Friday 14 September 2012

क्योंकि कहानियां सच कहती हैं

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय
कुसुम खेमानी की यह पुस्तक ‘सच कहती कहानियां’ एक ऐसी कौटुम्बिक परिपाटी पर रची गई मार्मिक कहानियों का संग्रह है जो समाज के भिन्न-भिन्न स्तरों, अनुभवों और प्रसंगों से संवाद कराता है। दरअसल किसी भी काल विशेष का साहित्य सृजन तत्कालीन सामाजिक परम्परा और संस्कृति को समझने का आधार प्रदान करता है और जब ‘सच कहती कहानियां’ जैसे संग्रह के माध्यम से संस्कृतियों और परम्पराओं का प्रासंगिक और आनुभूतिक वर्णन किया जाए तो ऐसे साहित्य रचनाओं से अपेक्षाएं और भी ज्यादा बढ़ जाती हैं क्योंकि भारत संस्कृतियों और परम्पराओं का देश है। इस संग्रह में जितनी भी कहानियों को शामिल किया गया है वो वास्तव में एक-दूसरे की अनुषंगी होने का एहसास कराती हैं। दरअसल ये सभी कहानियां समाज के विभिन्न स्तरों और अनुभवों से लबरेज होकर एक नई रचना का सृजन करती हैं। चौदह कहानियों के इस संग्रह की तीन कहानियां ‘एक मां धरती सी’, ‘लावण्यदेवी’, और ‘रश्मिरथी मां’ समाज की दैवीय रिश्ते की वो पटकथा है जो अनुभवों और एहसासों की सूक्ष्मता और अन्तरंगता से सामाजिक जीवन की यथार्थता को परिलक्षित करता है। ‘एक मां धरती सी’ उस बानी मौसी की कहानी है जो समयचक्र का कोपभाजन बन गईं हैं। दरअसल वो उसे बेटे की मां की प्रतिमूर्ति हैं जो अपनी प्रेमिका के कहने पर अपनी मां के मीठे कलेजे को निकाल तेजी से अपनी प्रेमिका को देने जाता है लेकिन तभी ठोकर खाकर गिर जाता है उसी वक्त मां के कलेजे से आवाज आती है कि ‘अरे बेटा! कहीं चोट तो नहीं लगी?’ ‘रश्मिरथी मां’ उस मातृत्व की कहानी है जो गरीबी और सामाजिक झंझावतों में डूबे अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए समाज के उस आक्षेप को भी सह लेती है जिसमें सेरोगेसी को ‘किराए पर कोख’ का तमगा देकर उसको सामाजिक रूप से बहिष्कृत कर देता है। लेकिन इस कहानी की मुख्य पात्र जाहिदा तो उन मांओं की मां है जो ऐसा दर्शन प्रस्तुत करती है जिससे भगवान शंकर के औढ़रदानी होने का एकाधिकार टूट जाता है। मातृत्व की अगली कड़ी में ‘लावण्यदेवी’ का भी प्रारूप देखने को मिलता है जो अपने माता-पिता की लाड़ली और अकूत सम्पति की इकलौती वारिश होती है। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक उन्होंने अनुशासन को इस तरह जिया है कि अनुशासन स्वयं झेप जाए। बचपन में उनके मां-बाप का प्यार, जवानी में पति का प्यार दरअसल एक परिलोक की कहानी जैसा प्रतीत होता है लेकिन जब उनके बेटे-बेटियां बड़े हो जाते हैं और उनकी जब शादी हो जाती है तो फिर वही अलौकिक सी जीवन जीने वाली लावण्यदेवी अपेक्षा और उपेक्षा के बीच निर्वात में अपने अस्तित्व को भी नहीं बचा पाती हैं। ‘काला परिजात’ एक ऐसी कहानी है जो इस बात का परिचायक है कि मनुष्य स्वयं में चाहे जैसा हो सामने वाले से एक आदर्श की उम्मीद करता है और ये आदर्श उसके व्यवहार से लेकर रूप-रंग तक में शामिल है। इस कहानी में दो ऐसे नीग्रो लोगों की कहानी है जो भारत आते हैं और उम्मीद करते हैं कि यहां के लोग सांवले हैं तो उन्हें यहां किसी भेदभाव से नहीं गुजरना पड़ेगा। उन्हें यहां वही सम्मान और अपनापन मिलेगा जो उन्हें अपने समुदायों में रहते हुए मिलता है लेकिन हकीकत की स्थूल धरातल पर उन्हें जो अनुभूति होती है उससे उनका यहां प्रवास बोझिल हो जाता है। रिश्तों के ताने-बाने से उन्मुक्त ‘पुरुष सती’ उस त्यागमयी मूर्ति बिशु की कहानी है जो अपनी पत्नी की खुशी के लिए अपने एहसासों को कुर्बान कर देता है। यहां तक की अपनी पत्नी के पुरुष मित्र के साथ रहने पर भी कोई एतराज नहीं जताता। दरअसल वह उस बात का पक्षधर है कि ‘जिसे जो करना होता है वह उसे करता ही है, इसके लिए वो साम, दाम, दंड, भेद सभी प्रवृतियों को अपनाता है ऐसे में किसी के रास्ते में रोड़ा डालकर बाधा उत्पन्न करना उचित नहीं’। और इसी आदर्श के सहारे वह अपनी पत्नी का त्याग भी कर देता है। संग्रह के अगले हिस्से में ‘जज्बा एक जर्रे का’ एक ऐसी महिला लक्ष्मी की कहानी है जो विपरीत परिस्थितियों की मार से टूटती नहीं बल्कि उसके साथ कदमताल करती है। दरअसल उसका सम्पूर्ण जीवन एक ऐसा दर्शन प्रस्तुत करता है जिसके आलोक से यह साफ हो जाता है कि दर्शन सामाजिक अनुभवों के गर्भ से निकलता है। लक्ष्मी अपने सरल जीवन से धर्म का इस प्रकार व्याख्यान कर पाती है कि धर्म मन में बसा होता है उसका तन भेद से कोई सरोकार नहीं होता। हमारे समाज में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो शहरों में रहते हैं लेकिन उनका ग्रामीण परिवेश से कहीं-न-कहीं एक लगाव होता है। इस संग्रह में कुछ ऐसी ही कहानियां हैं जो ग्रामीण परिवेश का एक पृथक कलेवर प्रस्तुत करती हैं। ‘पतराम दरवज्जा’, ‘वक़त एक साधारण औरत की’ दो ऐसी कहानियां है जो ग्रामीण परिदृश्य की अलौकिक गर्द को लौकिक बना देती हैं। दरअसल ये दोनों कहानियां हरियाणवी पृष्ठभूमि पर रची बसी है। इन दोनों कहानियों के पीछे दो अलग-अलग व्यक्तित्व की कहानी छिपी है जो अपने त्याग और आदर्श की वजह से दंतकथाओं जैसे प्रतीत होने लगते हैं। लेकिन ये दोनों पात्र भूतकाल में वर्तमान समाज के देवतुल्य थे। ‘पतराम दरवज्जा’ जहां पतरामजी की सामाजिक प्रतिष्ठा और उनके दरियादिली का आख्यान है वहीं ‘वक़त एक साधारण औरत की’ पतरामजी की अनुषंगी लगने वाली चुनिया बुआ की। पतरामजी अपनी कहानी में एक कुएं को 500 रुपये में खरीदकर उसके पानी को निःशुल्क करवाते हैं तो चुनिया बुआ 4000 में एक सार्वजनिक कुआं खुदवाती हैं। भारतीय समाज में विधवा औरत की सामाजिक स्वीकृति सम्मानजनक नहीं होती, शुभकार्यों में तो लोग उनका नाम तक नहीं लेते। लेकिन यहां चुनिया काकी इस सोच से परे हर मौके पर याद की जाती हैं। इन दोनों कहानियों के पात्रों में जहां पतरामजी पुरुष समाज का नेतृत्व करते हैं वहीं चुनिया काकी महिला समाज को। कुसुम खेमानी के इस पहले संग्रह में शामिल कहानियों में मानवीय और कौटुम्बिक पक्षधरता सर्वोपरि है। सभी कहानियां अलग-अलग परिवेश लेकिन एक समान रिश्तों की नाजुक डोर से बुनी गई है। उनकी कहानियों में कठोर यथार्थ का पुट विद्यमान है। ‘फर्द होना आदमी का’ और ‘एक पारस पत्थर’ इसी श्रृंखला की अगली कड़ी में शामिल है जो समाज के पारिवारिक उलझनों और अच्छे-बुरे अनुभवों को भाष्य रूप प्रदान करता है। इस संग्रह की शेष चार कहानियां ‘राज्यपाल ऐसा हो’, ‘गरीबधन’, ‘मेरीएन भेद बताओ’, और ‘एकदम चंगे’ मानवीय मूल्यों की वो कहानियां हैं जिसमें सिर्फ और सिर्फ उनके आदर्शों की बात होती है। ‘राज्यपाल ऐसा हो’ एक ऐसे राज्यपाल की कहानी है जो अपने जीवन काल में कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे, पद के मुताबिक पैसे भी खूब कमाए लेकिन अपने आखिरी वक्त में उनके पास सिर्फ एक नौकर और एक बाल्टी बचता है। उन्होंने अपना हवेलीनुमा घर उन गरीब बच्चों के लिए छोड़ दिया जो काफी समय से उस घर में रह रहे थे। ‘गरीबधन’ भी ऐसे ही एक व्यवसायी पुरुष की कहानी है जो नेपथ्य में रहकर भी अपने होने का एहसास कराता हैं। कहानी का मुख्य पात्र राजेन्द्र जिसका बचपन आभावों और मां-बाप के स्नेहिल स्पर्श से परे अपनी बुआ के घर में बीतता है। और फिर राजेन्द्र उस कहानी को चरितार्थ करता है जिसमें कहा जाता है कि ‘उद्यमी और भले साधक की सहायता स्वयं भगवान भी करते हैं।’ राजेन्द्र अपने जीवन दर्शन से अर्थ की नश्वरता को समझ उसकी अर्थवत्ता को समझा रहा है। ‘मरीएन भेद बताओ’ उस अमेरिकी भारतीय महिला की कहानी है जो जीवन और मानव मूल्यों के अलावा कुछ नहीं समझती। अमेरिका के वाशिंगटन में एक समृद्ध परिवार में नाजो-नखरे से पली-बढ़ी मेरीएन को भारत की सोंधी माटी की खुशबु भाती है और यहां के लोगों के सुख-दुख में भागीदार बनती है। उसके लिए एक दिन में 24 घंटे नहीं होते बल्कि 48 घंटे होते हैं। वो एक समृद्ध जीवन का त्याग का त्याग कर कभी सुन्दरवन में रहने वाले बच्चों के लिए उनी कपड़े ले जा रही है तो कभी मानसिक रूप से बीमार महिलाओं के लिए गाउन। इस बीच कभी उस बीमारी की परवाह नहीं करती है जो उसे मानसिक और शारीरिक रूप से तिल-तिल कर मार रही है। श्रृंखला के अंत में ‘एकदम चंगे’ एक ऐसी कहानी है जो डॉक्टर पुरुष के सहारे पंजाबी लोगों की जीवन के प्रति सकरात्मक और उर्जावान जीवन की व्याख्या करती है। दरअसल यह कहानी यह संदेश देती है कि जीवन चाहे जिस मोड़ पर हो पंजाबी लोगों का हाल पूछने पर एक ही जवाब जानते हैं ‘एकदम चंगे’। बहरहाल संग्रह की सभी कहानियां परिदृश्य और परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाकर जो भाव प्रस्तुत करती है वो अपने आप में अप्रतिम है। जहां तक भाषा की बात है तो इन कहानियों में सबसे प्रबल पक्ष भाषा और शैली ही है। ये सभी कहानियां हिन्दी में लिखी गई हैं लेकिन अपने साथ बांग्ला, मारवाड़ी (राजस्थानी), हरियाणवी, उर्दू और अंग्रेजी को जिस प्रकार एकाकार करती है उससे कथा शैली की एक नई परम्परा का दर्शन होता है। कुसुम खेमानी अपनी पहली कहानी संग्रह के माध्यम से एक छाप छोड़ती हैं जो उन्हें साहित्य के प्रति एक सशक्त और गंभीर शैलीकार के रूप में स्थापित करता है।

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