Saturday 19 January 2013

भारत का साप्ताहिक इतिहास


पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय

वरिष्ठ पत्रकार शशि शेखर की यह पुस्तक ‘मिटता भारत बनता इंडिया’ एक ऐसे समसामयिक लेखों का संग्रह है जो सर्वकालीन परिवेश का जीवंत उदाहरण है जिसमें राजनीति और प्रशासन की दुरवस्थाओं के बीच मिटते भारत और बनते इंडिया को दर्शाया गया है। लेकिन ये इंडिया नकारात्मक न होकर शशि शेखर की सकारात्मक सोच और अर्थों में पल्लिवत हो रहा था। दरअसल यह इंडिया वैश्वीकरण के कंधे  पर तो सवार है लेकिन उसने पश्चात्य सभ्यता और मॉडल की अंगुली तक नहीं पकड़ी है जो इस बात की परिचायक है कि देश जब बुनियादी निराशा में जकड़े भविष्य के प्रति नकारात्मक सोच पाल रहा था तब शशि शेखर ने अपने लेखों से विकास के नजरिए को सकारात्मक आयाम दिया और विकास को पहचानने का प्रयास किया। वैसे यह कहा जाए कि उन्होंने अपने लेखों में ‘माइक्रोजर्नलिज्म’ का परिचय दिया है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि उन्होंने अपने लेखों में साप्ताहिक होने वाली उन सभी घटनाओं पर सूक्ष्म निगाह डाली है जो कहीं-न-नहीं देश और समाज को प्रभावित करता है। दरअसल ये वो लेख हैं जिनमें साप्ताहिक इतिहास को दर्ज किया गया है और जहां जनमानस की आमचेतना का सम्पूर्ण इतिहास सुरक्षित है। इन लेखों की खास बात यह है कि ये आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जब ये लिखे गए थे। समय-समय पर लिखे गए ये लेख एक मंच प्रदान करते हैं जहां समय के साथ बहस किया जा सके, उसके साथ साक्षात्कार किया जा सके। उनके लेखों ने उदारीकरण, अर्थव्यवस्था, राजनीतिक गलियारों, वैश्विक परिस्थतियों, समेत पत्रकारिता की उठा-पटक आदि पर सूक्ष्मता से प्रकाश डाला है तभी तो वे जितनी सहजता से यह कहकर नई अर्थव्यवस्था पर चोट करते हैं कि ... आज हम उस बाजार में जा खड़े हुए हैं, जहां बाजार को हम नहीं, हमें बाजार खरीदता है। उतनी सहजता से बताते हैं कि पत्रकारिता अपने वास्तविक उद्देश्यों से किनारा कर चुकी है। हालांकि उनकी लेखनी किसी विषय विशेष की मोहताज नहीं थी जो उसका अनुकरण करे, वो तो स्वछंद थी स्वतंत्र लेखन के लिए। लेकिन साप्ताहिक घटनाक्रमों ने उन्हें पूरा मौका दिया। और उन्होंने ने भी किसी भी विषय को छुटने नहीं दिया। चाहे वो बांग्लादेश में होने वाली खूनी राष्ट्रवाद की आंधी  हो, कश्मीर में आतंक के अलाव पर संकट हो या फिर  बारूद की ढ़ेर पर बैठे पाकिस्तानी राजनीति की कहानी हो सबने उनकी लेखनी को उकसाया। उन्होंने इन मुद्दों से परे सबसे ज्यादा राजनीति पर कलम चलाया। राजनीति का यह परिवेश तमिलनाडु से लेकर कश्मीर, उत्तर प्रदेश तक पफैला हुआ था। हालांकि इस राजनीति का हिस्सा केन्द्र की नीतियां भी बनी जिसमें बजट से लेकर लोकपर्व और त्योहार शामिल हैं। 
इस पुस्तक में शामिल लेखों की परिधि यहीं समाप्त नहीं होती उन्होंने कुछ वास्तविक सम्स्यायों को भी गंभीरता से उठाया। जिसमें महिला बिल, बीमारू कहे जाने वाले राज्यों की समस्या, आतंकवाद की समस्या प्रमुखता से हावी रही हैं। हालांकि उन्होंने कुछ लेखों में अप्रत्यक्ष रूप से भी बुनियादी समस्याओं को भी उठाया है और उसमें उनके उपाय भी ढूंढ़ने का प्रयास किया है। इसके अलावा उन्होंने सदी के दशक के अंत पर उसका मूल्यांकन भी किया है जो ‘इस दशक के कुछ दुख-दर्द’ और ‘नए दशक से कुछ उम्मीदें और आशाएं’ नामक शीर्षक से शामिल हैं। इसमें से पहले लेख में जहां उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि आतंकवाद पर भारत और अमेरिका की सोच में कितना अंतर है। आतंकवाद पर अमेरिका का जुझारूपन भारत के लिए एक सबक है। आगे उन्होंने अमेरिका में हुए आर्थिक महामंदी पर भी प्रकाश डाला। हालांकि कि उन्होंने 21वीं सदी के पहले दशक को संशकित होकर देखा था। लेकिन उनके कुछ लेख इसी सदी के स्याह पक्ष में सुनहरे भविष्य की खोज करते नजर आते हैं। उनके कई लेख भारतीय समाज और राजनीति के पतन के बीच द्वंद्व करते नजर आते हैं। दरअसल वे स्पष्ट करते हैं कि जब राजनीति का धीरे-धीरे  क्षरण हो रहा है तब भारतीय समाज की चेतना एक नई उफर्जा के साथ सकारात्मक सोच को पल्लिवित कर रही है। 
इन सबके बीच शशि शेखर मध्य वर्ग को विशेष तरजीह देते नजर आते हैं। तभी तो उनकी नजर में समूचे एशिया में मध्यवर्ग बहुत तेजी से पनप रहे हैं और यही मध्यवर्ग तरक्की एक नया मार्ग प्रशस्त करते हैं क्योंकि इस वर्ग का विकास गरीबी के खिलापफ जीती हुई जंग है। बहरहाल मूल्यांकन स्वरूप शशि शेखर द्वारा लिखे गए साप्ताहिक इतिहास का यह संग्रह अपनी कुछ विशेषताओं के कारण आज भी प्रासंगिक है। इसमें शामिल सभी लेख सहज और स्पष्टवादी हैं जो दो टूक के अंदाज में प्रस्तुत होती हैं। इनमें कोई साहित्यिक गूढ़ता नहीं है बल्कि आम बोलचाल और समझ का तार्किक विवेचन है जो मानवीय संवेदना से लबरेज है। 
मिटता भारत बनता इंडियाः शशि शेखर
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.
1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग
नई दिल्ली- 110 002
कीमतः 600रु.
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AMAR BHARTI (HINDI DAILY)
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