Friday, 25 January 2013

अंतहीन सड़क पर गुलज़ार



पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय

इस पुस्तक को पढ़ते हुए मन बार-बार एक ही सवाल आ रहा है कि इस पुस्तक के लिए किसका शुक्रगुजार होना चाहिए और किसकी तारीफ की जानी चाहिए। गुलज़ार की, जिन्होंने काव्य श्रृंखला की एक ऐसी आभासी दुनिया बनाई है जिसे किसी परम्परा और समय विशेष में नहीं बांध जा सकता या  फिर विनोद खेतान की जिन्होंने गुलजार के लिखे गीतों,  कविताओं के इस संग्रह से हिन्दी संकलन को और ज्यादा समृद्ध  किया है। 
दरअसल उम्र से लम्बी सड़कों परः गुलज़ार,   विनोद खेतान द्वारा गुलजार की उन रचनाओं को संग्रहित कर अपनी भाषा दी गई है जो समय के साथ कदमताल करते हुए कालजीवी बन गई हैं। विनोद खेतान इस पुस्तक को मूर्त रूप देते हुए गुलज़ार की रंगों में नजर आते हैं क्योंकि उन्होंने इस पुस्तक को जिस अंदाज में प्रस्तुत किया है वो कहीं-न-कहीं गुलजार की भाषा बोलती नजर आती है। आज हिन्दी साहित्य में गुलज़ार पर लिखी पुस्तक को पढ़ते हुए लगता है कि क्या ये वही गुलज़ार हैं जो लम्बे समय तक हिन्दी साहित्य में अनजान बने रहे वो भी सिर्फ इसलिए कि उनकी पहचान फिल्मों  से है। लेकिन तब जो भी हुआ हो आज गुलज़ार जिस अंतहीन सड़क पर हैं वहां उन्हें शब्दों और सीमाओं में बंधना गुस्ताखी है क्योंकि उन्हें लम्हों में कैद नहीं किया जा सकता। हालांकि इस पुस्तक में विनोद खेतान ने अपनी व्यक्तिगत पसंद के नज्मों को शामिल किया है लेकिन इससे परे भी जो रचनाएं हैं या फिर  इसमें जो शामिल हैं वे ऐसी रूहानी शब्दों की कड़ी से जुड़ी हैं जो मानस पटल पर एक आभा बनाती हैं, उसमें एक ऐसा बिम्ब होता है जो कौंधता  है। अर्थात यह पुस्तक गुलज़ार द्वारा फिल्मों  के लिए लिखी गई रचनाओं में छिपी काव्य रस को दर्शाता है। समय की सीमा से परे लिखने वाले गुलज़ार को हो सकता है कि आम समाज संदेह की दृष्टि से देखता हो क्योंकि उनकी लेखनी हमेशा आभासी लगने वाले फिल्मी  संसार को ही आलोकित करती रही। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि फिल्में  भी हमारे समाज की आइना होती हैं उसमें भी वही विषय-वस्तु होती है जो हमारे आसपास के समाज में घटित होती हैं। ऐसे में गुलज़ार ने जो कुछ भी लिखा वे परिस्थितिजन्य थी। उनकी कविताएं वे चाहे जिस भाव से पैदा हुईं हो उनमें समय के साथ तारतम्य बैठाने की काबिलियत होती थी। उन कविताओं में वे सभी सार थे जो समय के साथ साक्षात्कार कर सकें और समय उन कविताओं में झांककर अपनी परछाईं देख सके। इस पुस्तक को पढ़कर इतना तो समझा जा सकता है कि गुलजार ने फिल्मों  के लिए जो रचनाएं लिखी हैं उसका दायरा न सिर्फ व्यापक है बल्कि उसके आकर्षण का दायरा भी इतना बड़ा है कि उसकी जद से बचा नहीं जा सकता। और शायद विनोद खेतान भी वही कर रहे हैं। यानि गुलज़ार की रचनाओं के काव्य रसों को रेखांकित कर रहे हैं और अगर यह कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह पुस्तक भी उसी का परिणाम है। 

पुस्तक को पढ़ते हुए आभास होता है कि एक ऐसा रचनाकार जिसकी रचनाएं उस पृष्ठभूमि के लिए तैयार की गई है जहां जीवन के हर पल का अतिनाटकीय ढंग से प्रस्तुत की जाती है वहां उसकी रचनाओं में एक गंभीरता है, एक ठहराव है, जिसके खामोश शब्द भी जीवन के फलसफा को कह जाते हैं यानि जहां खामोशी भी बोलती है और ऐसी बोलती है कि ‘बहते हुए आसुओं  से ज्यादा तकलीफ पलकों पर ठहरे मोती पैदा करते हैं’। फिर  भी उन्हें जिन्दगी से कोई नाराजगी नहीं बस उसके मासूम सवाल से परेशान हैं। दरअसल विनोद खेतान ने गुलज़ार की उस  खामोशी को बयां किया है जिसमें उन्होंने जिन्दगी के अकेलेपन, खालीपन और उदासी को इतना मुखर कर दिया है कि बेजान पड़ी सूनी आंखों ने कह दिया कि ‘मैं एक सदी से बैठी हूं, इस राह से कोई गुजरा नहीं, कुछ चांद के रथ तो गुजरे थे, पर चांद से कोई उतरा नहीं’। गुलजार की नज़्मों में इतनी विविधता  है कि जब वे नई पीढ़ी के लिए ‘कजरारे-कजरारे तेरे कारे-कारे नैना’ लिखते हैं तो उसमें भी एक शायर मन को यह कहने से नहीं रोक पाते कि ‘तेरी बातों में किमाम की खुशबू है, तेरा आना भी गर्मियों की लू है’। 

दरअसल गुलज़ार ने जितनी भी रचनाएं लिखी हैं वे सभी सार्थकता को मूर्त रूप देते हैं, उनमें ऐसा अक्स उभरता है जो भावनाओं के विस्तार में गोता लगाती नजर आती है। फिल्मों  के लिए लिखते समय उनके भाव सहजता को संजाए रहता है। यानि फिल्मों  में संगीत की जो अनुकूल प्रभाव की जरूरत होती है, कहानी के बीच में गानों की जो   प्रासंगिकता होती है उसे गुलज़ार के गीतों ने और ज्यादा सार्थक बना दिया है। उनकी गीतों से गुजरते हुए यह एहसास होता है कि उनमें एक अल्हड़पन है जो कभी पड़ोसी के चूल्हे से आग मांगने को कहता है तो कभी कहता है कि ‘गोली मार भेजे में, भेजा शोर करता है’। लेकिन जब वे कहते हैं कि ‘इतना लम्बा कश लो यारों, दम निकल जाए, जिन्दगी सुलगाओ यारो, गम निकल जाए’। तो इतना साफ हो जाता है कि वे जिन्दगी को हर तरह से जीने का भाव देते हैं और उन भावों को शायरी की शक्ल में ढाल देना ये तो गुलज़ार की खासियत है। और इतना ही नहीं जिस तरह वे जिंदगी को समझते हैं उसी तरह मौत को भी एक कविता समझते हैं जैसे ‘मौत तू एक कविता है, मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको’। 
बहरहाल गुलज़ार ने जो बात कही और जो नज़्म लिखे चाहे वे लफ्जों , प्रतीकों और प्रसंग के हिसाब से सार्थकता बैठाने में जो भी मुश्किलें पैदा करते हों लेकिन असल में वे एक कोशिश है जो जिन्दगी की जद्दोजहद से जूझने का सलीका बताती है। इस पुस्तक के बारे में लिखते समय शब्द बेशक कम पड़ जाते हैं लेकिन गुलजार के नज्मों की विवेचना कम नहीं होती। विनोद खेतान की यह पुस्तक गुलजार के लिखे गए गीतों का एक विश्लेषित रूप है। यहां लेखक की तारीफ करना होगा कि उन्होंने गुलज़ार साहब के गीतों का सूक्ष्म और गहनता से अध्ययन किया और जैसा कि उन्होंने  कहा भी है कि ये पुस्तक गुलज़ार के गानों को समझने की कोशिश में लिखी गई है।


AMAR BHARTI (HINDI DAILY)
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Saturday, 19 January 2013

भारत का साप्ताहिक इतिहास


पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय

वरिष्ठ पत्रकार शशि शेखर की यह पुस्तक ‘मिटता भारत बनता इंडिया’ एक ऐसे समसामयिक लेखों का संग्रह है जो सर्वकालीन परिवेश का जीवंत उदाहरण है जिसमें राजनीति और प्रशासन की दुरवस्थाओं के बीच मिटते भारत और बनते इंडिया को दर्शाया गया है। लेकिन ये इंडिया नकारात्मक न होकर शशि शेखर की सकारात्मक सोच और अर्थों में पल्लिवत हो रहा था। दरअसल यह इंडिया वैश्वीकरण के कंधे  पर तो सवार है लेकिन उसने पश्चात्य सभ्यता और मॉडल की अंगुली तक नहीं पकड़ी है जो इस बात की परिचायक है कि देश जब बुनियादी निराशा में जकड़े भविष्य के प्रति नकारात्मक सोच पाल रहा था तब शशि शेखर ने अपने लेखों से विकास के नजरिए को सकारात्मक आयाम दिया और विकास को पहचानने का प्रयास किया। वैसे यह कहा जाए कि उन्होंने अपने लेखों में ‘माइक्रोजर्नलिज्म’ का परिचय दिया है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि उन्होंने अपने लेखों में साप्ताहिक होने वाली उन सभी घटनाओं पर सूक्ष्म निगाह डाली है जो कहीं-न-नहीं देश और समाज को प्रभावित करता है। दरअसल ये वो लेख हैं जिनमें साप्ताहिक इतिहास को दर्ज किया गया है और जहां जनमानस की आमचेतना का सम्पूर्ण इतिहास सुरक्षित है। इन लेखों की खास बात यह है कि ये आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जब ये लिखे गए थे। समय-समय पर लिखे गए ये लेख एक मंच प्रदान करते हैं जहां समय के साथ बहस किया जा सके, उसके साथ साक्षात्कार किया जा सके। उनके लेखों ने उदारीकरण, अर्थव्यवस्था, राजनीतिक गलियारों, वैश्विक परिस्थतियों, समेत पत्रकारिता की उठा-पटक आदि पर सूक्ष्मता से प्रकाश डाला है तभी तो वे जितनी सहजता से यह कहकर नई अर्थव्यवस्था पर चोट करते हैं कि ... आज हम उस बाजार में जा खड़े हुए हैं, जहां बाजार को हम नहीं, हमें बाजार खरीदता है। उतनी सहजता से बताते हैं कि पत्रकारिता अपने वास्तविक उद्देश्यों से किनारा कर चुकी है। हालांकि उनकी लेखनी किसी विषय विशेष की मोहताज नहीं थी जो उसका अनुकरण करे, वो तो स्वछंद थी स्वतंत्र लेखन के लिए। लेकिन साप्ताहिक घटनाक्रमों ने उन्हें पूरा मौका दिया। और उन्होंने ने भी किसी भी विषय को छुटने नहीं दिया। चाहे वो बांग्लादेश में होने वाली खूनी राष्ट्रवाद की आंधी  हो, कश्मीर में आतंक के अलाव पर संकट हो या फिर  बारूद की ढ़ेर पर बैठे पाकिस्तानी राजनीति की कहानी हो सबने उनकी लेखनी को उकसाया। उन्होंने इन मुद्दों से परे सबसे ज्यादा राजनीति पर कलम चलाया। राजनीति का यह परिवेश तमिलनाडु से लेकर कश्मीर, उत्तर प्रदेश तक पफैला हुआ था। हालांकि इस राजनीति का हिस्सा केन्द्र की नीतियां भी बनी जिसमें बजट से लेकर लोकपर्व और त्योहार शामिल हैं। 
इस पुस्तक में शामिल लेखों की परिधि यहीं समाप्त नहीं होती उन्होंने कुछ वास्तविक सम्स्यायों को भी गंभीरता से उठाया। जिसमें महिला बिल, बीमारू कहे जाने वाले राज्यों की समस्या, आतंकवाद की समस्या प्रमुखता से हावी रही हैं। हालांकि उन्होंने कुछ लेखों में अप्रत्यक्ष रूप से भी बुनियादी समस्याओं को भी उठाया है और उसमें उनके उपाय भी ढूंढ़ने का प्रयास किया है। इसके अलावा उन्होंने सदी के दशक के अंत पर उसका मूल्यांकन भी किया है जो ‘इस दशक के कुछ दुख-दर्द’ और ‘नए दशक से कुछ उम्मीदें और आशाएं’ नामक शीर्षक से शामिल हैं। इसमें से पहले लेख में जहां उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि आतंकवाद पर भारत और अमेरिका की सोच में कितना अंतर है। आतंकवाद पर अमेरिका का जुझारूपन भारत के लिए एक सबक है। आगे उन्होंने अमेरिका में हुए आर्थिक महामंदी पर भी प्रकाश डाला। हालांकि कि उन्होंने 21वीं सदी के पहले दशक को संशकित होकर देखा था। लेकिन उनके कुछ लेख इसी सदी के स्याह पक्ष में सुनहरे भविष्य की खोज करते नजर आते हैं। उनके कई लेख भारतीय समाज और राजनीति के पतन के बीच द्वंद्व करते नजर आते हैं। दरअसल वे स्पष्ट करते हैं कि जब राजनीति का धीरे-धीरे  क्षरण हो रहा है तब भारतीय समाज की चेतना एक नई उफर्जा के साथ सकारात्मक सोच को पल्लिवित कर रही है। 
इन सबके बीच शशि शेखर मध्य वर्ग को विशेष तरजीह देते नजर आते हैं। तभी तो उनकी नजर में समूचे एशिया में मध्यवर्ग बहुत तेजी से पनप रहे हैं और यही मध्यवर्ग तरक्की एक नया मार्ग प्रशस्त करते हैं क्योंकि इस वर्ग का विकास गरीबी के खिलापफ जीती हुई जंग है। बहरहाल मूल्यांकन स्वरूप शशि शेखर द्वारा लिखे गए साप्ताहिक इतिहास का यह संग्रह अपनी कुछ विशेषताओं के कारण आज भी प्रासंगिक है। इसमें शामिल सभी लेख सहज और स्पष्टवादी हैं जो दो टूक के अंदाज में प्रस्तुत होती हैं। इनमें कोई साहित्यिक गूढ़ता नहीं है बल्कि आम बोलचाल और समझ का तार्किक विवेचन है जो मानवीय संवेदना से लबरेज है। 
मिटता भारत बनता इंडियाः शशि शेखर
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.
1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग
नई दिल्ली- 110 002
कीमतः 600रु.
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Friday, 16 November 2012

स्वयं को दोहराता इतिहास

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय
 
गंधर्वसेन , शरद पगारे की लिखी हुई एक औपन्यासिक कथा है जिसमें उज्जयिनी के कर्दम वंश का इतिहास और रहस्य छिपा है। दरअसल प्रारम्भिक रूप से यह उपन्यास कर्दम वंश के राजा चित्रसेन, सामंतसेन और हरिसेन पर आधारित  लगती है लेकिन गूढ़ रूप से अध्ययन करने पर यह कर्दम वंश के शिल्पकार, राजपुरोहित, राजमित्र, मार्गदर्शक और राजमित्र विष्णुगुप्त के इर्द-गिर्द घूमती है। अगर यह कहा जाए कि ‘गंधर्वसेन’ की उज्जयिनी के कर्दम वंश के सिंहासन तक पहुंचने की यात्रा के प्रस्तोता विष्णुगुप्त हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वे कर्दम वंश के हर उस दौर के साक्षी हैं जिस दौर से कोई राजतंत्र गुजरता है। 
क्षिप्रा नदी के तट पर बसा उज्जयिनी चित्रसेन के संरक्षण और विष्णुगुप्त के नेतृत्व में एक ऐसा राज्य था जो अपनी सुख और समृधि  पर इठलाता था, जहां क्षिप्रा युग-युगांतर से कर्दम वंश के राजाओं के पांव पखारती चली आ रही है, जहां घाटों, मंदिरों, देवालयों और शिवालयों में रसिकों, भक्तों, तीर्थयात्रियों की चहल-पहल से पूरा साम्राज्य मुखरित हो उठता था और इन सबसे परे स्थितप्रज्ञ योगी सा खड़ा था कर्दम वंश का प्रासाद, जो अपनी भव्य, गौरवमयी और यशस्वी इतिहास तथा प्रतापी राजाओं की परम्परा की नींव पर टिका था। लेकिन ‘गंधर्वसेन’ का कथानक भी एक परम्परागत शैली का आवरण ओढे़ एक राजतंत्रात्मक व्यवस्था का अप्रतिम उदाहरण बन गया है। राजव्यवस्था की इतिहास की परम्परा और उसकी विलासितापूर्ण जीवन शैली की पृष्ठभूमि पर आधारित  यह उपन्यास इतिहास लेखन श्रेणी की ऐसी कृति है जिसे लेखक ने बड़ी खूबसूरती से पेश किया है। 
शरद पगारे की यह पुस्तक ‘गंधर्वसेन’ के कर्दम वंश की गद्दी पर बैठने की कहानी है जिसे लेखक ने परिस्थिति, पात्रों, और कसी हुई भाषा को आधार  बनाकर एक अनुपम और पठनीय बना दिया है। जहां तक इस उपन्यास के कथानक की रचावट और बनावट की बात है तो लेखक ने कथानक के माध्यम से सभी पात्रों को सशक्त और प्रभावी बना दिया है। इसमें जीवित पात्रों के अलावा क्षिप्रा नदी को भी एक प्रमुख पात्र के रूप में प्रस्तुत की गई है, क्योंकि लेखक का कोई भी वर्णन बिना क्षिप्रा नदी के पूर्ण नहीं होती। इस पुस्तक में कथानक के बाद सबसे सबल पक्ष है इसकी भाषा। लेखक इस उपन्यास को भाषायी तौर पर सुदृढ़ बनाने के लिए जिस तरह अलंकारिक भाषाओं का प्रयोग किया है वो इसकी भाव प्रवणता को सम्पूर्ण आकार देता है और औपन्यासिक श्रृंखला में एक नया अध्याय जोड़ता है। अगर इस उपन्यास को कथानक के परे अवलोकित करें तो निश्चय ही भाषायी आधर पर एक अलग ही स्थान हासिल होगा। लेकिन लेखक उपन्यास लेखन की सभी विधाओं  के समुचित स्त्रोत को संतुलित रूप से पेश किया है जिसमें पुत्र वात्सल्य, राजप्रेम, छल-प्रपंच, राजद्रोह की भावना, आवेग आदि शामिल हैं, उपन्यास के विकासक्रम में समय-समय पर अपनी स्थिति स्पष्ट करते हैं। कुल मिलाकर ‘गंधर्वसेन’ के सत्तासीन होने की यात्रा  में कई कहानियां जुड़ती चली जाती हैं चाहे वो चित्रसेन की पृथक कहानी हो, सामंतसेन और उनकी भार्या द्वारा अपने ममत्व को त्याग कर दासी पुत्र हरिसेन को स्वपुत्र के रूप में पोषण करना हो या फिर  उसी हरिसेन के धीवरवंश  की कन्या श्यामली के प्रणयपाश में बंधकर  राजप्रासाद त्याग कर निर्वसन और अंत में मौत को अलिंगन कर अपने अपने पुत्रा गंधर्वसेन को अनाथ एक पड़ोसी के साथ छोड़ देने की कहानी हो, ये सभी पल गंधर्वसेन को उज्जयिनी की सत्ता के करीब पहुंचाते  हैं और इसी यात्रा की अप्रतिम व्याख्या   शरद पगारे ने अपने भाव प्रवणता और शाब्दिक विस्तार से किया है। 
गंधर्वसेन: शरद पगारे
वाणी प्रकाशन
4695, 21ए
दरियागंज, नई दिल्ली-02
मूल्यः 150 रु.

Friday, 2 November 2012

विस्मयकारी दुनिया से एक परिचय

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय
यतीन्द्र मिश्रा की लिखी यह पुस्तक ‘विस्मय का बखान’ कला के विभिन्न स्वरूपों और उनकी उपस्थितियों का सार है। यहां लेखक ने कला के विभिन्न रूपों पर एकाग्र होकर लेखनी को केन्द्रित किया है। कला के विभिन्न रूपों और लेखक द्वारा लिखे गए डायरियों, स्मृतियों, कला और कलाकारों की दुनिया तथा उनकी यात्रा का ‘विस्मय बखान’ है जो कला-यात्रा के प्रभावों की स्नेहिल स्पर्श तथा साहित्य और संस्कृति के समाज में कुछ जोश तथा जिज्ञासा के साथ समकालीनता का तारतम्य बैठाने का प्रयास है। मूलरूप से यह पुस्तक लेखक के पिछले कुछ सालों में समय-समय पर पत्रा-पत्रिकाओं में कलाओं पर लिखे गए निबन्धें का एक संचयन है जो बिना किसी कालक्रम की अवधरणा के तिथिवार प्रस्तुत किए गए हैं। लेखक ने इस पुस्तक को इस मायने में खास और रोचक बना दिया है कि पुस्तक लेखन के समय कला के विभिन्न मूर्धन्यों  और उनके बारे में लिखे गए स्मृति लेखों को भी सम्मिलित किए गए हैं जो इस पुस्तक को और ज्यादा पठनीय बनाते हैं। लेखक द्वारा लिखे गए तिथिवार डायरी, कला के विभिन्न रूपों पर जमे गर्द को साफ करने का कार्य करता है। चाहे वो शास्त्रीय  संगीत का क्षेत्रा हो, हुसैन की पेंटिग्स कला हो, लता मंगेश्कर की दैवीय आवाज हो या फिर साहिर लुधियानवी  द्वारा लिखे गए वो गाने हों जो जिन्दगी के मेलोड्रामा, प्रेम और विरह के बीच का अर्न्तद्वन्द्व, जंग और अमन, परिवार, समाज तथा राजनीति के विभिन्न भावालोकों से संवाद कराते हैं। ये सभी विषय इस संचयन का हिस्सा बनते हैं। 
इस संचयन खंड से जब बाहर निकलते हैं तो लेखक ने कला के विभिन्न रूपों के बहाने संगीत के विभिन्न शैलियों से रूबरू कराया है जिसे भाषा की निजी व स्वायत उपस्थिति ने उसे सम्पूर्ण आलोकित कर दिया है। लेखक ने भाषा का इस्तेमाल इस रूप में किया है कि कला के आवरण में कोई भी परिवर्तन या उतार-चढाव  हस्तक्षेप नहीं कर पाते हैं। हालांकि लेखक ने भाषा और कला के बीच के अंतर को भी स्पष्ट किया है। इस संचयन में  संगीत के एक ऐसे आवरण का वर्णन किया गया है जो इस आशय से शुरू होता है कि ‘अगर आप पहाड़ी सुनिएगा तो जंगल में जाना पड़ेगा।’ दरअसल यह खंड संगीत के विभिन्न राग और उसके परिवेश सृजन की अप्रतिम व्याख्या है। यहां संगीत के साथ नृत्य की परम्पराओं का भी जिक्र किया गया है और यह परम्परा रामजन्म के सोहर से लेकर कृष्ण-राध की लीलाओं पर आधरित नटवरी नृत्य को समेटे हुए नवाब वाजिद अली शाह की रास और कथक से मिलता एक नृत्य ‘रहस’ तक पहुंचती है और बड़ी तल्लीनता से बताती है कि संगीत और नृत्य के इस यात्रा में कितने संयोजन, राग-रागिनियों, श्रृंगारिक अभिव्यक्तियों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। लेखक ने अवध् के संगीत और उसकी परम्परा का बड़ी तसल्ली से जिक्र किया है। दरअसल यह अवधी  संगीत का व्यापक आवरण है जो अवध् के सन्तों, कवियों, गायकों, तवायफों, कथिकों, कीर्तन मंडलियों, नवाबों, वाग्गेयकारों एवं घरानों को समाहित किए हुए है। अवध् के संगीत की विशेषता यह है कि संगीत के तमाम उतार-चढावों के बावजूद शास्त्रीय य संगीत मुख्यधरा में बना रहा। इस क्षेत्र खंड की जितनी भी गायन और नृत्य की उपधराएं रहीं, उन्होंने एक समय विशेष में ख्यातिलब्ध  हुईं और वे धीरे धीरे  इतिहास का अंग बन गईं। इससे जब बाहर निकलते हैं तो हिन्दी फिल्म के आरम्भिक दौर और संगीत तथा नृत्य के आलोक में बाईयों के काल में प्रवेश करते हैं जहां फिल्मों  में संगीत के प्रारम्भिक दौर का विश्लेषण किया गया है साथ ही तत्कालीन समाज और राजघरानों के सांगितिक यात्रा का  भी वर्णन किया गया है। लेखक ने तवायफों और बाईयों के उस दौर का जिक्र किया है जब पिफल्मी दुनिया में उनके संगीत और नृत्यों का दबदबा सर्वाधिक था। लेकिन यहां यह भी स्पष्ट है कि सिनेमा के बदलते दौर ने उन्हें गुमनामी के स्याह गर्त में धकेल  दिया। पुस्तक के आखिरी खंड में स्मरण के रूप में पं मल्लिकार्जुन मंसूर, उस्ताद अमीर खां, पं कुमार गन्धर्व  पं भीमसेन जोशी, शैलेन्द्र और निर्मल वर्मा से जुड़ी कुछ यादें है जिसे लेखक ने आधार  बनाकर अपनी भावनाओं को मूर्त रूप दिया है। कला और साहित्य के बहाने इन मूर्धन्य  वाग्गेयकारों के कला सम्बन्धी  विचारों और सरोकारों को एक नए ढंग से देखने का जतन किया है। अंत में ‘रसन पिया’ शीर्षक से लिखी गई कविता जो ग्वालियर घराने के ख्याल गायक उस्ताद अब्दुल रशीद खां को समर्पित है। दरअसल इस कविता से पुस्तक एक समग्रता को हासिल करती है। यतीन्द्र मिश्र ने इस पुस्तक के माध्यम से संगीत, नृत्य, साहित्य, सिनेमा आदि विमर्श के सहारे कलाकारों, वाग्गेयकारों, कवियों, लेखकों नर्तकियों के संस्मरणों और उनसे हुए संवादों को आधार बनाकर एक विस्मयकारी संसार का बखान किया है। 

विस्मय का बखानः यतीन्द्र मिश्र
वाणी प्रकाशन
4695, 21ए, दरियागंज
नई दिल्ली-110 002
मूल्यः 395रु.

Saturday, 20 October 2012

नई सोच के साथ एक गंभीर पहल

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय 
नाट्य विधा  की पारम्परिक संरचना, शैली से परे रवीन्द्र भारती की यह पुस्तक ‘अगिन तिरिया’ एक अलग ही भावालोक और मानक स्थापित करती है। यह रचना एक ऐसा आवरण प्रस्तुत करती है जिसमें साहित्य के विभिन्न आयामों यथा भाषा, शैली, और रचाव को आधार  बनाया गया है। दरअसल रवीन्द्र भारती अपनी नाट्य कृति की परम्परागत शैली और प्रस्तुति से अलग ही पहचान बनाए हुए हैं। लेकिन इस रचना में उन्होंने उस परम्परा से पृथक एक अद्भुत पृष्ठभूमि पर अपने भाव व्यक्त किए हैं जिसमें परम्परागत पात्रों की जगह कुछ ऐसे पात्र हैं जो नाट्य शिल्प से सर्वदा अनभिज्ञ हैं फिर  भी रवीन्द्र भारती ने उन पात्रों को संवेदना और भाव देकर इतना परिपुष्ट कर दिया है कि वे नाट्य कृति की परम्परागत शैली से एकाकार हो जाते हैं। फिर एक ऐसे नाट्य साहित्य की रचना होती है जिसके गर्भ में छिपा है एक लम्बा संघर्ष, सामाजिक जटिलता, लोक परम्परा की नकारात्मक वृत्ति और इसके आलोक में पनपने वाली रूढ़िवादिता। इसमें एक ऐसी रचाव और बनावट है जिसमें देशी और आंचलिक भाषाएं एक अलग ही भाव के साथ प्रस्तुत होती हैं जिससे इसमें एक लचीलापन, लोकरंजिता और सांकेतिक नाटकीयता आ जाती है। तीन अंकों और बीस दृश्यों में समाहित यह नाटक कुछ ऐसे दृश्यों के साथ शुरू होता है जिसमें एक समाज का चरित्र चित्रण है जहां समाज दास और स्वामी, बुर्जुआ और सर्वहारा तथा शोषक और शोषित वर्ग के मार्क्सवादी विचार में विचरण कर रहा है, जहां सभ्यता ने अपने विकास के क्रम में पहले से शोषित, दलित और बेबस लोगों को गर्त में ध्केल दिया है। दरअसल यह संघर्षगाथा  है हाशिए पर जी रहे बहिष्कृत कुलांगार और सर्वभोगी तथा सर्वसुविधा  पर कुंडली मारकर बैठे अग्नि-कुटुम्ब समाज के बीच की।
 नाटक का दूसरा अंक लोकतांत्रिक समाज के उस पहलू पर प्रकाश डालता है जहां हत्या की संस्कृति पनपती है और विश्व सत्ता उसे पोषित करती है। इस अंक में दृश्यों में एक सांकेतिक अर्थ छिपा है जिसमें यह दर्शाया गया है कि प्रेम की हत्या करने वाली व्यवस्था सर्वदा आतंक की आगोश में पोषित होती है। दरअसल यह नाट्य खंड लोकतांत्रिक समाज और अपने अस्तित्व को बचाए रखने के संघर्ष को दृश्यांकित करता है। इसमें दो वर्गों के बीच का प्रतिद्वन्द्व है जिसमें एक वर्ग तानाशाह, पाखंड, शोषक, हत्यारा, सम्पतिशोषक, ज्ञान और आलोक वर्ग का प्रतिनिधित्व  करता है जो सुविधाहीन , शोषित, निरीह वर्ग का शोषण करता है। ये अपने साम्राज्य के आलोक में इतने प्रतिहिंसक हैं कि कोयल की सांकेतिक बोली भी इन्हें चुनौती लगती है और वे उस सुर मल्लिका की गर्दन मरोड़ने से नहीं चूकते। दरअसल यह अंक उस बुर्जुआ वर्ग के साम्राज्यवादी नीति की परिचायक है जहां मानवता दम तोड़ देती है। 
नाटक का तीसरा अंक एक ऐसी सत्ता का दृश्यांकन है जहां अग्नि के ताप, आलोक दृष्टि, साहस, शक्ति ऐसे तमाम गुणों का आवरण ओढ़कर  श्रेष्ठी समाज धर्म  और आतंक का साम्राज्य स्थापित कर चुका है। वे इतने दंभी हैं कि इसके आलोक में संशकित होकर भी आलोकित हो रहे हैं। इस अंक के कुछ दृश्यों में अनुचरों की गुलामी के विद्रुप, विकृति और कुत्सित भावों का समावेश है जिसे देखकर समाज का श्रेष्ठी गुदगुदाता है। ये श्रेष्ठी (शोषक वर्ग) ऐसे चरित्र का प्रतिनिधत्व  करते हैं जो अपने अनुचरों की असामयिक या अकाल मृत्यु को प्रिय खेल समझते हैं और उसका जश्न मनाते हैं। लेकिन नाटक आखिरी दृश्य के बदलाव, जागृति, रूढ़िवादी परम्परा के अवसान का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है जब शोषित वर्ग की चेतना जाग उठती है और सामाजिक पूर्वाग्रहों और गुलामी की बेड़ियों से उन्मुक्त हो जाता है और फिर  एक नियति बन चुके घने तिमिर से बाहर एक नई रोशनी में आंखें खोलता है। 
बहरहाल नाटककार रवीन्द्र भारती अपनी इस रचना ‘अगिन तिरिया’ के साथ एक अनोखा लेकिन सार्थक और सफल प्रयास किया है। उन्होंने जिस प्रासंगिकता, विषयवस्तु, योजना को उठाया है वो उनके लोकरंजक पात्र, भाषिक योजना, क्षेत्रीय  और देशी शब्दावली के सफल और सटीक समावेशन से और प्रभावी हो जाते हैं। जहां तक इसके मंचन और प्रस्तुति की बात है तो परम्परागत और नियमित नाटक शैली से परे इसमें गम्भीरता है। इस नाटक की भाषायी योजना ने इसे मंचकों और निर्देशकों के सामने एक चुनौती बना दिया है। लेकिन इतना भी अवश्यम्भावी है कि यह नाटक अपने मंचन से एक नई परम्परा को जरूर परिभाषित करेगा। 
 
अगिन तिरियाः रवीन्द्र भारती
राधाकृष्ण  प्रकाशन प्रा. लि.
7/31, अंसारी मार्ग,  दरियागंज-02
कीमतः 200रु.

Sunday, 14 October 2012

‘दस्तक’ चुपके से

पुस्तक समीक्षा, अजय पाण्डेय
यशोदा सिंह की ‘दस्तक’ साहित्य सृजन के लिए एक ऐसी नजीर है जिसे उनके बाद की पीढ़ी इसे पोषित और संचित कर हिन्दी साहित्य को औरसमृद्ध करेंगी। उनकी ‘दस्तक’ को प्रथम सोच और समझ से परे न तो संस्मरण माना जा सकता है और न ही रेखाचित्र या फिर  डायरी। यह तो इंसानी कहानी है जिसके केन्द्र में एक अविस्मरणीय पात्र ‘हसीना खाला’ है। हसीना खाला एक ऐसी किरदार है जो आम समाज और दैनंदिन की जिन्दगी में हमारा एक अभिन्न हिस्सा बन जाती है और फिर  चल पड़ता लिखने का एक सिलसिला। ‘दस्तक’ की सूत्राधार हसीना खाला के साथ चलने वाली कहानी दरअसल कई जिंदगियों और किरदारों को आपस में जोड़ता है और उसे समाज से रूबरू कराता है। हसीना खाला की कहानी एक ऐसी दुनिया में पल्लवित होती है जहां ‘दस्तक’ देने के लिए ऐसे रास्तों से गुजरना पड़ता है जहां पानी के लिए लम्बी लाइन में लोग अहले सुबह से खड़े होते हैं, जहां दो लोग खड़े हो जाएं तो रास्ता बंद हो जाता है, जहां पानी गिरने से कीचड़ भर जाता है, जहां मुहल्ले की बूढ़ी औरतें राशन न मिलने से राशनवाले को पानी पी-पीकर कोसती हैं, जहां पड़ोस वाली बाजी की नई नवेली बहू जब दाल को छौंक-बघारती है तो बूढ़ी खाला का खांसते-खांसते दम निकल जाता है। फिर जाकर हसीना खाला की कहानी की परिधि तक पहुंचा जा सकता है। लेकिन बावजूद इसके हसीना खाला के व्यक्त्वि को आसानी से नहीं समझा जा सकता। ‘दस्तक’ को पढ़ते हुए हसीना खाला के बारे में अन्तःमन में एक जिज्ञासा पनपती है कि वे कौन हैं? उनका परिचय क्या है? पिफर ऐसा लगता है कि कहीं ये यशोदा सिंह की परिकल्पना की कोई पात्र तो नहीं, लेकिन अगले ही क्षण उनका व्यक्त्वि एहसास दिलाता है कि दरअसल हसीना खाला को किसी एक पात्रा की परिधि में समेटा ही नहीं जा सकता। वो तो ‘हॉस्पिटल ऑन फुट’, ‘काउंसिलर ऑन डिमांड’, ‘सफल जीवन जीने के सहज नुस्खे की जीती जागती प्रतिमूर्ति’ और मानवता को अपनी बूढ़ी और एकाकी कंधें पर ढ़ोने वाली शांति स्वरूपा है, जो ‘नाफ उतारते’ समय उतनी ही ममत्व दिखाती है जितना राशन के न मिलने के पीछे होने वाली सियासत के विरूद्ध  प्रखरता। दरअसल हसीना खाला अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में कई चरित्रों को जीवंत करती है। यह महज इत्तेफाक या लेखिका के मन की परिकल्पना नहीं है कि अपने मुहल्ले में रहते हुए संवेदना, अपनत्व और ममत्व की डोर से बंधी  हसीना खाला का जीवन कितना एकाकी है। उनके मन में भी एक कसक है, सूनापन है जो गाहे-बगाहे उनके अकेलेपन में ‘दस्तक’ दे जाता है चुपके से। अपने अन्य चरित्र में मूर्त होते हुए हसीना खाला एक और कथांश का पटाक्षेप करती है। उन्हें इस बात का इल्म है कि देश में राजनीति का स्तर क्या है और राजनीतिक दलों ने आम लोगों को कितना बेवकूफ बनाया है। उन्हें सब पता है कि कांग्रेस ने कितनी अनियमितताएं की हैं और भाजपा तो लाला और बनियाओं का ही पेट भरती रही है। ऐसे में हसीना खाला का चरित्र और भी सशक्त हो जाता है जब उन्हें ‘गाँधी’ की असलियत और उसकी ताकत का एहसास हो जाता है। बावजूद इसके हसीना खाला की जिन्दगी कभी रूकती नहीं। लेकिन उनके जीवन में एक ठहराव है, जहां वो जिंदगी के कारोबार में तमाम सिलवटों के बाद भी इत्मीनान की जीवन जी रही हैं। उनके चेहरे पर उफ और बेबसी का लेसमात्र अंश नहीं है। दरअसल हसीना खाला की शख्सियत एक ऐसी पहेली है जिसे समझने और बुझने के लिए उनकी दुनिया और बस्ती का एक हिस्सा बनना पड़ेगा। नहीं तो हसीना खाला जैसे पात्र हमारे रोजमर्रा की भागमभाग जीवन से कब निकल जाएगी और हमें एहसास तक नहीं होगा। और हम एक ऐसे दर्शन से महरूम रह जाएंगे जो हमारे जीवन का सबसे बड़ा फलसफा है। पुस्तक के दूसरे पहलू अर्थात् जब इसके सृजन और भाषा की बात करते हैं तो ‘दस्तक’ कहानी, रेखाचित्र, कथा-बिम्ब, संस्मरण और डायरी इन तमाम विधाओं  की परिभाषा से परे एक अलग ही रचना की पृष्ठभूमि तैयार करती है। ‘दस्तक’ के सृजन के भी दो पहलू हैं जिसमें अव्वल तो इसकी शैली ही है जो पुस्तक के तमाम कथांशों को पढ़ते या इनसे गुजरते वक्त ये एहसास कराते हैं कि यशोदा सिंह अपनी स्मृतियों और वर्तमान के मानस पटल को एकाकार करते हुए उसमें गोता लगा रही हैं। ‘दस्तक’ किसी परम्परागत लेखन शैली, किताबी भाषा, शैलीगत कसावट की परिधि से  बाहर एक ऐसी प्रस्तुति है जो जीवन के तमाम सिलवटों और उसकी बनावटी एहसासों में रहते हुए संभावनापूर्ण साहित्य सृजन का एक मानक प्रस्तुत करती है। ‘दस्तक’ का दूसरा पहलू यह जानना है कि इसे साहित्य सृजन की किसी श्रेणी मे रखा जाए, परन्तु हसीना खाला के व्यक्त्वि को पढ़कर यह स्पष्ट भी हो जाता है कि ‘दस्तक’ को निश्चित परम्परा में समेटना उचित नहीं। क्योंकि ‘यहां न तो कोई सनसनी है और न ही कोई मिर्च-मसाला।’ यहां तो बस एक वृतांत है जिसमें इत्मीनान है, एक ठहराव है। ‘दस्तक’ स्मृतियों का एक ऐसा कैनवास है जिस पर कई छवियों को उनकी भूमिका के अनुसार उकेरा गया है। भाषा के दृष्टिकोण से यह उर्दू-हिन्दी की हिन्दुस्तानी जुबां है जो परम्परागत होते हुए भी सहज और सरल है। 
 
दस्तकः यशोदा सिंह
वाणी प्रकाशन
4695ए 21-ए, दरियागंज
नई दिल्ली- 110 002 
मूल्यः 175रु.