Saturday 20 October 2012

नई सोच के साथ एक गंभीर पहल

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय 
नाट्य विधा  की पारम्परिक संरचना, शैली से परे रवीन्द्र भारती की यह पुस्तक ‘अगिन तिरिया’ एक अलग ही भावालोक और मानक स्थापित करती है। यह रचना एक ऐसा आवरण प्रस्तुत करती है जिसमें साहित्य के विभिन्न आयामों यथा भाषा, शैली, और रचाव को आधार  बनाया गया है। दरअसल रवीन्द्र भारती अपनी नाट्य कृति की परम्परागत शैली और प्रस्तुति से अलग ही पहचान बनाए हुए हैं। लेकिन इस रचना में उन्होंने उस परम्परा से पृथक एक अद्भुत पृष्ठभूमि पर अपने भाव व्यक्त किए हैं जिसमें परम्परागत पात्रों की जगह कुछ ऐसे पात्र हैं जो नाट्य शिल्प से सर्वदा अनभिज्ञ हैं फिर  भी रवीन्द्र भारती ने उन पात्रों को संवेदना और भाव देकर इतना परिपुष्ट कर दिया है कि वे नाट्य कृति की परम्परागत शैली से एकाकार हो जाते हैं। फिर एक ऐसे नाट्य साहित्य की रचना होती है जिसके गर्भ में छिपा है एक लम्बा संघर्ष, सामाजिक जटिलता, लोक परम्परा की नकारात्मक वृत्ति और इसके आलोक में पनपने वाली रूढ़िवादिता। इसमें एक ऐसी रचाव और बनावट है जिसमें देशी और आंचलिक भाषाएं एक अलग ही भाव के साथ प्रस्तुत होती हैं जिससे इसमें एक लचीलापन, लोकरंजिता और सांकेतिक नाटकीयता आ जाती है। तीन अंकों और बीस दृश्यों में समाहित यह नाटक कुछ ऐसे दृश्यों के साथ शुरू होता है जिसमें एक समाज का चरित्र चित्रण है जहां समाज दास और स्वामी, बुर्जुआ और सर्वहारा तथा शोषक और शोषित वर्ग के मार्क्सवादी विचार में विचरण कर रहा है, जहां सभ्यता ने अपने विकास के क्रम में पहले से शोषित, दलित और बेबस लोगों को गर्त में ध्केल दिया है। दरअसल यह संघर्षगाथा  है हाशिए पर जी रहे बहिष्कृत कुलांगार और सर्वभोगी तथा सर्वसुविधा  पर कुंडली मारकर बैठे अग्नि-कुटुम्ब समाज के बीच की।
 नाटक का दूसरा अंक लोकतांत्रिक समाज के उस पहलू पर प्रकाश डालता है जहां हत्या की संस्कृति पनपती है और विश्व सत्ता उसे पोषित करती है। इस अंक में दृश्यों में एक सांकेतिक अर्थ छिपा है जिसमें यह दर्शाया गया है कि प्रेम की हत्या करने वाली व्यवस्था सर्वदा आतंक की आगोश में पोषित होती है। दरअसल यह नाट्य खंड लोकतांत्रिक समाज और अपने अस्तित्व को बचाए रखने के संघर्ष को दृश्यांकित करता है। इसमें दो वर्गों के बीच का प्रतिद्वन्द्व है जिसमें एक वर्ग तानाशाह, पाखंड, शोषक, हत्यारा, सम्पतिशोषक, ज्ञान और आलोक वर्ग का प्रतिनिधित्व  करता है जो सुविधाहीन , शोषित, निरीह वर्ग का शोषण करता है। ये अपने साम्राज्य के आलोक में इतने प्रतिहिंसक हैं कि कोयल की सांकेतिक बोली भी इन्हें चुनौती लगती है और वे उस सुर मल्लिका की गर्दन मरोड़ने से नहीं चूकते। दरअसल यह अंक उस बुर्जुआ वर्ग के साम्राज्यवादी नीति की परिचायक है जहां मानवता दम तोड़ देती है। 
नाटक का तीसरा अंक एक ऐसी सत्ता का दृश्यांकन है जहां अग्नि के ताप, आलोक दृष्टि, साहस, शक्ति ऐसे तमाम गुणों का आवरण ओढ़कर  श्रेष्ठी समाज धर्म  और आतंक का साम्राज्य स्थापित कर चुका है। वे इतने दंभी हैं कि इसके आलोक में संशकित होकर भी आलोकित हो रहे हैं। इस अंक के कुछ दृश्यों में अनुचरों की गुलामी के विद्रुप, विकृति और कुत्सित भावों का समावेश है जिसे देखकर समाज का श्रेष्ठी गुदगुदाता है। ये श्रेष्ठी (शोषक वर्ग) ऐसे चरित्र का प्रतिनिधत्व  करते हैं जो अपने अनुचरों की असामयिक या अकाल मृत्यु को प्रिय खेल समझते हैं और उसका जश्न मनाते हैं। लेकिन नाटक आखिरी दृश्य के बदलाव, जागृति, रूढ़िवादी परम्परा के अवसान का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है जब शोषित वर्ग की चेतना जाग उठती है और सामाजिक पूर्वाग्रहों और गुलामी की बेड़ियों से उन्मुक्त हो जाता है और फिर  एक नियति बन चुके घने तिमिर से बाहर एक नई रोशनी में आंखें खोलता है। 
बहरहाल नाटककार रवीन्द्र भारती अपनी इस रचना ‘अगिन तिरिया’ के साथ एक अनोखा लेकिन सार्थक और सफल प्रयास किया है। उन्होंने जिस प्रासंगिकता, विषयवस्तु, योजना को उठाया है वो उनके लोकरंजक पात्र, भाषिक योजना, क्षेत्रीय  और देशी शब्दावली के सफल और सटीक समावेशन से और प्रभावी हो जाते हैं। जहां तक इसके मंचन और प्रस्तुति की बात है तो परम्परागत और नियमित नाटक शैली से परे इसमें गम्भीरता है। इस नाटक की भाषायी योजना ने इसे मंचकों और निर्देशकों के सामने एक चुनौती बना दिया है। लेकिन इतना भी अवश्यम्भावी है कि यह नाटक अपने मंचन से एक नई परम्परा को जरूर परिभाषित करेगा। 
 
अगिन तिरियाः रवीन्द्र भारती
राधाकृष्ण  प्रकाशन प्रा. लि.
7/31, अंसारी मार्ग,  दरियागंज-02
कीमतः 200रु.

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