Sunday 10 March 2013

स्त्री विमर्श: अनुभव के शब्द


अजय पाण्डेय
यह कितना विरोधाभाष  है कि जब वैश्विक विचार-विमर्श में नारी-सशक्तिकरण की बात हो रही है, उनकी सहभागिता को अहम बताया जा रहा है तब उसी वैश्विक परिदृश्य में लैंगिक असमानता, जाति, धर्म आदि को प्रासंगिक बना दिया जाता है। सात जिन्दगियों में लिपटा नारी-विमर्श ‘संगतिन-यात्रा’ वैश्विक नारी-विमर्श के इसी विरोधाभाष पर सवाल खड़ी करती है। उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर सीतापुर की पृष्ठभूमि पर रची-बसी यह पुस्तक उन लेखिकाओं के ऐसे अनुभवों की प्रस्तुति है जिन्होंने समाज, परिवार और रिश्तों के दायरे में रहकर प्राप्त किया है। अनुपम लता, रामशीला, रेशमा अंसारी, विभा बाजपेयी, शशि वैश्य, शशिबाला, सुरबाला, ऋचा  सिंह और ऋचा नागर ये वो लेखिकाएं हैं जो साहित्य सृजन की परम्परा और शैली से परे एक ऐसी विषय-वस्तु प्रस्तुत करती हैं जहां बहस और विमर्श के लिए सिर्फ और सिर्फ समाज की स्त्रियों  के प्रति सोच ही केन्द्र में रह जाता है। दरअसल यह पुस्तक सात लेखिकाओं के माध्यम से सात अलग-अलग समूहों का प्रतिनिधित्व  करती हैं जिसमें अलग-अलग पृष्ठभूमि, जाति, धर्म , उपेक्षित और दलित महिलाएं शामिल हैं। ये वो महिलाएं हैं जो अपना और अपने परिवार के जीवन को सहारा तथा बेहतर बनाने के लिए विषम परिस्थितियों में नौकरी करती हैं लेकिन धीरे धीरे  ऐसे हालात उत्पन्न होने लगते हैं जिससे उनको वो नौकरी संघर्ष का प्रतिरूप लगने लगता है। इन परिस्थितियों में उनके मन में उद्वेलन की नमी पाकर सवालों के कुछ बीज प्रस्फुटित  होते हैं लेकिन उनकी इस उत्कंठा का कहीं जवाब नहीं मिलता। यही उत्कंठा उनके मन में एक ऐसी योजना बनाती है जो उन्हें खामोश जिन्दगी से बाहर निकाल सके। इन महिलाओं ने एकमुखी रूप अख्तियार नहीं किया, बल्कि कोरस, जहां सबके जीवन के तार को झंकृत किया जा सके। नारी-विमर्श को लेकर जब चर्चा होती है तो अक्सर देखा जाता है कि किसी समुदाय विशेष की बात होती है लेकिन इस पुस्तक में इतना सटीक संतुलन है कि यहां समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व  किया गया है और उनकी दैनंदिन अनुभूतियों को शब्द दिया गया है। ये सातों पात्र दलित नहीं हैं, उनमें ब्राह्मण से लेकर मुस्लिम और रैदास भी हैं, उनकी आर्थिक स्थिति भी एक जैसी नहीं है, उनके पति, मायके और ससुराल वाले भी अलग-अलग हैं फिर  ऐसा क्या है जो उन्हें एकसाथ आने पर विवश कर रही है। शायद उनका एहसास। ये उनका एहसास ही तो है जो उनके मन में उबरने की चाहत पैदा करता है, उनकी भावनाओं को शब्द दे रहा है, उनकी सोच को मुखरित कर रहा है। ‘संगतिन’ समूह की ये सदस्यायें जिन्हें शायद ही कभी इल्म हो कि ये कभी लेखिकाएं बनेंगी लेकिन वर्तमान में जो संवेदनात्मक लेख प्रस्तुत किया है उससे तो स्पष्ट है कि ज्ञान के हर पैमाने पर राजनीति होती है। तभी तो जब स्त्री -विमर्श पर चर्चा होती है तो देखा जाता है कि उसमें कौन से लोग उस विमर्श में अपनी बात रखने के काबिल समझे जाते हैं, कौन उस पर हिन्दी-अंग्रेजी में रिपोर्ट तैयार करता है और किसे सिर्फ नुमाइश के लिए बुलाया जाता है। इस समूह की महिलाओं ने असमानता का अनुभव किया था, इन्हें गहराई से महसूस किया था और यह पुस्तक उसी  एहसासों, व्यक्तिगत तकलीफों का मुखर प्रतिबिम्ब है। हालांकि इस पुस्तक के विकास के क्रम में एक सूक्ष्म प्रश्न को भी उठाया गया है कि इस पुस्तक में स्त्रियों  के जीवन के स्याह पक्ष को ही क्यों व्यक्त किया गया है? उन्हें ससुराल की वही बातें क्यों याद हैं जब उन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में भी काम करना पड़ता था, सास-ननद के ताने सुनने पड़ते थे और पति को अपनी खुशी की तिलांजलि देकर खुश रखना होता था। ऐसा तो नहीं कि ससुराल में खुशियों के पल आए ही नहीं, अगर आए तो उनकी यादें शेष क्यों नहीं हैं? या पिफर ऐसा हुआ कि सपनों के बिखर जाने की पीड़ा ने खुशियों के उस पल को धूमिल  कर दिया है। 

मानो उनके लम्हे फिसल गए। उनके जीवन में ऐसे कई पल आए जब शादी को इस रूप में व्यक्त किया गया जैसे ‘पूरे अस्तित्व पर किसी और का कब्जा’। इस पुस्तक की सबसे अच्छी बात यह है कि इसमें विभिन्न खंडों के माध्यम से उनकी हर परिस्थिति का पृथक अवलोकन किया गया है। किसी की बेटी से लेकर किसी की मां बनने तक के सपफर को बड़ी मार्मिकता से यथावत रख देना ही इसका सबल पक्ष है। इस बात इंकार नहीं किया जा सकता है कि आज भी समाज में ऐसी जातिगत और पारिवारिक बंधन  है जहां औरत की हदें चहारदीवारी के भीतर तय कर दी जाती हैं। यह पुस्तक संदेश है उन लोगों के लिए जो आज भी विकल्पहीनता को ही विकल्प मानते हैं और पुरुष वर्चस्व की वकालत करते हैं। दरअसल ‘संगतिन-यात्रा’ सामाजिक सरोकार और दायित्व का एक मार्ग प्रशस्त करती है जिससे दूर तक दृष्टि जाती है। इस पुस्तक में न तो कोई भाषागत जटिलता है और न ही शैली तथा परम्परा की छाप। यह तो अवधरणा की नई शैली है जो सामाजिक रूढ़ियों के विरूद्ध  एक नया मोर्चा तैयार करती है।

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