Saturday 2 February 2013

परम्परा यूं ही नहीं बनती

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय

‘मीराबाई और भक्ति की आध्यात्मिक अर्थनीति’ स्त्रीवादी  लेखिका कुमकुम संगारी की एक महत्वपूर्ण शोध् की परिणति है जो साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालता है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस पुस्तक के माध्यम से लेखिका ने अपनी शोध् के माध्यम से मध्यकाल के रूढ़िवादी और कठोर पुरुष वर्चस्ववादी परम्परा पर प्रहार किया है और मध्यकाल में भक्तिधारा  की अहम स्तम्भ मीरा को पुरुषवादी अध्यात्म की मंडी में स्त्री  मुक्ति अभियान का अगुवा बना दिया है। दरअसल हिन्दी साहित्य का मध्यकाल एक ऐसा इतिहास है जहां राजवंशों में भीतर ही भीतर सत्ता के कई स्तर दिखाई देते हैं और इसी की पृष्ठभूमि में कुल-वंश और सामन्तशाही परम्परा का विस्तार हुआ। मीरा के माध्यम से कुमकुम संगारी ने उस वंश परम्परा पर कुठाराघात किया है जिसमें स्त्रियाँ  वंश की पहचान और प्रतिष्ठा की जरूरतों से बंधी  हुई थीं। इस काल में स्त्रियों को परिवार में पितृसत्तात्मक सुरक्षा तो प्राप्त थी लेकिन कहीं-न-कहीं वह जाति और लैंगिक असमता को दैनंदिन जीवन में दृष्टिगत करता एक दमनकारी ढ़ांचा था। लेकिन इस शोध् ने स्पष्ट कर दिया है कि जब वंश, कुल और जातिगत पितृसत्तात्मक अवधारणा  प्रबल हो रही थी तब भक्तिधारा  ने इस पर प्रहार किया और मीरा ने अपनी विचारधारा तथा कर्मणा शक्ति से पितृसत्ता के आदर्शों और दासत्व के विभिन्न आयामों के लौकिक सत्ता को चुनौती दी। दरअसल इस शोध् में एक प्रश्न छिपा है जो इस बात का उत्तर तलाश रही है कि मीरा को पितृसत्तात्मक समाज के विरूद्ध, संत की भूमिका के साथ-साथ समर्पण, पारिवारिक बगावत का प्रतिमान, स्त्री  का ऐसा स्वरूप जिसने सामन्तशाही, राजशाही पितृसत्ता के विरूद्ध  संघर्ष किया है, सामाजिक नियमों की आलोचिका आदि किस प्रतिरूप में प्रस्तुत किया जाए। कुमकुम संगारी ने मीरा के उस रूप को व्यक्त किया है जहां उनका समर्पण भाव काफी प्रबल होता है तभी तो वे अपने पति के लिए दैहिक रूप से अनुपस्थित रहती हैं क्योंकि वे मानती हैं कि उनका विवाह स्वप्न में कृष्ण से हो चुका है। लेकिन मीरा का यह समर्पण, पति के लिए उनकी उदासीनता और कृष्ण के प्रति उनका प्रेम उनके पति और ससुर द्वारा व्याभिचार माना जाता है। मीरा ने परिवार और पति की प्रताड़ना के बीच सन्तत्व तथा उससे प्राप्त आध्यात्मिक शक्तियों को स्थापित किया। इस शोध् ने मीरा को इस रूप में प्रस्तुत किया है जो पथभ्रष्ट कृतघ्न पत्नी बनकर वह न सिपर्फ सामाजिक अपेक्षाओं से मुक्ति पा लेती हैं बल्कि उन्हें स्वाधीनता, परितृप्ति, आत्मिक विकास तक प्राप्त हो जाता है। शायद इसी वजह से वो इनसानों से रक्त और विवाह से किसी सम्बन्ध् को नहीं मानती और पति के शरीर के साथ चिता में जलने से इनकार कर देती हैं। यानि संन्यासिन के रूप में मीरा सामान्य जीवन की असमता के सम्पूर्ण तंत्र को तुच्छ मानकर उससे दूरी बनाए रखती हैं और मीरा द्वारा प्रतिपादित यही अवधरणा पुष्ट होकर बुर्जुआवाद और पितृसत्तात्मक समाज के लिए चुनौती पेश करती है। 
बहरहाल इस शोध् में मीरा के माध्यम से कुमकुम संगारी ने उस संस्थान पर चोट किया है जो स्त्री को लैंगिक और जातिगत बन्धनों  के पाश में बांध्कर पराधीन बनाए रखने का उपक्रम करते हैं। लेकिन इस संघर्ष में मीरा कहीं विचलित नहीं होती। वे पितृसमाज के दासत्व से स्त्री समाज को उबारने में सफल रहती हैं अर्थात् उन्होंने उस शाप को उपहार बना दिया जहां स्त्री  जन्म पाने का बोझ पूर्वजन्मों के पापों का फल माना जाता है। इससे तत्कालीन शासक वर्ग राजनीतिक और सामाजिक पराजय की अनुभूति करता है और मीरा का उद्देश्य भी यही था। इस शोध् को पुस्तक का रूप देते हुए कुमकुम संगारी तथा अनुवाद करते हुए अनुपमा वर्मा ने शाब्दिक भाव, रचाव और भाषा शिल्प का पूरा ध्यान दिया है। भूमिका लिखते हुए अनामिका ने भी शोध् की आत्मा का मंथन किया है और उसके मूल भाव का सहेजा है। 
मीराबाई और भक्ति की आध्यात्मिक अर्थनीतिः कुमकुम संगारी
अनुवादः डॉ अनुपमा वर्मा
वाणी प्रकाशन, 4695, 21 ए
दरियागंज, नई दिल्ली-02 
कीमतः 295

No comments:

Post a Comment