में आतंक के अलाव पर संकट हो या फिर  बारूद की ढ़ेर पर बैठे पाकिस्तानी राजनीति की कहानी हो सबने उनकी लेखनी को उकसाया। उन्होंने इन मुद्दों से परे सबसे ज्यादा राजनीति पर कलम चलाया। राजनीति का यह परिवेश तमिलनाडु से लेकर कश्मीर, उत्तर प्रदेश तक पफैला हुआ था। हालांकि इस राजनीति का हिस्सा केन्द्र की नीतियां भी बनी जिसमें बजट से लेकर लोकपर्व और त्योहार शामिल हैं। 
इस पुस्तक में शामिल लेखों की परिधि यहीं समाप्त नहीं होती उन्होंने कुछ वास्तविक सम्स्यायों को भी गंभीरता से उठाया। जिसमें महिला बिल, बीमारू कहे जाने वाले राज्यों की समस्या, आतंकवाद की समस्या प्रमुखता से हावी रही हैं। हालांकि उन्होंने कुछ लेखों में अप्रत्यक्ष रूप से भी बुनियादी समस्याओं को भी उठाया है और उसमें उनके उपाय भी ढूंढ़ने का प्रयास किया है। इसके अलावा उन्होंने सदी के दशक के अंत पर उसका मूल्यांकन भी किया है जो ‘इस दशक के कुछ दुख-दर्द’ और ‘नए दशक से कुछ उम्मीदें और आशाएं’ नामक शीर्षक से शामिल हैं। इसमें से पहले लेख में जहां उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि आतंकवाद पर भारत और अमेरिका की सोच में कितना अंतर है। आतंकवाद पर अमेरिका का जुझारूपन भारत के लिए एक सबक है। आगे उन्होंने अमेरिका में हुए आर्थिक महामंदी पर भी प्रकाश डाला। हालांकि कि उन्होंने 21वीं सदी के पहले दशक को संशकित होकर देखा था। लेकिन उनके कुछ लेख इसी सदी के स्याह पक्ष में सुनहरे भविष्य की खोज करते नजर आते हैं। उनके कई लेख भारतीय समाज और राजनीति के पतन के बीच द्वंद्व करते नजर आते हैं। दरअसल वे स्पष्ट करते हैं कि जब राजनीति का धीरे-धीरे  क्षरण हो रहा है तब भारतीय समाज की चेतना एक नई उफर्जा के साथ सकारात्मक सोच को पल्लिवित कर रही है। 
इन सबके बीच शशि शेखर मध्य वर्ग को विशेष तरजीह देते नजर आते हैं। तभी तो उनकी नजर में समूचे एशिया में मध्यवर्ग बहुत तेजी से पनप रहे हैं और यही मध्यवर्ग तरक्की एक नया मार्ग प्रशस्त करते हैं क्योंकि इस वर्ग का विकास गरीबी के खिलापफ जीती हुई जंग है। बहरहाल मूल्यांकन स्वरूप शशि शेखर द्वारा लिखे गए साप्ताहिक इतिहास का यह संग्रह अपनी कुछ विशेषताओं के कारण आज भी प्रासंगिक है। इसमें शामिल सभी लेख सहज और स्पष्टवादी हैं जो दो टूक के अंदाज में प्रस्तुत होती हैं। इनमें कोई साहित्यिक गूढ़ता नहीं है बल्कि आम बोलचाल और समझ का तार्किक विवेचन है जो मानवीय संवेदना से लबरेज है। 
मिटता भारत बनता इंडियाः शशि शेखर
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.
1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग
नई दिल्ली- 110 002
कीमतः 600रु.
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AMAR BHARTI (HINDI DAILY)
Pratap Bhawan, 5, Bahadurshah Zafar Marg,
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