Friday 16 November 2012

स्वयं को दोहराता इतिहास

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय
 
गंधर्वसेन , शरद पगारे की लिखी हुई एक औपन्यासिक कथा है जिसमें उज्जयिनी के कर्दम वंश का इतिहास और रहस्य छिपा है। दरअसल प्रारम्भिक रूप से यह उपन्यास कर्दम वंश के राजा चित्रसेन, सामंतसेन और हरिसेन पर आधारित  लगती है लेकिन गूढ़ रूप से अध्ययन करने पर यह कर्दम वंश के शिल्पकार, राजपुरोहित, राजमित्र, मार्गदर्शक और राजमित्र विष्णुगुप्त के इर्द-गिर्द घूमती है। अगर यह कहा जाए कि ‘गंधर्वसेन’ की उज्जयिनी के कर्दम वंश के सिंहासन तक पहुंचने की यात्रा के प्रस्तोता विष्णुगुप्त हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वे कर्दम वंश के हर उस दौर के साक्षी हैं जिस दौर से कोई राजतंत्र गुजरता है। 
क्षिप्रा नदी के तट पर बसा उज्जयिनी चित्रसेन के संरक्षण और विष्णुगुप्त के नेतृत्व में एक ऐसा राज्य था जो अपनी सुख और समृधि  पर इठलाता था, जहां क्षिप्रा युग-युगांतर से कर्दम वंश के राजाओं के पांव पखारती चली आ रही है, जहां घाटों, मंदिरों, देवालयों और शिवालयों में रसिकों, भक्तों, तीर्थयात्रियों की चहल-पहल से पूरा साम्राज्य मुखरित हो उठता था और इन सबसे परे स्थितप्रज्ञ योगी सा खड़ा था कर्दम वंश का प्रासाद, जो अपनी भव्य, गौरवमयी और यशस्वी इतिहास तथा प्रतापी राजाओं की परम्परा की नींव पर टिका था। लेकिन ‘गंधर्वसेन’ का कथानक भी एक परम्परागत शैली का आवरण ओढे़ एक राजतंत्रात्मक व्यवस्था का अप्रतिम उदाहरण बन गया है। राजव्यवस्था की इतिहास की परम्परा और उसकी विलासितापूर्ण जीवन शैली की पृष्ठभूमि पर आधारित  यह उपन्यास इतिहास लेखन श्रेणी की ऐसी कृति है जिसे लेखक ने बड़ी खूबसूरती से पेश किया है। 
शरद पगारे की यह पुस्तक ‘गंधर्वसेन’ के कर्दम वंश की गद्दी पर बैठने की कहानी है जिसे लेखक ने परिस्थिति, पात्रों, और कसी हुई भाषा को आधार  बनाकर एक अनुपम और पठनीय बना दिया है। जहां तक इस उपन्यास के कथानक की रचावट और बनावट की बात है तो लेखक ने कथानक के माध्यम से सभी पात्रों को सशक्त और प्रभावी बना दिया है। इसमें जीवित पात्रों के अलावा क्षिप्रा नदी को भी एक प्रमुख पात्र के रूप में प्रस्तुत की गई है, क्योंकि लेखक का कोई भी वर्णन बिना क्षिप्रा नदी के पूर्ण नहीं होती। इस पुस्तक में कथानक के बाद सबसे सबल पक्ष है इसकी भाषा। लेखक इस उपन्यास को भाषायी तौर पर सुदृढ़ बनाने के लिए जिस तरह अलंकारिक भाषाओं का प्रयोग किया है वो इसकी भाव प्रवणता को सम्पूर्ण आकार देता है और औपन्यासिक श्रृंखला में एक नया अध्याय जोड़ता है। अगर इस उपन्यास को कथानक के परे अवलोकित करें तो निश्चय ही भाषायी आधर पर एक अलग ही स्थान हासिल होगा। लेकिन लेखक उपन्यास लेखन की सभी विधाओं  के समुचित स्त्रोत को संतुलित रूप से पेश किया है जिसमें पुत्र वात्सल्य, राजप्रेम, छल-प्रपंच, राजद्रोह की भावना, आवेग आदि शामिल हैं, उपन्यास के विकासक्रम में समय-समय पर अपनी स्थिति स्पष्ट करते हैं। कुल मिलाकर ‘गंधर्वसेन’ के सत्तासीन होने की यात्रा  में कई कहानियां जुड़ती चली जाती हैं चाहे वो चित्रसेन की पृथक कहानी हो, सामंतसेन और उनकी भार्या द्वारा अपने ममत्व को त्याग कर दासी पुत्र हरिसेन को स्वपुत्र के रूप में पोषण करना हो या फिर  उसी हरिसेन के धीवरवंश  की कन्या श्यामली के प्रणयपाश में बंधकर  राजप्रासाद त्याग कर निर्वसन और अंत में मौत को अलिंगन कर अपने अपने पुत्रा गंधर्वसेन को अनाथ एक पड़ोसी के साथ छोड़ देने की कहानी हो, ये सभी पल गंधर्वसेन को उज्जयिनी की सत्ता के करीब पहुंचाते  हैं और इसी यात्रा की अप्रतिम व्याख्या   शरद पगारे ने अपने भाव प्रवणता और शाब्दिक विस्तार से किया है। 
गंधर्वसेन: शरद पगारे
वाणी प्रकाशन
4695, 21ए
दरियागंज, नई दिल्ली-02
मूल्यः 150 रु.

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