Monday, 18 March 2013

उत्तर प्रदेश्‍ा में हर साल होंगी 41 हजार भर्तियां


उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पुलिस फोर्स की कमी को दूर करने के लिए हर साल 41 हजार भर्तियां करने के निर्देश द‌िए हैं।

इनमें 40 हजार से अधिक‌ सिपाही और लगभग डेढ़ हजार उपनिरीक्षकों की भर्ती होगी। यह प्रक्रिया चार सालों तक चलेगी।

प्रदेश की कानून-व्यवस्था को लेकर उठ रहे सवालों के बीच मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने सोमवार को गृह विभाग के अधिकारियों व पुलिस के आला अफसरों के साथ समीक्षा बैठक की।

बैठक में मुख्यमंत्री ने पुलिस फोर्स की कमी के बारे में जानकारी ली और चार सालों में सिलसिलेवार इसे दूर करने का भरोसा दिया।

अफसरों ने बताया कि मौजूदा समय में इंस्पेक्टर के 73 फीसदी, दारोगा के 57 फीसदी, हेड कांस्टेबल के 82 फीसदी और कांस्टेबल के 54 फीसदी पद खाली हैं।

चार सालों तक हर साल सिपाहियों के 40,459 पद और इस समय तक सेवानिवृत्त होने वाले सिपाहियों की संख्या को मिलाकर भर्ती की जानी है। चूंकि दारोगा के कुल 10,251 पद रिक्त हैं और इनमें 50 फीसदी पर नई भर्ती होनी है।

लिहाजा चार साल तक हर साल दरोगा के 1,518 पदों पर और उस समय तक सेवा निवृत्त होने वाले दारोगाओं के पदों पर भर्ती की जाएगी।

हेड कांस्टेबलों के पदों पर भी इन चार वर्षों के दौरान भर्ती की जाएगी। बैठक में बताया गया कि पुलिस भर्ती एवं प्रोन्नति बोर्ड के अधिकारियों को कहा गया है कि वे चार वर्षों के दौरान इस कमी को दूर करने की योजना तैयार कर लें।

कार्यशैली पर उठाए सवाल

बैठक में अखिलेश ने पुलिस विभाग को अपनी कार्यशैली सुधारने की सख्त हिदायत दी। सूचना मिलने पर भी अफसरों के मौके पर देर से पहुंचने को मुख्यमंत्री ने गंभीरता से लिया।

उन्होंने अफसरों को चेताया कि सूचना मिलते ही तुरंत हरकत में आएं और घटनास्थल पर पहुंचें। साथ ही चौकियों और थानों में तैनात ऐसे पुलिसकर्मियों पर नजर रखने और कार्रवाई करने को भी कहा जिनकी छवि खराब है।

बयानबाजी पर जताई नाराजगी

आला अफसरों की मीडिया में बयानबाजी से हुई किरकिरी पर भी सीएम ने नाराजगी जताई। उन्होंने कहा कि किसी भी घटना के बारे में मीडिया को तथ्यात्मक जानकारी दी जाए। अफवाह फैलाने वालों के अपराधियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाए।

संसाधन मुहैया कराए जाएंगे

मुख्यमंत्री ने भरोसा दिलाया कि पुलिस विभाग को जरूरत के मुताबिक सभी संसाधन मुहैया कराए जाएंगे। वाहनों, सीसीटीवी, आधुनिक कंट्रोल रूम, फोरेंसिक लैब, नॉन लीथल वीपन की उपलब्धता सुनिश्चित की जाएगी।

Sunday, 17 March 2013

मुसलमानों का हित पहले, सरकार बाद में: मुलायम


समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने रविवार को कहा कि मुसलमानों का हित पहले है और सरकार बाद में। उन्होंने प्रदेश में आतंकवाद के आरोप में जेलों में बंद बेगुनाह मुसलमानों को जल्द रिहा करने की घोषणा की।

लखनऊ में जमीयत उलमा हिंद द्वारा आयोजित कार्यक्रम में मुलायम सिंह यादव ने मुसलमानों को अपना सच्चा हमदर्द बताया। उन्होंने कहा कि सरकार बनाने में मुसलमानों ने जो सहयोग दिया, जिस तरह उन पर भरोसा जताया, उसे सपा की सरकार कभी भुला नहीं सकती।

प्रतापगढ़ में क्षेत्राधिकारी जिया उल हक की हत्या, प्रदेश में पिछले वर्ष हुए दंगों और जामा मस्जिद के शाही इमाम मौलाना बुखारी के समाजवादी पार्टी से अलग होने के बाद मुलायम के इस बयान को अब तक हुए राजनीतिक नुकसान की भरपाई करने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है।

मुलायम सिंह यादव ने कहा, ' संसद हो, सड़क हो अथवा सरकार, सपा हमेशा अल्पसंख्यकों के हित की लड़ाई लड़ती रही है और आगे भी लड़ती रहेगी।'

मुलायम ने कहा कि मुसलमानों ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के लिए वोट दिया था लेकिन उन्होंने अखिलेश को मुख्यमंत्री इसलिए बनवाया ताकि वह दिल्ली में रहकर अल्पसंख्यकों की आवाज उठा सकें।

हाल ही में मौलाना अहमद बुखारी द्वारा सपा सरकार की आलोचना किए जाने पर उन्होंने बुखारी का नाम लिए बगैर कहा कि मुसलमानों को प्रदेश सरकार की नीति व नीयत दोनों को देखना चाहिए।

प्रदेश सरकार में 11 मुसलमान मंत्री

मुलायम ने कहा कि प्रदेश सरकार में 11 मंत्री मुसलमान हैं। कई विधायक भी मुसलमान हैं। उन्होंने कहा कि प्रदेश के मुख्य सचिव भी मुसलमान हैं। ये सभी लोग मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।

उन्होंने कहा, 'प्रदेश की जेलो में बंद निर्दोष मुसलमानों की रिहाई के मामले में सरकार अच्छे नतीजे निकलाने की कोशिश कर रही है। यह भी कोशिश हो रही है कि जहां अदालतों का सहारा लेने की जरूरत हो, वहां अदालतों की मदद ली जाए। इसके लिए डीजीपी व मुख्य सचिव विचार-विमर्श कर रहे हैं।'

राजा भैया की गिरफ्तारी की मांग

जमीयत के कार्यक्रम में राजा भैया की गिरफ्तारी की मांग में नारे भी लगे। कार्यक्रम में लोगों ने मुलायम के सामने क्षेत्राधिकारी जिला उल हक की हत्या के आरोपी राजा भैया की गिरफ्तारी की मांग की।

मुलायम ने कहा कि यह मामला इस मंच से उठाना ठीक नहीं हैं। यहां मजलूमों ओर बेकसूरों को इंसाफ मिलने की आवाज उठ रही है। एक मंच से दो आवाज उठाना ठीक नहीं है। सरकार पूरे मामले को गंभीरता से ले रही है।

दंगा नियंत्रण कानून और आरक्षण

कार्यक्रम में जमीयत उलमा के संरक्षक असजद मदनी ने मुलायम को दंगा विरोधी कानून और मुसलमानों को 18 फीसदी आरक्षण का वादा भी याद दिलाया।

उन्होंने कहा कि संविधान में अब तक 117 संशोधन किए जा चुके हैं। इसलिए एक और संशोधन होना बहुत मुश्किल काम नहीं है।

Sunday, 10 March 2013

स्त्री विमर्श: अनुभव के शब्द


अजय पाण्डेय
यह कितना विरोधाभाष  है कि जब वैश्विक विचार-विमर्श में नारी-सशक्तिकरण की बात हो रही है, उनकी सहभागिता को अहम बताया जा रहा है तब उसी वैश्विक परिदृश्य में लैंगिक असमानता, जाति, धर्म आदि को प्रासंगिक बना दिया जाता है। सात जिन्दगियों में लिपटा नारी-विमर्श ‘संगतिन-यात्रा’ वैश्विक नारी-विमर्श के इसी विरोधाभाष पर सवाल खड़ी करती है। उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर सीतापुर की पृष्ठभूमि पर रची-बसी यह पुस्तक उन लेखिकाओं के ऐसे अनुभवों की प्रस्तुति है जिन्होंने समाज, परिवार और रिश्तों के दायरे में रहकर प्राप्त किया है। अनुपम लता, रामशीला, रेशमा अंसारी, विभा बाजपेयी, शशि वैश्य, शशिबाला, सुरबाला, ऋचा  सिंह और ऋचा नागर ये वो लेखिकाएं हैं जो साहित्य सृजन की परम्परा और शैली से परे एक ऐसी विषय-वस्तु प्रस्तुत करती हैं जहां बहस और विमर्श के लिए सिर्फ और सिर्फ समाज की स्त्रियों  के प्रति सोच ही केन्द्र में रह जाता है। दरअसल यह पुस्तक सात लेखिकाओं के माध्यम से सात अलग-अलग समूहों का प्रतिनिधित्व  करती हैं जिसमें अलग-अलग पृष्ठभूमि, जाति, धर्म , उपेक्षित और दलित महिलाएं शामिल हैं। ये वो महिलाएं हैं जो अपना और अपने परिवार के जीवन को सहारा तथा बेहतर बनाने के लिए विषम परिस्थितियों में नौकरी करती हैं लेकिन धीरे धीरे  ऐसे हालात उत्पन्न होने लगते हैं जिससे उनको वो नौकरी संघर्ष का प्रतिरूप लगने लगता है। इन परिस्थितियों में उनके मन में उद्वेलन की नमी पाकर सवालों के कुछ बीज प्रस्फुटित  होते हैं लेकिन उनकी इस उत्कंठा का कहीं जवाब नहीं मिलता। यही उत्कंठा उनके मन में एक ऐसी योजना बनाती है जो उन्हें खामोश जिन्दगी से बाहर निकाल सके। इन महिलाओं ने एकमुखी रूप अख्तियार नहीं किया, बल्कि कोरस, जहां सबके जीवन के तार को झंकृत किया जा सके। नारी-विमर्श को लेकर जब चर्चा होती है तो अक्सर देखा जाता है कि किसी समुदाय विशेष की बात होती है लेकिन इस पुस्तक में इतना सटीक संतुलन है कि यहां समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व  किया गया है और उनकी दैनंदिन अनुभूतियों को शब्द दिया गया है। ये सातों पात्र दलित नहीं हैं, उनमें ब्राह्मण से लेकर मुस्लिम और रैदास भी हैं, उनकी आर्थिक स्थिति भी एक जैसी नहीं है, उनके पति, मायके और ससुराल वाले भी अलग-अलग हैं फिर  ऐसा क्या है जो उन्हें एकसाथ आने पर विवश कर रही है। शायद उनका एहसास। ये उनका एहसास ही तो है जो उनके मन में उबरने की चाहत पैदा करता है, उनकी भावनाओं को शब्द दे रहा है, उनकी सोच को मुखरित कर रहा है। ‘संगतिन’ समूह की ये सदस्यायें जिन्हें शायद ही कभी इल्म हो कि ये कभी लेखिकाएं बनेंगी लेकिन वर्तमान में जो संवेदनात्मक लेख प्रस्तुत किया है उससे तो स्पष्ट है कि ज्ञान के हर पैमाने पर राजनीति होती है। तभी तो जब स्त्री -विमर्श पर चर्चा होती है तो देखा जाता है कि उसमें कौन से लोग उस विमर्श में अपनी बात रखने के काबिल समझे जाते हैं, कौन उस पर हिन्दी-अंग्रेजी में रिपोर्ट तैयार करता है और किसे सिर्फ नुमाइश के लिए बुलाया जाता है। इस समूह की महिलाओं ने असमानता का अनुभव किया था, इन्हें गहराई से महसूस किया था और यह पुस्तक उसी  एहसासों, व्यक्तिगत तकलीफों का मुखर प्रतिबिम्ब है। हालांकि इस पुस्तक के विकास के क्रम में एक सूक्ष्म प्रश्न को भी उठाया गया है कि इस पुस्तक में स्त्रियों  के जीवन के स्याह पक्ष को ही क्यों व्यक्त किया गया है? उन्हें ससुराल की वही बातें क्यों याद हैं जब उन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में भी काम करना पड़ता था, सास-ननद के ताने सुनने पड़ते थे और पति को अपनी खुशी की तिलांजलि देकर खुश रखना होता था। ऐसा तो नहीं कि ससुराल में खुशियों के पल आए ही नहीं, अगर आए तो उनकी यादें शेष क्यों नहीं हैं? या पिफर ऐसा हुआ कि सपनों के बिखर जाने की पीड़ा ने खुशियों के उस पल को धूमिल  कर दिया है। 

मानो उनके लम्हे फिसल गए। उनके जीवन में ऐसे कई पल आए जब शादी को इस रूप में व्यक्त किया गया जैसे ‘पूरे अस्तित्व पर किसी और का कब्जा’। इस पुस्तक की सबसे अच्छी बात यह है कि इसमें विभिन्न खंडों के माध्यम से उनकी हर परिस्थिति का पृथक अवलोकन किया गया है। किसी की बेटी से लेकर किसी की मां बनने तक के सपफर को बड़ी मार्मिकता से यथावत रख देना ही इसका सबल पक्ष है। इस बात इंकार नहीं किया जा सकता है कि आज भी समाज में ऐसी जातिगत और पारिवारिक बंधन  है जहां औरत की हदें चहारदीवारी के भीतर तय कर दी जाती हैं। यह पुस्तक संदेश है उन लोगों के लिए जो आज भी विकल्पहीनता को ही विकल्प मानते हैं और पुरुष वर्चस्व की वकालत करते हैं। दरअसल ‘संगतिन-यात्रा’ सामाजिक सरोकार और दायित्व का एक मार्ग प्रशस्त करती है जिससे दूर तक दृष्टि जाती है। इस पुस्तक में न तो कोई भाषागत जटिलता है और न ही शैली तथा परम्परा की छाप। यह तो अवधरणा की नई शैली है जो सामाजिक रूढ़ियों के विरूद्ध  एक नया मोर्चा तैयार करती है।

For More information, Visit: www.amarbharti.com

Saturday, 23 February 2013

पन्नों से झांकती वेदना


अजय पाण्डेय
मैत्रेयी  पुष्पा की पहचान हमेशा स्त्रीवादी  विचारों को उत्प्रेरित के लिए रही है। इसमें कोई शक नहीं कि उन्होंने अपनी ख्याति के अनुरूप समाज और परिवार में स्त्रियों  की वास्तविकता को प्रस्तुत किया है। ‘फाइटर की डायरी’ भी इसी कड़ी की एक प्रस्तुति है जो हरियाणा की पृष्ठभूमि पर रची-बसी है। दरअसल यह पुस्तक भारतीय लोकतंत्र का दस्तावेज है जहां समाज में प्रतिपल-प्रतिक्षण संवैधानिक  मर्यादा का मर्दन होता है। यह पुस्तक एक ‘कनेक्टिंग लिंक’ है जो हरियाणवी समाज को उन तमाम लड़कियों से जोड़ती है जो उन्मुक्त होकर अपनी पहचान स्थापित करना चाहती हैं लेकिन उनका परिवार, समाज और परम्परा उन्हें किसी और ही भूमिका में देखना चाहता है। यह डायरी उन तमाम लड़कियों का प्रतिनिधित्व  करती है जिन्होंने उस समाज में रहते हुए एक अज्ञात भय का सामना किया है।
13 अध्यायों में विभाजित यह पुस्तक प्रत्येक खंड में उन लड़कियों की ऐसी वेदना को समेटे हुए है जिन्हें आगे बढ़ने की चाह में, स्वावलम्बी बनने की चाह में अपनों द्वारा ही मिली है। कितना ताज्जुब है कि जब देश में नारी सशक्तिकरण की बात हो रही है, महिलाओं की सहभागिता को जोर-शोर से बढ़ावा दी जा रही है तब देश के कुछ हिस्सों में उनकी सहभागिता या विकास को परम्परा के नाम पर परछिन्न किया जा रहा है। हालांकि इस पुस्तक में शामिल सभी 
पात्रों की व्यथाएं आखिरी सत्य नहीं हो सकतीं। क्योंकि  समाज महज लता, हिना, पुष्पा, सोनू, गीता या फिर रुचि जैसी लड़कियों से नहीं बना है यहां और भी लड़कियां हैं जिनके सपनों को उड़ान भरते देखा गया है, जिन्होंने अपने समाज और परिवार की आंखों से न सिर्फ सपने देखे बल्कि उसे पूरा भी किया। और ये लड़कियां उसी पृष्ठभूमि से हैं जिसकी नींव पर यह पुस्तक पल्लवित होती है। 
 लेकिन फिर भी इस आधार  पर पुस्तक की मौलिकता को कमतर करके नहीं आंका जा सकता। आज इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि समाज के किसी भी स्तर पर महिलाओं को उपभोग की वस्तु नहीं माना जाता, उसकी हदें परिवार और उसकी जरुरतों को पूरा करने तक ही सीमित मानी जाती है। यह पुस्तक ऐसे समाज की सच्चाई बताती है जहां स्त्री  और पुरुष की परिभाषा गढ़ दी गई है वहां समाज स्त्रियों  की दूसरी भूमिका नहीं बर्दाश्त करता। समाज आज भी उसी दकियानूसी सोच और परम्परा को पोषित कर रहा है जहां स्त्री -पुरुष के कार्यों का बंटवारा हुआ था। उसे अपनी बहू-बेटियों की तकदीर और भविष्य घर की चारदीवारी में ही सुरक्षित नजर आते हैं।
 मैत्रेयी जी इस पुस्तक में पुरुष वर्चस्ववादी समाज पर चोट करती नजर आती हैं। इसमें शामिल पात्र तो एकमात्र जरिया हैं जिनके माध्यम से समाज का कुत्सित चेहरा सामने आता है। ये वही समाज है जहां परम्परा और परिवार की इज्जत के नाम पर लड़कियों  की बलि ली जाती है, जहां आज भी लड़की की शादी करके मुक्त होने की धारणा  पुष्ट होती है। दरअसल यह पुस्तक समाज के उस प्रतिमान का प्रतिरूप है जहां लड़कियों को दहेज का दंश झेलना पड़ता है लेकिन पुरुष समाज उसी में अपनी तरक्की और विकास के निहितार्थ तलाश रहा है। मैत्रेयी पुष्पा इस पुस्तक से समाज के दोहरे चरित्र पर से पर्दा उठाने का कार्य बखूबी करती हैं लेकिन इन सबके बीच वो पुस्तक के शाब्दिक विस्तार को कम नहीं होने देती। उनका शब्द चयन, भाषा की मौलिकता पुस्तक की प्रमाणिकता को प्रस्तुत करती है। पात्रों की व्यथा को यथावत रूप में प्रस्तुत करने की कला इस पुस्तक को एक नया आयाम देने का कार्य करती है। 
For More information, Visit: www.amarbharti.com

Saturday, 2 February 2013

सलाखों के पीछे से झांकती सच्चाई


पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय

अभी हाल में कश्मीर में भारत और पाकिस्तान की सीमा पर जो घटनाएं हुई हैं और पाक के जो नापाक इरादे जाहिर हुए हैं उसके आलोक में पाकिस्तान में मानवाधिकार  कार्यकर्ता और वहां की जेल में बंद भारतीय मुल्क के कैदी सरबजीत सिंह के वकील अवैश शेख़ की पुस्तक ‘सरबजीत सिंह की अजीब दास्तान’ का  अध्ययन काफी महत्वपूर्ण हो जाता है। दरअसल यह पुस्तक वास्तव में सरबजीत सिंह की उस दास्तान को प्रस्तुत करती है जो उसने एक गलत पहचान के कारण अनुभव किया है। यह पुस्तक सरबजीत सिंह के 22 साल के उस स्याह जीवन पर से पर्दा उठाती है जो उसने सलाखों के पीछे बीता दी। यह पुस्तक प्रमाण है उस बात की जहां भारत और पाकिस्तान के बनते-बिगड़ते रिश्ते सरबजीत सिंह और उसकी रिहाई को प्रभावित करते रहे। यह पुस्तक सरबजीत सिंह की तरफ से केस लड़ते हुए अवैश शेख़ का अनुभव है जिसमें उन्होंने बड़ी साफगोशी से केस के हर पक्ष पर तटस्थ रहते हुए प्रकाश डाला है। इस केस के सन्दर्भ में वे पाक सरकार, कट्टरपंथ, पुलिस और मीडिया सबकी आंखों में किरकिरी बने हुए थे, इस दौरान उन्होंने उस दौर को भी देखा जब पाकिस्तान में उनके कार्यालय को निशाना बनाया गया और शहर में उनके पुतले जलाए गए। पाकिस्तान में उन्हें लोग कभी भारत के एजेन्ट कहते रहे तो कभी ये कहा कि वे ये सब सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए कर रहे हैं। बावजूद इसके उन्होंने तटस्थ होकर अपना और सरबजीत का पक्ष रखा। हालांकि सरबजीत सिंह के बारे में आम लोगों की अज्ञानता के लिए पाक हुकूमत ही दोषी है क्योंकि उसे भारतीय गुप्तचर और फैसलाबाद और लाहौर में बम धमाके  का दोषी ठहराया गया। 
पुस्तक का जब क्रमवार अध्ययन करते हैं तो एक नाम आता है मंजीत सिंह का।  दरअसल यह वही मंजीत है जो फैसलाबाद और लाहौर में हुए बम धमाके  में संलिप्त था लेकिन गलत पहचान ने उस सरबजीत सिंह को भारतीय आतंकवादी घोषित कर दिया जो 29-30 अगस्त, 1990 की रात को गलती से पाकिस्तानी सीमा में चला गया था तथा बिना किसी वास्तविकता को सामने लाए उसका ट्रायल कर दिया गया और सुना दी गई फांसी की सजा। पुस्तक में पृष्ठांकित ये दस्तावेज इस बात को पुष्ट करते हैं कि यह पूरा मामला गलत पहचान से जुड़ा है और सरबजीत सिंह को जो सजा सुनाई गई है वो दरअसल में मंजीत सिंह को सुनाई गई थी लेकिन पाकिस्तानी कानून और पुलिस की लापरवाही ने न सिर्फ मंजीत सिंह को पाकिस्तान से बाहर निकलने में मदद की बल्कि सरबजीत सिंह को मौत के मुंह में धमाके  दिया। पुस्तक के अन्य पक्ष की जब बात करते हैं तो यह स्पष्ट है कि यह पुस्तक एक दस्तावेज है, एक आपबीती है जिसमें लेखक ने 22 सालों से दूसरे मुल्क की जेल में बंद सरबजीत सिंह द्वारा अपने परिवार और भारत सरकार को लिखे पत्र को भी शामिल किया है जो अपनी मार्मिकता से पुस्तक को और प्रभावी बना देता है। इन सबके बीच सरबजीत के परिवार विशेषकर उसकी बहन दलबीर कौर और उसकी दोनों बेटियां पूनमदीप और स्पप्नदीप के साहस और उनके हौंसले को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जिन्होंने सरबजीत के केस को न सिर्फ हिन्दुस्तान में बल्कि पाकिस्तान में भी जिन्दा रखा है। हिन्दुस्तान में समय-समय पर सरबजीत सिंह की रिहाई के लिए जो अभियान चलाए जा रहे हैं वो भी महत्वपूर्ण कड़ी हैं। पुस्तक इस परत पर से भी पर्दा उठाने का कार्य करती है कि सरबजीत सिंह को लेकर पाकिस्तान में जनमानस की सोच बदलने लगी है। पुस्तक इस लिहाज से सराहनीय है कि इसके आखिरी परिशिष्ट  में उन भारतीय कैदियों के नाम और पते बताए गए हैं जो वर्षों से पाकिस्तानी जेल में बंद हैं। 
बहरहाल सरबजीत सिंह मामले को लेकर अवैश शेख़ की यह मुहिम काफी सराहनीय है। सरबजीत को लेकर पाकिस्तान या भारत में जो शंकाएं व्याप्त हैं उसे  दूर करने में यह पुस्तक काफी  सहयोग करेगी और लेखक का उद्देश्य भी यही है। इस पुस्तक में पाकिस्तानी पक्ष की कई तल्ख़ सच्चाइयां छिपी हैं जिसे लेखक ने अब तक जांच-पड़ताल में देखा और अनुभव किया है। 
सरबजीत सिंह की अजीब दास्तानः अवैस शेख़
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.
1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग
नई दिल्ली- 110 002
कीमतः 195रु.

परम्परा यूं ही नहीं बनती

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय

‘मीराबाई और भक्ति की आध्यात्मिक अर्थनीति’ स्त्रीवादी  लेखिका कुमकुम संगारी की एक महत्वपूर्ण शोध् की परिणति है जो साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालता है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस पुस्तक के माध्यम से लेखिका ने अपनी शोध् के माध्यम से मध्यकाल के रूढ़िवादी और कठोर पुरुष वर्चस्ववादी परम्परा पर प्रहार किया है और मध्यकाल में भक्तिधारा  की अहम स्तम्भ मीरा को पुरुषवादी अध्यात्म की मंडी में स्त्री  मुक्ति अभियान का अगुवा बना दिया है। दरअसल हिन्दी साहित्य का मध्यकाल एक ऐसा इतिहास है जहां राजवंशों में भीतर ही भीतर सत्ता के कई स्तर दिखाई देते हैं और इसी की पृष्ठभूमि में कुल-वंश और सामन्तशाही परम्परा का विस्तार हुआ। मीरा के माध्यम से कुमकुम संगारी ने उस वंश परम्परा पर कुठाराघात किया है जिसमें स्त्रियाँ  वंश की पहचान और प्रतिष्ठा की जरूरतों से बंधी  हुई थीं। इस काल में स्त्रियों को परिवार में पितृसत्तात्मक सुरक्षा तो प्राप्त थी लेकिन कहीं-न-कहीं वह जाति और लैंगिक असमता को दैनंदिन जीवन में दृष्टिगत करता एक दमनकारी ढ़ांचा था। लेकिन इस शोध् ने स्पष्ट कर दिया है कि जब वंश, कुल और जातिगत पितृसत्तात्मक अवधारणा  प्रबल हो रही थी तब भक्तिधारा  ने इस पर प्रहार किया और मीरा ने अपनी विचारधारा तथा कर्मणा शक्ति से पितृसत्ता के आदर्शों और दासत्व के विभिन्न आयामों के लौकिक सत्ता को चुनौती दी। दरअसल इस शोध् में एक प्रश्न छिपा है जो इस बात का उत्तर तलाश रही है कि मीरा को पितृसत्तात्मक समाज के विरूद्ध, संत की भूमिका के साथ-साथ समर्पण, पारिवारिक बगावत का प्रतिमान, स्त्री  का ऐसा स्वरूप जिसने सामन्तशाही, राजशाही पितृसत्ता के विरूद्ध  संघर्ष किया है, सामाजिक नियमों की आलोचिका आदि किस प्रतिरूप में प्रस्तुत किया जाए। कुमकुम संगारी ने मीरा के उस रूप को व्यक्त किया है जहां उनका समर्पण भाव काफी प्रबल होता है तभी तो वे अपने पति के लिए दैहिक रूप से अनुपस्थित रहती हैं क्योंकि वे मानती हैं कि उनका विवाह स्वप्न में कृष्ण से हो चुका है। लेकिन मीरा का यह समर्पण, पति के लिए उनकी उदासीनता और कृष्ण के प्रति उनका प्रेम उनके पति और ससुर द्वारा व्याभिचार माना जाता है। मीरा ने परिवार और पति की प्रताड़ना के बीच सन्तत्व तथा उससे प्राप्त आध्यात्मिक शक्तियों को स्थापित किया। इस शोध् ने मीरा को इस रूप में प्रस्तुत किया है जो पथभ्रष्ट कृतघ्न पत्नी बनकर वह न सिपर्फ सामाजिक अपेक्षाओं से मुक्ति पा लेती हैं बल्कि उन्हें स्वाधीनता, परितृप्ति, आत्मिक विकास तक प्राप्त हो जाता है। शायद इसी वजह से वो इनसानों से रक्त और विवाह से किसी सम्बन्ध् को नहीं मानती और पति के शरीर के साथ चिता में जलने से इनकार कर देती हैं। यानि संन्यासिन के रूप में मीरा सामान्य जीवन की असमता के सम्पूर्ण तंत्र को तुच्छ मानकर उससे दूरी बनाए रखती हैं और मीरा द्वारा प्रतिपादित यही अवधरणा पुष्ट होकर बुर्जुआवाद और पितृसत्तात्मक समाज के लिए चुनौती पेश करती है। 
बहरहाल इस शोध् में मीरा के माध्यम से कुमकुम संगारी ने उस संस्थान पर चोट किया है जो स्त्री को लैंगिक और जातिगत बन्धनों  के पाश में बांध्कर पराधीन बनाए रखने का उपक्रम करते हैं। लेकिन इस संघर्ष में मीरा कहीं विचलित नहीं होती। वे पितृसमाज के दासत्व से स्त्री समाज को उबारने में सफल रहती हैं अर्थात् उन्होंने उस शाप को उपहार बना दिया जहां स्त्री  जन्म पाने का बोझ पूर्वजन्मों के पापों का फल माना जाता है। इससे तत्कालीन शासक वर्ग राजनीतिक और सामाजिक पराजय की अनुभूति करता है और मीरा का उद्देश्य भी यही था। इस शोध् को पुस्तक का रूप देते हुए कुमकुम संगारी तथा अनुवाद करते हुए अनुपमा वर्मा ने शाब्दिक भाव, रचाव और भाषा शिल्प का पूरा ध्यान दिया है। भूमिका लिखते हुए अनामिका ने भी शोध् की आत्मा का मंथन किया है और उसके मूल भाव का सहेजा है। 
मीराबाई और भक्ति की आध्यात्मिक अर्थनीतिः कुमकुम संगारी
अनुवादः डॉ अनुपमा वर्मा
वाणी प्रकाशन, 4695, 21 ए
दरियागंज, नई दिल्ली-02 
कीमतः 295