Sunday 17 June 2012

प्रणब दा ... सफल राजनीति से आदर्श चुनौतियों तक ||



    जब अधिकाधिक लोग राजनीति के बारे में यह कहते नहीं थकते है कि "राजनीति में विश्वास की जगह नहीं होती", उन सक्रिय लोगों को भावी महामहीम प्रणब मुखर्जी के धैर्य और विश्वास से सीख लेनी चाहिए. सीख लेने की जरूरत न सिर्फ कांग्रेस के लोगो को है, बल्कि इस घटनाक्रम से भाजपा के अति सक्रिय राजनेता एवं संभावित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार  नरेन्द्र मोदी को भी जरूरत है, क्योंकि धैर्य  और विश्वास न रखने का ही नतीजा है कि वह अपने मातृ- संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चरम नाराजगी और अपनी पार्टी भाजपा में भी नाराजगी के आखिरी मुहाने पर खड़े है. निश्चित रूप से धैर्य ममता बनर्जी को भी रखने की जरूरत है, जिन्होंने अपनी व्यक्तिगत राजनीति की जल्दबाजी में अलग- थलग होने में कोई कसर नहीं छोड़ी है और साथ ही साथ मुलायम सिंह यादव की अंगड़ाई को भी धैर्य रखने की जरूरत थी, जिसमे उन्होंने तुरुप का पत्ता बनने की कोशिश में शायद अपनी विश्वसनीयता को ही दाव पर लगा दिया.


   राजनीति की हर एक व्याख्या इतिहास से शुरू होती है. इससे पहले कि हम प्रणब मुखर्जी की राजनीति की सुलझी चालों की बात करें, हमें यह जान लेना होगा कि प्रणब आखिर राजनीति में इतने अहम् क्यों है, विशेष रूप से कांग्रेस जैसी पार्टी में जिसमे हमेशा से एक ही परिवार का राजनैतिक वर्चस्व रहा है, उसके लिए प्रणब मुखर्जी अपरिहार्य कैसे हो गए ? एक सर्वोत्कृष्ट राजनेता, अक्लमंद प्रशाशक, चलता फिरता शब्दकोष, इतिहासकार- लेखक एवं पिछले ८ वर्षों से कांग्रेस पार्टी की डूबती नाव के खेवनहार इत्यादि उपनामों से नवाजे गए श्री मुखर्जी का जन्म १९३५ को बीरभूम जिले के मिराती नमक गावं में हुआ था. पिता कामदा किंकर मुखर्जी कांग्रेस के सक्रिय सदस्य एवं ख्यात स्वतंत्रता सेनानी थे. उनके पिता पश्चिम बंगाल विधान परिषद् के करीब १४ साल तक सदस्य भी रहे. उनके पदचिन्हों पर चलते हुए प्रणब मुखर्जी ने अपना राजनैतिक जीवन १९६९ से राज्य सभा सदस्य के रूप में आरम्भ किया. १९७३ में उद्योग मंत्रालय में राज्य मंत्री के तौर पर कार्य किया. उनका मंत्री के रूप में उल्लेखनीय कार्यकाल १९८२ से १९८४ के बीच रहा जिसमे युरोमनी पत्रिका ने उन्हें विश्व के सर्वश्रेष्ठ वित्त मंत्री के रूप में मूल्यांकन किया. इसके बाद श्री मुखर्जी ने कांग्रेसी सरकार में अनेक विभागों में मंत्री के रूप में कार्य किया. राजनीति में कांग्रेस पार्टी में श्री मुखर्जी की लोकप्रिय नेता की छवि सदा से बनी रही है. कांग्रेस पार्टी की आतंरिक राजनीति की बात करें तो, श्री मुखर्जी के हाशिये पर जाने की कहानी भी लगातार चर्चा में बनी रही. इंदिरा गाँधी के शाशनकाल के दौरान नंबर दो की पोजीशन हासिल करने वाले श्री मुखर्जी का राजनीतिक वनवास  श्रीमती इंदिरा गाँधी की आकस्मिक मृत्यु के बाद शुरू हुआ. अपनी सर्वविदित छवि के अनुरूप कांग्रेस पार्टी के परिवार-पूजक नेता श्री राजीव गाँधी को प्रधानमंत्री पद की गद्दी सौपना चाहते थे और बाद में हुआ भी वही. श्री मुखर्जी वही पर मात खा बैठे और अपनी योग्यता और बुद्धिमता को उन्होंने राजनीति समझ लिया. कहा जाता है कि श्री मुखर्जी के उस समय के रवैये को नेहरु-गाँधी परिवार आज तक नहीं भुला पाया और श्री मुखर्जी लगातार अपनी अवहेलना झेलते भी रहे. श्री मुखर्जी के योग्य होने के बावजूद पहले राजीव गाँधी प्रधानमंत्री बने फिर उसके बाद पी.वी.नरसिम्हा राव और हद तो तब हो गयी जब गाँधी परिवार के वर्तमान नेतृत्व ने श्री मुखर्जी के कनिष्ठ रहे डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया और श्री मुखर्जी के मन में हर घाव गहरा होता गया. पर उन्होंने धैर्य और विश्वास का दामन लम्बे समय तक नहीं छोड़ा. यहाँ तक कि कई छोटे बड़े मंत्री डॉ. मुखर्जी को आँख भी दिखाते रहे, कई अहम् फैसलों में उनकी सलाह को ताक पर रखा गया पर उन्होंने विश्वास का दामन और अपनी योग्यता को निखारना जारी रखा, उन्हें अपनी अंतिम जंग जो जीतनी थी.
    
    वर्तमान राजनीति की बारीक़ समझ रखने वाले इस बात पर एक मत है कि कांग्रेस पार्टी पहले प्रणब मुखर्जी के नाम पर भी सिरे से असहमत थी. 
सोनिया गाँधी प्रणब के नाम पर लगातार नाक- भौं सिकोड़ती रही है. अब से नहीं बल्कि जबसे मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने है तब से, या शायद उससे पहले से ही, क्योंकि पहले कांग्रेस पार्टी के नाम पर सोनिया गाँधी ऐसा राष्ट्रपति चाहती थी जो २०१४ में कांग्रेस की भावी सम्भावना राहुल गाँधी को जरूरत पड़ने पर उबार सके, अपनी गरिमा के विपरीत जाकर भी, इसीलिए कुछ कमजोर नाम भी लगातार चर्चा में बने रहे. यदि कांग्रेस पार्टी की मंशा साफ़ होती तो प्रणब मुखर्जी के नाम की सार्वजानिक घोषणा कभी की हो चुकी होती और राष्ट्रपति चुनाव की इतनी छीछालेदर तो नहीं ही होती. भला हो ममता बनर्जी का जो उन्होंने कांग्रेस को तो कम से कम इस बात के लिए मजबूर किया कि वह अपने प्रत्याशियों के नाम तो बताये. इसी कड़ी में प्रणब का नाम कांग्रेस की तरफ से दावेदार के रूप में उभरा, पर उनके साथ और भी एक नाम उभरा जिससे यह साफ़ जाहिर हो गया कि कांग्रेस पार्टी अभी भी प्रणब का विकल्प खोज रही थी. सीधी बात कहें तो प्रणब मुखर्जी भी अपनी दावेदारी को लेकर बाहरी दलों की तरफ से ज्यादा आश्वस्त थे, परन्तु कांग्रेस की तरफ से बिलकुल भी नहीं. यहाँ तक कि उनके संबंधो की बदौलत भाजपा के कई नेता जैसे मेनका गाँधी, यशवंत सिन्हा इत्यादि सार्वजनिक रूप से उन्हें अपनी पसंद बता चुके थे, परन्तु प्रणब मुखर्जी अपनी धूर-विरोधी सोनिया गाँधी को कैसे भूल जाते, जिसने श्री मुखर्जी की राजनीतिक संभावनाओं पर गहरा आघात किया था. अब ले- देकर श्री मुखर्जी को राजनीति के आखिरी पड़ाव पर राष्ट्रपति पद की एक ही उम्मीद बची थी, और उसे वह किसी भी हाल में हासिल करने की मन ही मन ठान चुके थे. 

    इसी क्रम में श्री मुखर्जी ने अपने संबंधो का जाल बिछाया और राष्ट्रपति चुनाव के समय से काफी पहले इसकी चर्चा अलग-अलग सुरों से शुरू करा दी. इसमें श्री मुखर्जी खुद भी सधे शब्दों में राय व्यक्त करने से नहीं चुके और अपने को मीडिया, अन्य राजनैतिक मित्रों के माध्यम से चर्चा में बनाये रक्खा. श्री मुखर्जी सोनिया गाँधी की पिछली चालो से बेहद सावधान थे, जिसमे पिछले राष्ट्रपति चुनाव में श्रीमती गाँधी अपनी मर्जी का प्रत्याशी उठाकर कांग्रेसियों के सामने रख दिया और क्या मजाल कि कोई कांग्रेसी चूँ भी करता कि राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए वर्तमान राष्ट्रपति महोदया श्रीमती प्रतिभा पाटिल से भी योग्य उम्मीदवार हैं. श्रीमती सोनिया गाँधी इस बार भी वही दाव चलने की कोशिश में थी और शायद वह कोई छुपा हुआ उम्मीदवार लाती भी जो की महामहीम की कुर्सी की शोभा जरूर बढाता परन्तु सोनिया गाँधी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को येन-केन-प्रकारेण पूरा ही करता, भले उसकी गरिमा सुरक्षित रहती अथवा नहीं. प्रणब दा इस तथ्य से भली- भांति परिचित थे कि यदि सोनिया ने किसी गदहे को राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए प्रस्तावित कर दिया तो कांग्रेस की समस्त राजनीति सिर्फ उसकी हाँ में हाँ ही मिलाती नजर आती, फिर उसके बाद प्रणब दा लाख सर पटकते, कुछ नहीं होता, बल्कि उनको बागी कह कर नटवर सिंह, जगन मोहन, हरीश रावत जैसी कार्रवाई का सामना करना पड़ता, और गाना पड़ता "अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत" |

    पर बंगाली बाबु इस बार बेहद सावधान थे, अपनी छवि लगातार खेवनहार की बनाये रखते हुए, उन्होंने सोनिया की किसी चाल को कोई मौका ही नहीं दिया. जब तक सोनिया कुछ समझती तब तक तो गेद को बंगाली बाबु ईडन-गार्डेन की सीमा रेखा के बाहर भेज चुके थे और इस खेल में मुलायम ने दादा का भरपूर साथ दिया. आश्चर्य न करें आप लोग, है तो यह अनुमान ही परन्तु मुलायम जैसा राजनैतिक पहलवान ममता जैसी बिगडैल नेता के साथ प्रेस- कांफ्रेंस करता है और तीन में से दो बेवकूफी भरे नाम का प्रस्ताव करता है. मुलायम जैसे राजनीतिज्ञ को क्या यह आम आदमी को भी पता है कि मनमोहन को राष्ट्रपति बनाने का मतलब उनका प्रधानमंत्री के रूप में नाकाम होना है और कांग्रेस इसे सरेआम स्वीकार करेगी, वह भी ममता- मुलायम के कहने पर यह तो असंभव बात थी. सोमनाथ चटर्जी एक मृतप्राय राजनीतिज्ञ है और उनका नाम सिर्फ बंगाली प्रतीक के रूप में घसीटा गया. ले देकर बचे डॉ. कलाम. मुलायम यह भली- भांति जानते थे कि कलाम की उम्मीदवारी बेहद मजबूत होगी और कांग्रेस उसके मुकाबले में अपने सबसे मजबूत प्रत्याशी को ही मैदान में उतारेगी, और प्रणब मुखर्जी जैसा मजबूत और स्वीकार्य नेता भला कौन होता. बस तस्वीर पानी की तरफ साफ़ हो गयी और जैसे ही कांग्रेस ने दबाव में आकर प्रणब मुखर्जी को प्रत्याशी बनाया, राजनीति के माहिर मुलायम ने तगड़ा दाव खेलते हुए और बिना देरी किये उनके बिना शर्त समर्थन की घोषणा कर दी. इससे पहले प्रत्याशी घोषित करने का जबरदस्त दबाव सपा ने अपने नेताओं के माध्यम से कांग्रेस पर बनाया कि "कांग्रेस अपने प्रत्याशी को लेकर खुद ही भ्रम में है, और उसे प्रणब के नाम की जल्द से जल्द घोषणा करनी चाहिए". यही नहीं बल्कि सपा ने जबरदस्त शंशय बनाते हुए कांग्रेस को यह साफ़ कर दिया कि वह आसानी से उसके किसी भी उम्मीदवार का समर्थन नहीं करेगी. परन्तु प्रणब के नाम की सार्वजानिक घोषणा होते ही सपा ने बहूत ही आसानी से उसे समर्थन दे दिया.

    दोस्तों, अब मुझे यह बात बिलकुल समझ नहीं आ रही है कि ममता बनर्जी राजनीति के इस खेल में सिर्फ इस्तेमाल हुई है अथवा उन्होंने सोनिया के वर्चस्व को तोड़ने की सार्थक पहल करते हुए अपना राजनैतिक नुकसान जानबूझकर किया है. परन्तु कोई बात नहीं ममता दीदी, आप अपने खेल में सफल रहीं और दादा ने आपको अपनी बहन संबोधित करके आपका सार्वजनिक आभार भी व्यक्त किया है. पर यदि आप इस खेल से अनजान थी तो मुलायम सिंह को भूलियेगा नहीं, उनके पलीते में चिंगारी दिखाने के लिए कमसे कम आप २०१४ लोकसभा चुनाव का इंतजार तो कर ही सकती हैं.  




    इसी कड़ी में डॉ. कलाम ने भी अपने पत्ते नहीं खोलकर बहूत ही परिपक्व नागरिक होने का सबूत पेश किया है, क्योंकि यदि इस खेल में आप घसीटे जाते तो भारत की जनता अपने आप को अपमानित महसूस करती, क्योंकि संविधान के अनुसार राष्ट्रपति के चुनाव की एक प्रक्रिया है जिसे राजनीतिक दल एक दायरे में रह कर और बिना शोर- शराबे के पूरा करते हैं. परन्तु कांग्रेस पार्टी की आतंरिक राजनीति से यदि गलती हुई है और उस गलती के फलस्वरूप आज देश का प्रत्येक नागरिक इस चुनाव से सीधा जुड़ा महसूस कर रहा है, तब कांग्रेस पर जन भावना की अनदेखी करके जनता का अनादर ही नहीं बल्कि लोकतंत्र का सीधा अपमान करने का भी आरोप लगता, क्योंकि आपका व्यक्तित्व राजनीति से परे है. जनता से जुडाव की बात करें तो डॉ. कलाम आसमान का दर्जा रखते है, और प्रणब मुखर्जी एक सम्मानित नेता होने के बावजूद उनसे कोषों पीछें है, न सिर्फ एक व्यक्ति के तौर पर बल्कि एक सार्वजनिक छवि के तौर पर भी, साफ़ सुथरी छवि के तौर पर भी, देश को दिए गए उनके सीधे योगदान के तौर पर भी, त्याग के तौर पर भी और यही नहीं वरन राष्ट्रपति के पिछले कार्यकाल में डॉ. कलाम ने यह साबित कर दिखाया कि भारत का राष्ट्रपति किसे कहते है, उसे कैसा होना चाहिए,  जन- जन से कैसे जुड़कर काम किया जाता है. 

   प्रणब दा की असली चुनौतिया सिर्फ सोनिया गाँधी को पटखनी देने की ही नहीं है, उसमे तो वह शत- प्रतिशत कामयाब ही रहे हैं, वरन प्रणब मुखर्जी को डॉ. कलाम के सफ़र को ही आगे बढ़ाना होगा, जनभावनाओं के साथ जुड़कर चलना होगा और अलोकतांत्रिक और जनता-विरोधी कार्यों से बचना होगा. गौरतलब है पिछले दिनों अन्ना हजारे के जनांदोलन में डॉ. प्रणब मुखर्जी ने जनभावनाओं को दबाने का काम किया था, चाहे अन्ना हजारे की गिरफ़्तारी हो, किरण बेदी को डांटना हो अथवा अनेक घोटालो इत्यादि में कांग्रेस पार्टी को बचाना हो, प्रणब जी साफ़ छवि के बावजूद मंत्रिमंडल का ही एक हिस्सा रहे है और वह कांग्रेस पार्टी के घोटालों से कहीं न कहीं सीधा न सही तो परोक्ष रूप से जुड़े रहने का दाग जरूर है.  राष्ट्रपति पद पर वह किसी पार्टी या किसी आलाकमान के नहीं वरन देश के प्रतिनिधि लगे, नहीं तो भारतीय जनता खुद को ठगा सा महसूस करेगी. यह सच है कि भारत की जनता ९० फीसदी से ऊपर डॉ. कलाम को राष्ट्रपति पद के लिए पसंद करती है, परन्तु वह डॉ. प्रणब मुखर्जी को नापसंद भी नहीं करती. बस यही वह अंतर है जिसमे डॉ. कलाम के आदर्श को आगे बढ़ाना होगा प्रणब दा को और राजनीति में उनकी स्वीकार्यता और व्यापक अनुभव को देखते हुए भारतीय जनता की उम्मीदें निसंदेह बहूत स्वाभाविक है. उम्मीद है भारत देश पिछले ८ वर्ष से नेतृत्व- विहीन होने के आरोपों से उबरेगा और डॉ. प्रणब मुखर्जी के नेतृत्व में एक नया सवेरा सभी भारतवासियों के चेहरे की मुस्कान बनेगा.

जय हिंद !!

लेखक- 
(Writer)-
Mithilesh Kumar Singh.
(Sr. Business Reporter, Amar Bharti News Paper)



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