Saturday 23 February 2013

पन्नों से झांकती वेदना


अजय पाण्डेय
मैत्रेयी  पुष्पा की पहचान हमेशा स्त्रीवादी  विचारों को उत्प्रेरित के लिए रही है। इसमें कोई शक नहीं कि उन्होंने अपनी ख्याति के अनुरूप समाज और परिवार में स्त्रियों  की वास्तविकता को प्रस्तुत किया है। ‘फाइटर की डायरी’ भी इसी कड़ी की एक प्रस्तुति है जो हरियाणा की पृष्ठभूमि पर रची-बसी है। दरअसल यह पुस्तक भारतीय लोकतंत्र का दस्तावेज है जहां समाज में प्रतिपल-प्रतिक्षण संवैधानिक  मर्यादा का मर्दन होता है। यह पुस्तक एक ‘कनेक्टिंग लिंक’ है जो हरियाणवी समाज को उन तमाम लड़कियों से जोड़ती है जो उन्मुक्त होकर अपनी पहचान स्थापित करना चाहती हैं लेकिन उनका परिवार, समाज और परम्परा उन्हें किसी और ही भूमिका में देखना चाहता है। यह डायरी उन तमाम लड़कियों का प्रतिनिधित्व  करती है जिन्होंने उस समाज में रहते हुए एक अज्ञात भय का सामना किया है।
13 अध्यायों में विभाजित यह पुस्तक प्रत्येक खंड में उन लड़कियों की ऐसी वेदना को समेटे हुए है जिन्हें आगे बढ़ने की चाह में, स्वावलम्बी बनने की चाह में अपनों द्वारा ही मिली है। कितना ताज्जुब है कि जब देश में नारी सशक्तिकरण की बात हो रही है, महिलाओं की सहभागिता को जोर-शोर से बढ़ावा दी जा रही है तब देश के कुछ हिस्सों में उनकी सहभागिता या विकास को परम्परा के नाम पर परछिन्न किया जा रहा है। हालांकि इस पुस्तक में शामिल सभी 
पात्रों की व्यथाएं आखिरी सत्य नहीं हो सकतीं। क्योंकि  समाज महज लता, हिना, पुष्पा, सोनू, गीता या फिर रुचि जैसी लड़कियों से नहीं बना है यहां और भी लड़कियां हैं जिनके सपनों को उड़ान भरते देखा गया है, जिन्होंने अपने समाज और परिवार की आंखों से न सिर्फ सपने देखे बल्कि उसे पूरा भी किया। और ये लड़कियां उसी पृष्ठभूमि से हैं जिसकी नींव पर यह पुस्तक पल्लवित होती है। 
 लेकिन फिर भी इस आधार  पर पुस्तक की मौलिकता को कमतर करके नहीं आंका जा सकता। आज इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि समाज के किसी भी स्तर पर महिलाओं को उपभोग की वस्तु नहीं माना जाता, उसकी हदें परिवार और उसकी जरुरतों को पूरा करने तक ही सीमित मानी जाती है। यह पुस्तक ऐसे समाज की सच्चाई बताती है जहां स्त्री  और पुरुष की परिभाषा गढ़ दी गई है वहां समाज स्त्रियों  की दूसरी भूमिका नहीं बर्दाश्त करता। समाज आज भी उसी दकियानूसी सोच और परम्परा को पोषित कर रहा है जहां स्त्री -पुरुष के कार्यों का बंटवारा हुआ था। उसे अपनी बहू-बेटियों की तकदीर और भविष्य घर की चारदीवारी में ही सुरक्षित नजर आते हैं।
 मैत्रेयी जी इस पुस्तक में पुरुष वर्चस्ववादी समाज पर चोट करती नजर आती हैं। इसमें शामिल पात्र तो एकमात्र जरिया हैं जिनके माध्यम से समाज का कुत्सित चेहरा सामने आता है। ये वही समाज है जहां परम्परा और परिवार की इज्जत के नाम पर लड़कियों  की बलि ली जाती है, जहां आज भी लड़की की शादी करके मुक्त होने की धारणा  पुष्ट होती है। दरअसल यह पुस्तक समाज के उस प्रतिमान का प्रतिरूप है जहां लड़कियों को दहेज का दंश झेलना पड़ता है लेकिन पुरुष समाज उसी में अपनी तरक्की और विकास के निहितार्थ तलाश रहा है। मैत्रेयी पुष्पा इस पुस्तक से समाज के दोहरे चरित्र पर से पर्दा उठाने का कार्य बखूबी करती हैं लेकिन इन सबके बीच वो पुस्तक के शाब्दिक विस्तार को कम नहीं होने देती। उनका शब्द चयन, भाषा की मौलिकता पुस्तक की प्रमाणिकता को प्रस्तुत करती है। पात्रों की व्यथा को यथावत रूप में प्रस्तुत करने की कला इस पुस्तक को एक नया आयाम देने का कार्य करती है। 
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