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Saturday, 23 February 2013

पन्नों से झांकती वेदना


अजय पाण्डेय
मैत्रेयी  पुष्पा की पहचान हमेशा स्त्रीवादी  विचारों को उत्प्रेरित के लिए रही है। इसमें कोई शक नहीं कि उन्होंने अपनी ख्याति के अनुरूप समाज और परिवार में स्त्रियों  की वास्तविकता को प्रस्तुत किया है। ‘फाइटर की डायरी’ भी इसी कड़ी की एक प्रस्तुति है जो हरियाणा की पृष्ठभूमि पर रची-बसी है। दरअसल यह पुस्तक भारतीय लोकतंत्र का दस्तावेज है जहां समाज में प्रतिपल-प्रतिक्षण संवैधानिक  मर्यादा का मर्दन होता है। यह पुस्तक एक ‘कनेक्टिंग लिंक’ है जो हरियाणवी समाज को उन तमाम लड़कियों से जोड़ती है जो उन्मुक्त होकर अपनी पहचान स्थापित करना चाहती हैं लेकिन उनका परिवार, समाज और परम्परा उन्हें किसी और ही भूमिका में देखना चाहता है। यह डायरी उन तमाम लड़कियों का प्रतिनिधित्व  करती है जिन्होंने उस समाज में रहते हुए एक अज्ञात भय का सामना किया है।
13 अध्यायों में विभाजित यह पुस्तक प्रत्येक खंड में उन लड़कियों की ऐसी वेदना को समेटे हुए है जिन्हें आगे बढ़ने की चाह में, स्वावलम्बी बनने की चाह में अपनों द्वारा ही मिली है। कितना ताज्जुब है कि जब देश में नारी सशक्तिकरण की बात हो रही है, महिलाओं की सहभागिता को जोर-शोर से बढ़ावा दी जा रही है तब देश के कुछ हिस्सों में उनकी सहभागिता या विकास को परम्परा के नाम पर परछिन्न किया जा रहा है। हालांकि इस पुस्तक में शामिल सभी 
पात्रों की व्यथाएं आखिरी सत्य नहीं हो सकतीं। क्योंकि  समाज महज लता, हिना, पुष्पा, सोनू, गीता या फिर रुचि जैसी लड़कियों से नहीं बना है यहां और भी लड़कियां हैं जिनके सपनों को उड़ान भरते देखा गया है, जिन्होंने अपने समाज और परिवार की आंखों से न सिर्फ सपने देखे बल्कि उसे पूरा भी किया। और ये लड़कियां उसी पृष्ठभूमि से हैं जिसकी नींव पर यह पुस्तक पल्लवित होती है। 
 लेकिन फिर भी इस आधार  पर पुस्तक की मौलिकता को कमतर करके नहीं आंका जा सकता। आज इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि समाज के किसी भी स्तर पर महिलाओं को उपभोग की वस्तु नहीं माना जाता, उसकी हदें परिवार और उसकी जरुरतों को पूरा करने तक ही सीमित मानी जाती है। यह पुस्तक ऐसे समाज की सच्चाई बताती है जहां स्त्री  और पुरुष की परिभाषा गढ़ दी गई है वहां समाज स्त्रियों  की दूसरी भूमिका नहीं बर्दाश्त करता। समाज आज भी उसी दकियानूसी सोच और परम्परा को पोषित कर रहा है जहां स्त्री -पुरुष के कार्यों का बंटवारा हुआ था। उसे अपनी बहू-बेटियों की तकदीर और भविष्य घर की चारदीवारी में ही सुरक्षित नजर आते हैं।
 मैत्रेयी जी इस पुस्तक में पुरुष वर्चस्ववादी समाज पर चोट करती नजर आती हैं। इसमें शामिल पात्र तो एकमात्र जरिया हैं जिनके माध्यम से समाज का कुत्सित चेहरा सामने आता है। ये वही समाज है जहां परम्परा और परिवार की इज्जत के नाम पर लड़कियों  की बलि ली जाती है, जहां आज भी लड़की की शादी करके मुक्त होने की धारणा  पुष्ट होती है। दरअसल यह पुस्तक समाज के उस प्रतिमान का प्रतिरूप है जहां लड़कियों को दहेज का दंश झेलना पड़ता है लेकिन पुरुष समाज उसी में अपनी तरक्की और विकास के निहितार्थ तलाश रहा है। मैत्रेयी पुष्पा इस पुस्तक से समाज के दोहरे चरित्र पर से पर्दा उठाने का कार्य बखूबी करती हैं लेकिन इन सबके बीच वो पुस्तक के शाब्दिक विस्तार को कम नहीं होने देती। उनका शब्द चयन, भाषा की मौलिकता पुस्तक की प्रमाणिकता को प्रस्तुत करती है। पात्रों की व्यथा को यथावत रूप में प्रस्तुत करने की कला इस पुस्तक को एक नया आयाम देने का कार्य करती है। 
For More information, Visit: www.amarbharti.com

Saturday, 2 February 2013

परम्परा यूं ही नहीं बनती

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय

‘मीराबाई और भक्ति की आध्यात्मिक अर्थनीति’ स्त्रीवादी  लेखिका कुमकुम संगारी की एक महत्वपूर्ण शोध् की परिणति है जो साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालता है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस पुस्तक के माध्यम से लेखिका ने अपनी शोध् के माध्यम से मध्यकाल के रूढ़िवादी और कठोर पुरुष वर्चस्ववादी परम्परा पर प्रहार किया है और मध्यकाल में भक्तिधारा  की अहम स्तम्भ मीरा को पुरुषवादी अध्यात्म की मंडी में स्त्री  मुक्ति अभियान का अगुवा बना दिया है। दरअसल हिन्दी साहित्य का मध्यकाल एक ऐसा इतिहास है जहां राजवंशों में भीतर ही भीतर सत्ता के कई स्तर दिखाई देते हैं और इसी की पृष्ठभूमि में कुल-वंश और सामन्तशाही परम्परा का विस्तार हुआ। मीरा के माध्यम से कुमकुम संगारी ने उस वंश परम्परा पर कुठाराघात किया है जिसमें स्त्रियाँ  वंश की पहचान और प्रतिष्ठा की जरूरतों से बंधी  हुई थीं। इस काल में स्त्रियों को परिवार में पितृसत्तात्मक सुरक्षा तो प्राप्त थी लेकिन कहीं-न-कहीं वह जाति और लैंगिक असमता को दैनंदिन जीवन में दृष्टिगत करता एक दमनकारी ढ़ांचा था। लेकिन इस शोध् ने स्पष्ट कर दिया है कि जब वंश, कुल और जातिगत पितृसत्तात्मक अवधारणा  प्रबल हो रही थी तब भक्तिधारा  ने इस पर प्रहार किया और मीरा ने अपनी विचारधारा तथा कर्मणा शक्ति से पितृसत्ता के आदर्शों और दासत्व के विभिन्न आयामों के लौकिक सत्ता को चुनौती दी। दरअसल इस शोध् में एक प्रश्न छिपा है जो इस बात का उत्तर तलाश रही है कि मीरा को पितृसत्तात्मक समाज के विरूद्ध, संत की भूमिका के साथ-साथ समर्पण, पारिवारिक बगावत का प्रतिमान, स्त्री  का ऐसा स्वरूप जिसने सामन्तशाही, राजशाही पितृसत्ता के विरूद्ध  संघर्ष किया है, सामाजिक नियमों की आलोचिका आदि किस प्रतिरूप में प्रस्तुत किया जाए। कुमकुम संगारी ने मीरा के उस रूप को व्यक्त किया है जहां उनका समर्पण भाव काफी प्रबल होता है तभी तो वे अपने पति के लिए दैहिक रूप से अनुपस्थित रहती हैं क्योंकि वे मानती हैं कि उनका विवाह स्वप्न में कृष्ण से हो चुका है। लेकिन मीरा का यह समर्पण, पति के लिए उनकी उदासीनता और कृष्ण के प्रति उनका प्रेम उनके पति और ससुर द्वारा व्याभिचार माना जाता है। मीरा ने परिवार और पति की प्रताड़ना के बीच सन्तत्व तथा उससे प्राप्त आध्यात्मिक शक्तियों को स्थापित किया। इस शोध् ने मीरा को इस रूप में प्रस्तुत किया है जो पथभ्रष्ट कृतघ्न पत्नी बनकर वह न सिपर्फ सामाजिक अपेक्षाओं से मुक्ति पा लेती हैं बल्कि उन्हें स्वाधीनता, परितृप्ति, आत्मिक विकास तक प्राप्त हो जाता है। शायद इसी वजह से वो इनसानों से रक्त और विवाह से किसी सम्बन्ध् को नहीं मानती और पति के शरीर के साथ चिता में जलने से इनकार कर देती हैं। यानि संन्यासिन के रूप में मीरा सामान्य जीवन की असमता के सम्पूर्ण तंत्र को तुच्छ मानकर उससे दूरी बनाए रखती हैं और मीरा द्वारा प्रतिपादित यही अवधरणा पुष्ट होकर बुर्जुआवाद और पितृसत्तात्मक समाज के लिए चुनौती पेश करती है। 
बहरहाल इस शोध् में मीरा के माध्यम से कुमकुम संगारी ने उस संस्थान पर चोट किया है जो स्त्री को लैंगिक और जातिगत बन्धनों  के पाश में बांध्कर पराधीन बनाए रखने का उपक्रम करते हैं। लेकिन इस संघर्ष में मीरा कहीं विचलित नहीं होती। वे पितृसमाज के दासत्व से स्त्री समाज को उबारने में सफल रहती हैं अर्थात् उन्होंने उस शाप को उपहार बना दिया जहां स्त्री  जन्म पाने का बोझ पूर्वजन्मों के पापों का फल माना जाता है। इससे तत्कालीन शासक वर्ग राजनीतिक और सामाजिक पराजय की अनुभूति करता है और मीरा का उद्देश्य भी यही था। इस शोध् को पुस्तक का रूप देते हुए कुमकुम संगारी तथा अनुवाद करते हुए अनुपमा वर्मा ने शाब्दिक भाव, रचाव और भाषा शिल्प का पूरा ध्यान दिया है। भूमिका लिखते हुए अनामिका ने भी शोध् की आत्मा का मंथन किया है और उसके मूल भाव का सहेजा है। 
मीराबाई और भक्ति की आध्यात्मिक अर्थनीतिः कुमकुम संगारी
अनुवादः डॉ अनुपमा वर्मा
वाणी प्रकाशन, 4695, 21 ए
दरियागंज, नई दिल्ली-02 
कीमतः 295

Friday, 16 November 2012

स्वयं को दोहराता इतिहास

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय
 
गंधर्वसेन , शरद पगारे की लिखी हुई एक औपन्यासिक कथा है जिसमें उज्जयिनी के कर्दम वंश का इतिहास और रहस्य छिपा है। दरअसल प्रारम्भिक रूप से यह उपन्यास कर्दम वंश के राजा चित्रसेन, सामंतसेन और हरिसेन पर आधारित  लगती है लेकिन गूढ़ रूप से अध्ययन करने पर यह कर्दम वंश के शिल्पकार, राजपुरोहित, राजमित्र, मार्गदर्शक और राजमित्र विष्णुगुप्त के इर्द-गिर्द घूमती है। अगर यह कहा जाए कि ‘गंधर्वसेन’ की उज्जयिनी के कर्दम वंश के सिंहासन तक पहुंचने की यात्रा के प्रस्तोता विष्णुगुप्त हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वे कर्दम वंश के हर उस दौर के साक्षी हैं जिस दौर से कोई राजतंत्र गुजरता है। 
क्षिप्रा नदी के तट पर बसा उज्जयिनी चित्रसेन के संरक्षण और विष्णुगुप्त के नेतृत्व में एक ऐसा राज्य था जो अपनी सुख और समृधि  पर इठलाता था, जहां क्षिप्रा युग-युगांतर से कर्दम वंश के राजाओं के पांव पखारती चली आ रही है, जहां घाटों, मंदिरों, देवालयों और शिवालयों में रसिकों, भक्तों, तीर्थयात्रियों की चहल-पहल से पूरा साम्राज्य मुखरित हो उठता था और इन सबसे परे स्थितप्रज्ञ योगी सा खड़ा था कर्दम वंश का प्रासाद, जो अपनी भव्य, गौरवमयी और यशस्वी इतिहास तथा प्रतापी राजाओं की परम्परा की नींव पर टिका था। लेकिन ‘गंधर्वसेन’ का कथानक भी एक परम्परागत शैली का आवरण ओढे़ एक राजतंत्रात्मक व्यवस्था का अप्रतिम उदाहरण बन गया है। राजव्यवस्था की इतिहास की परम्परा और उसकी विलासितापूर्ण जीवन शैली की पृष्ठभूमि पर आधारित  यह उपन्यास इतिहास लेखन श्रेणी की ऐसी कृति है जिसे लेखक ने बड़ी खूबसूरती से पेश किया है। 
शरद पगारे की यह पुस्तक ‘गंधर्वसेन’ के कर्दम वंश की गद्दी पर बैठने की कहानी है जिसे लेखक ने परिस्थिति, पात्रों, और कसी हुई भाषा को आधार  बनाकर एक अनुपम और पठनीय बना दिया है। जहां तक इस उपन्यास के कथानक की रचावट और बनावट की बात है तो लेखक ने कथानक के माध्यम से सभी पात्रों को सशक्त और प्रभावी बना दिया है। इसमें जीवित पात्रों के अलावा क्षिप्रा नदी को भी एक प्रमुख पात्र के रूप में प्रस्तुत की गई है, क्योंकि लेखक का कोई भी वर्णन बिना क्षिप्रा नदी के पूर्ण नहीं होती। इस पुस्तक में कथानक के बाद सबसे सबल पक्ष है इसकी भाषा। लेखक इस उपन्यास को भाषायी तौर पर सुदृढ़ बनाने के लिए जिस तरह अलंकारिक भाषाओं का प्रयोग किया है वो इसकी भाव प्रवणता को सम्पूर्ण आकार देता है और औपन्यासिक श्रृंखला में एक नया अध्याय जोड़ता है। अगर इस उपन्यास को कथानक के परे अवलोकित करें तो निश्चय ही भाषायी आधर पर एक अलग ही स्थान हासिल होगा। लेकिन लेखक उपन्यास लेखन की सभी विधाओं  के समुचित स्त्रोत को संतुलित रूप से पेश किया है जिसमें पुत्र वात्सल्य, राजप्रेम, छल-प्रपंच, राजद्रोह की भावना, आवेग आदि शामिल हैं, उपन्यास के विकासक्रम में समय-समय पर अपनी स्थिति स्पष्ट करते हैं। कुल मिलाकर ‘गंधर्वसेन’ के सत्तासीन होने की यात्रा  में कई कहानियां जुड़ती चली जाती हैं चाहे वो चित्रसेन की पृथक कहानी हो, सामंतसेन और उनकी भार्या द्वारा अपने ममत्व को त्याग कर दासी पुत्र हरिसेन को स्वपुत्र के रूप में पोषण करना हो या फिर  उसी हरिसेन के धीवरवंश  की कन्या श्यामली के प्रणयपाश में बंधकर  राजप्रासाद त्याग कर निर्वसन और अंत में मौत को अलिंगन कर अपने अपने पुत्रा गंधर्वसेन को अनाथ एक पड़ोसी के साथ छोड़ देने की कहानी हो, ये सभी पल गंधर्वसेन को उज्जयिनी की सत्ता के करीब पहुंचाते  हैं और इसी यात्रा की अप्रतिम व्याख्या   शरद पगारे ने अपने भाव प्रवणता और शाब्दिक विस्तार से किया है। 
गंधर्वसेन: शरद पगारे
वाणी प्रकाशन
4695, 21ए
दरियागंज, नई दिल्ली-02
मूल्यः 150 रु.

Friday, 2 November 2012

विस्मयकारी दुनिया से एक परिचय

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय
यतीन्द्र मिश्रा की लिखी यह पुस्तक ‘विस्मय का बखान’ कला के विभिन्न स्वरूपों और उनकी उपस्थितियों का सार है। यहां लेखक ने कला के विभिन्न रूपों पर एकाग्र होकर लेखनी को केन्द्रित किया है। कला के विभिन्न रूपों और लेखक द्वारा लिखे गए डायरियों, स्मृतियों, कला और कलाकारों की दुनिया तथा उनकी यात्रा का ‘विस्मय बखान’ है जो कला-यात्रा के प्रभावों की स्नेहिल स्पर्श तथा साहित्य और संस्कृति के समाज में कुछ जोश तथा जिज्ञासा के साथ समकालीनता का तारतम्य बैठाने का प्रयास है। मूलरूप से यह पुस्तक लेखक के पिछले कुछ सालों में समय-समय पर पत्रा-पत्रिकाओं में कलाओं पर लिखे गए निबन्धें का एक संचयन है जो बिना किसी कालक्रम की अवधरणा के तिथिवार प्रस्तुत किए गए हैं। लेखक ने इस पुस्तक को इस मायने में खास और रोचक बना दिया है कि पुस्तक लेखन के समय कला के विभिन्न मूर्धन्यों  और उनके बारे में लिखे गए स्मृति लेखों को भी सम्मिलित किए गए हैं जो इस पुस्तक को और ज्यादा पठनीय बनाते हैं। लेखक द्वारा लिखे गए तिथिवार डायरी, कला के विभिन्न रूपों पर जमे गर्द को साफ करने का कार्य करता है। चाहे वो शास्त्रीय  संगीत का क्षेत्रा हो, हुसैन की पेंटिग्स कला हो, लता मंगेश्कर की दैवीय आवाज हो या फिर साहिर लुधियानवी  द्वारा लिखे गए वो गाने हों जो जिन्दगी के मेलोड्रामा, प्रेम और विरह के बीच का अर्न्तद्वन्द्व, जंग और अमन, परिवार, समाज तथा राजनीति के विभिन्न भावालोकों से संवाद कराते हैं। ये सभी विषय इस संचयन का हिस्सा बनते हैं। 
इस संचयन खंड से जब बाहर निकलते हैं तो लेखक ने कला के विभिन्न रूपों के बहाने संगीत के विभिन्न शैलियों से रूबरू कराया है जिसे भाषा की निजी व स्वायत उपस्थिति ने उसे सम्पूर्ण आलोकित कर दिया है। लेखक ने भाषा का इस्तेमाल इस रूप में किया है कि कला के आवरण में कोई भी परिवर्तन या उतार-चढाव  हस्तक्षेप नहीं कर पाते हैं। हालांकि लेखक ने भाषा और कला के बीच के अंतर को भी स्पष्ट किया है। इस संचयन में  संगीत के एक ऐसे आवरण का वर्णन किया गया है जो इस आशय से शुरू होता है कि ‘अगर आप पहाड़ी सुनिएगा तो जंगल में जाना पड़ेगा।’ दरअसल यह खंड संगीत के विभिन्न राग और उसके परिवेश सृजन की अप्रतिम व्याख्या है। यहां संगीत के साथ नृत्य की परम्पराओं का भी जिक्र किया गया है और यह परम्परा रामजन्म के सोहर से लेकर कृष्ण-राध की लीलाओं पर आधरित नटवरी नृत्य को समेटे हुए नवाब वाजिद अली शाह की रास और कथक से मिलता एक नृत्य ‘रहस’ तक पहुंचती है और बड़ी तल्लीनता से बताती है कि संगीत और नृत्य के इस यात्रा में कितने संयोजन, राग-रागिनियों, श्रृंगारिक अभिव्यक्तियों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। लेखक ने अवध् के संगीत और उसकी परम्परा का बड़ी तसल्ली से जिक्र किया है। दरअसल यह अवधी  संगीत का व्यापक आवरण है जो अवध् के सन्तों, कवियों, गायकों, तवायफों, कथिकों, कीर्तन मंडलियों, नवाबों, वाग्गेयकारों एवं घरानों को समाहित किए हुए है। अवध् के संगीत की विशेषता यह है कि संगीत के तमाम उतार-चढावों के बावजूद शास्त्रीय य संगीत मुख्यधरा में बना रहा। इस क्षेत्र खंड की जितनी भी गायन और नृत्य की उपधराएं रहीं, उन्होंने एक समय विशेष में ख्यातिलब्ध  हुईं और वे धीरे धीरे  इतिहास का अंग बन गईं। इससे जब बाहर निकलते हैं तो हिन्दी फिल्म के आरम्भिक दौर और संगीत तथा नृत्य के आलोक में बाईयों के काल में प्रवेश करते हैं जहां फिल्मों  में संगीत के प्रारम्भिक दौर का विश्लेषण किया गया है साथ ही तत्कालीन समाज और राजघरानों के सांगितिक यात्रा का  भी वर्णन किया गया है। लेखक ने तवायफों और बाईयों के उस दौर का जिक्र किया है जब पिफल्मी दुनिया में उनके संगीत और नृत्यों का दबदबा सर्वाधिक था। लेकिन यहां यह भी स्पष्ट है कि सिनेमा के बदलते दौर ने उन्हें गुमनामी के स्याह गर्त में धकेल  दिया। पुस्तक के आखिरी खंड में स्मरण के रूप में पं मल्लिकार्जुन मंसूर, उस्ताद अमीर खां, पं कुमार गन्धर्व  पं भीमसेन जोशी, शैलेन्द्र और निर्मल वर्मा से जुड़ी कुछ यादें है जिसे लेखक ने आधार  बनाकर अपनी भावनाओं को मूर्त रूप दिया है। कला और साहित्य के बहाने इन मूर्धन्य  वाग्गेयकारों के कला सम्बन्धी  विचारों और सरोकारों को एक नए ढंग से देखने का जतन किया है। अंत में ‘रसन पिया’ शीर्षक से लिखी गई कविता जो ग्वालियर घराने के ख्याल गायक उस्ताद अब्दुल रशीद खां को समर्पित है। दरअसल इस कविता से पुस्तक एक समग्रता को हासिल करती है। यतीन्द्र मिश्र ने इस पुस्तक के माध्यम से संगीत, नृत्य, साहित्य, सिनेमा आदि विमर्श के सहारे कलाकारों, वाग्गेयकारों, कवियों, लेखकों नर्तकियों के संस्मरणों और उनसे हुए संवादों को आधार बनाकर एक विस्मयकारी संसार का बखान किया है। 

विस्मय का बखानः यतीन्द्र मिश्र
वाणी प्रकाशन
4695, 21ए, दरियागंज
नई दिल्ली-110 002
मूल्यः 395रु.

Saturday, 20 October 2012

नई सोच के साथ एक गंभीर पहल

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय 
नाट्य विधा  की पारम्परिक संरचना, शैली से परे रवीन्द्र भारती की यह पुस्तक ‘अगिन तिरिया’ एक अलग ही भावालोक और मानक स्थापित करती है। यह रचना एक ऐसा आवरण प्रस्तुत करती है जिसमें साहित्य के विभिन्न आयामों यथा भाषा, शैली, और रचाव को आधार  बनाया गया है। दरअसल रवीन्द्र भारती अपनी नाट्य कृति की परम्परागत शैली और प्रस्तुति से अलग ही पहचान बनाए हुए हैं। लेकिन इस रचना में उन्होंने उस परम्परा से पृथक एक अद्भुत पृष्ठभूमि पर अपने भाव व्यक्त किए हैं जिसमें परम्परागत पात्रों की जगह कुछ ऐसे पात्र हैं जो नाट्य शिल्प से सर्वदा अनभिज्ञ हैं फिर  भी रवीन्द्र भारती ने उन पात्रों को संवेदना और भाव देकर इतना परिपुष्ट कर दिया है कि वे नाट्य कृति की परम्परागत शैली से एकाकार हो जाते हैं। फिर एक ऐसे नाट्य साहित्य की रचना होती है जिसके गर्भ में छिपा है एक लम्बा संघर्ष, सामाजिक जटिलता, लोक परम्परा की नकारात्मक वृत्ति और इसके आलोक में पनपने वाली रूढ़िवादिता। इसमें एक ऐसी रचाव और बनावट है जिसमें देशी और आंचलिक भाषाएं एक अलग ही भाव के साथ प्रस्तुत होती हैं जिससे इसमें एक लचीलापन, लोकरंजिता और सांकेतिक नाटकीयता आ जाती है। तीन अंकों और बीस दृश्यों में समाहित यह नाटक कुछ ऐसे दृश्यों के साथ शुरू होता है जिसमें एक समाज का चरित्र चित्रण है जहां समाज दास और स्वामी, बुर्जुआ और सर्वहारा तथा शोषक और शोषित वर्ग के मार्क्सवादी विचार में विचरण कर रहा है, जहां सभ्यता ने अपने विकास के क्रम में पहले से शोषित, दलित और बेबस लोगों को गर्त में ध्केल दिया है। दरअसल यह संघर्षगाथा  है हाशिए पर जी रहे बहिष्कृत कुलांगार और सर्वभोगी तथा सर्वसुविधा  पर कुंडली मारकर बैठे अग्नि-कुटुम्ब समाज के बीच की।
 नाटक का दूसरा अंक लोकतांत्रिक समाज के उस पहलू पर प्रकाश डालता है जहां हत्या की संस्कृति पनपती है और विश्व सत्ता उसे पोषित करती है। इस अंक में दृश्यों में एक सांकेतिक अर्थ छिपा है जिसमें यह दर्शाया गया है कि प्रेम की हत्या करने वाली व्यवस्था सर्वदा आतंक की आगोश में पोषित होती है। दरअसल यह नाट्य खंड लोकतांत्रिक समाज और अपने अस्तित्व को बचाए रखने के संघर्ष को दृश्यांकित करता है। इसमें दो वर्गों के बीच का प्रतिद्वन्द्व है जिसमें एक वर्ग तानाशाह, पाखंड, शोषक, हत्यारा, सम्पतिशोषक, ज्ञान और आलोक वर्ग का प्रतिनिधित्व  करता है जो सुविधाहीन , शोषित, निरीह वर्ग का शोषण करता है। ये अपने साम्राज्य के आलोक में इतने प्रतिहिंसक हैं कि कोयल की सांकेतिक बोली भी इन्हें चुनौती लगती है और वे उस सुर मल्लिका की गर्दन मरोड़ने से नहीं चूकते। दरअसल यह अंक उस बुर्जुआ वर्ग के साम्राज्यवादी नीति की परिचायक है जहां मानवता दम तोड़ देती है। 
नाटक का तीसरा अंक एक ऐसी सत्ता का दृश्यांकन है जहां अग्नि के ताप, आलोक दृष्टि, साहस, शक्ति ऐसे तमाम गुणों का आवरण ओढ़कर  श्रेष्ठी समाज धर्म  और आतंक का साम्राज्य स्थापित कर चुका है। वे इतने दंभी हैं कि इसके आलोक में संशकित होकर भी आलोकित हो रहे हैं। इस अंक के कुछ दृश्यों में अनुचरों की गुलामी के विद्रुप, विकृति और कुत्सित भावों का समावेश है जिसे देखकर समाज का श्रेष्ठी गुदगुदाता है। ये श्रेष्ठी (शोषक वर्ग) ऐसे चरित्र का प्रतिनिधत्व  करते हैं जो अपने अनुचरों की असामयिक या अकाल मृत्यु को प्रिय खेल समझते हैं और उसका जश्न मनाते हैं। लेकिन नाटक आखिरी दृश्य के बदलाव, जागृति, रूढ़िवादी परम्परा के अवसान का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है जब शोषित वर्ग की चेतना जाग उठती है और सामाजिक पूर्वाग्रहों और गुलामी की बेड़ियों से उन्मुक्त हो जाता है और फिर  एक नियति बन चुके घने तिमिर से बाहर एक नई रोशनी में आंखें खोलता है। 
बहरहाल नाटककार रवीन्द्र भारती अपनी इस रचना ‘अगिन तिरिया’ के साथ एक अनोखा लेकिन सार्थक और सफल प्रयास किया है। उन्होंने जिस प्रासंगिकता, विषयवस्तु, योजना को उठाया है वो उनके लोकरंजक पात्र, भाषिक योजना, क्षेत्रीय  और देशी शब्दावली के सफल और सटीक समावेशन से और प्रभावी हो जाते हैं। जहां तक इसके मंचन और प्रस्तुति की बात है तो परम्परागत और नियमित नाटक शैली से परे इसमें गम्भीरता है। इस नाटक की भाषायी योजना ने इसे मंचकों और निर्देशकों के सामने एक चुनौती बना दिया है। लेकिन इतना भी अवश्यम्भावी है कि यह नाटक अपने मंचन से एक नई परम्परा को जरूर परिभाषित करेगा। 
 
अगिन तिरियाः रवीन्द्र भारती
राधाकृष्ण  प्रकाशन प्रा. लि.
7/31, अंसारी मार्ग,  दरियागंज-02
कीमतः 200रु.