Sunday 14 October 2012

‘दस्तक’ चुपके से

पुस्तक समीक्षा, अजय पाण्डेय
यशोदा सिंह की ‘दस्तक’ साहित्य सृजन के लिए एक ऐसी नजीर है जिसे उनके बाद की पीढ़ी इसे पोषित और संचित कर हिन्दी साहित्य को औरसमृद्ध करेंगी। उनकी ‘दस्तक’ को प्रथम सोच और समझ से परे न तो संस्मरण माना जा सकता है और न ही रेखाचित्र या फिर  डायरी। यह तो इंसानी कहानी है जिसके केन्द्र में एक अविस्मरणीय पात्र ‘हसीना खाला’ है। हसीना खाला एक ऐसी किरदार है जो आम समाज और दैनंदिन की जिन्दगी में हमारा एक अभिन्न हिस्सा बन जाती है और फिर  चल पड़ता लिखने का एक सिलसिला। ‘दस्तक’ की सूत्राधार हसीना खाला के साथ चलने वाली कहानी दरअसल कई जिंदगियों और किरदारों को आपस में जोड़ता है और उसे समाज से रूबरू कराता है। हसीना खाला की कहानी एक ऐसी दुनिया में पल्लवित होती है जहां ‘दस्तक’ देने के लिए ऐसे रास्तों से गुजरना पड़ता है जहां पानी के लिए लम्बी लाइन में लोग अहले सुबह से खड़े होते हैं, जहां दो लोग खड़े हो जाएं तो रास्ता बंद हो जाता है, जहां पानी गिरने से कीचड़ भर जाता है, जहां मुहल्ले की बूढ़ी औरतें राशन न मिलने से राशनवाले को पानी पी-पीकर कोसती हैं, जहां पड़ोस वाली बाजी की नई नवेली बहू जब दाल को छौंक-बघारती है तो बूढ़ी खाला का खांसते-खांसते दम निकल जाता है। फिर जाकर हसीना खाला की कहानी की परिधि तक पहुंचा जा सकता है। लेकिन बावजूद इसके हसीना खाला के व्यक्त्वि को आसानी से नहीं समझा जा सकता। ‘दस्तक’ को पढ़ते हुए हसीना खाला के बारे में अन्तःमन में एक जिज्ञासा पनपती है कि वे कौन हैं? उनका परिचय क्या है? पिफर ऐसा लगता है कि कहीं ये यशोदा सिंह की परिकल्पना की कोई पात्र तो नहीं, लेकिन अगले ही क्षण उनका व्यक्त्वि एहसास दिलाता है कि दरअसल हसीना खाला को किसी एक पात्रा की परिधि में समेटा ही नहीं जा सकता। वो तो ‘हॉस्पिटल ऑन फुट’, ‘काउंसिलर ऑन डिमांड’, ‘सफल जीवन जीने के सहज नुस्खे की जीती जागती प्रतिमूर्ति’ और मानवता को अपनी बूढ़ी और एकाकी कंधें पर ढ़ोने वाली शांति स्वरूपा है, जो ‘नाफ उतारते’ समय उतनी ही ममत्व दिखाती है जितना राशन के न मिलने के पीछे होने वाली सियासत के विरूद्ध  प्रखरता। दरअसल हसीना खाला अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में कई चरित्रों को जीवंत करती है। यह महज इत्तेफाक या लेखिका के मन की परिकल्पना नहीं है कि अपने मुहल्ले में रहते हुए संवेदना, अपनत्व और ममत्व की डोर से बंधी  हसीना खाला का जीवन कितना एकाकी है। उनके मन में भी एक कसक है, सूनापन है जो गाहे-बगाहे उनके अकेलेपन में ‘दस्तक’ दे जाता है चुपके से। अपने अन्य चरित्र में मूर्त होते हुए हसीना खाला एक और कथांश का पटाक्षेप करती है। उन्हें इस बात का इल्म है कि देश में राजनीति का स्तर क्या है और राजनीतिक दलों ने आम लोगों को कितना बेवकूफ बनाया है। उन्हें सब पता है कि कांग्रेस ने कितनी अनियमितताएं की हैं और भाजपा तो लाला और बनियाओं का ही पेट भरती रही है। ऐसे में हसीना खाला का चरित्र और भी सशक्त हो जाता है जब उन्हें ‘गाँधी’ की असलियत और उसकी ताकत का एहसास हो जाता है। बावजूद इसके हसीना खाला की जिन्दगी कभी रूकती नहीं। लेकिन उनके जीवन में एक ठहराव है, जहां वो जिंदगी के कारोबार में तमाम सिलवटों के बाद भी इत्मीनान की जीवन जी रही हैं। उनके चेहरे पर उफ और बेबसी का लेसमात्र अंश नहीं है। दरअसल हसीना खाला की शख्सियत एक ऐसी पहेली है जिसे समझने और बुझने के लिए उनकी दुनिया और बस्ती का एक हिस्सा बनना पड़ेगा। नहीं तो हसीना खाला जैसे पात्र हमारे रोजमर्रा की भागमभाग जीवन से कब निकल जाएगी और हमें एहसास तक नहीं होगा। और हम एक ऐसे दर्शन से महरूम रह जाएंगे जो हमारे जीवन का सबसे बड़ा फलसफा है। पुस्तक के दूसरे पहलू अर्थात् जब इसके सृजन और भाषा की बात करते हैं तो ‘दस्तक’ कहानी, रेखाचित्र, कथा-बिम्ब, संस्मरण और डायरी इन तमाम विधाओं  की परिभाषा से परे एक अलग ही रचना की पृष्ठभूमि तैयार करती है। ‘दस्तक’ के सृजन के भी दो पहलू हैं जिसमें अव्वल तो इसकी शैली ही है जो पुस्तक के तमाम कथांशों को पढ़ते या इनसे गुजरते वक्त ये एहसास कराते हैं कि यशोदा सिंह अपनी स्मृतियों और वर्तमान के मानस पटल को एकाकार करते हुए उसमें गोता लगा रही हैं। ‘दस्तक’ किसी परम्परागत लेखन शैली, किताबी भाषा, शैलीगत कसावट की परिधि से  बाहर एक ऐसी प्रस्तुति है जो जीवन के तमाम सिलवटों और उसकी बनावटी एहसासों में रहते हुए संभावनापूर्ण साहित्य सृजन का एक मानक प्रस्तुत करती है। ‘दस्तक’ का दूसरा पहलू यह जानना है कि इसे साहित्य सृजन की किसी श्रेणी मे रखा जाए, परन्तु हसीना खाला के व्यक्त्वि को पढ़कर यह स्पष्ट भी हो जाता है कि ‘दस्तक’ को निश्चित परम्परा में समेटना उचित नहीं। क्योंकि ‘यहां न तो कोई सनसनी है और न ही कोई मिर्च-मसाला।’ यहां तो बस एक वृतांत है जिसमें इत्मीनान है, एक ठहराव है। ‘दस्तक’ स्मृतियों का एक ऐसा कैनवास है जिस पर कई छवियों को उनकी भूमिका के अनुसार उकेरा गया है। भाषा के दृष्टिकोण से यह उर्दू-हिन्दी की हिन्दुस्तानी जुबां है जो परम्परागत होते हुए भी सहज और सरल है। 
 
दस्तकः यशोदा सिंह
वाणी प्रकाशन
4695ए 21-ए, दरियागंज
नई दिल्ली- 110 002 
मूल्यः 175रु.

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