Saturday, 2 February 2013

सलाखों के पीछे से झांकती सच्चाई


पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय

अभी हाल में कश्मीर में भारत और पाकिस्तान की सीमा पर जो घटनाएं हुई हैं और पाक के जो नापाक इरादे जाहिर हुए हैं उसके आलोक में पाकिस्तान में मानवाधिकार  कार्यकर्ता और वहां की जेल में बंद भारतीय मुल्क के कैदी सरबजीत सिंह के वकील अवैश शेख़ की पुस्तक ‘सरबजीत सिंह की अजीब दास्तान’ का  अध्ययन काफी महत्वपूर्ण हो जाता है। दरअसल यह पुस्तक वास्तव में सरबजीत सिंह की उस दास्तान को प्रस्तुत करती है जो उसने एक गलत पहचान के कारण अनुभव किया है। यह पुस्तक सरबजीत सिंह के 22 साल के उस स्याह जीवन पर से पर्दा उठाती है जो उसने सलाखों के पीछे बीता दी। यह पुस्तक प्रमाण है उस बात की जहां भारत और पाकिस्तान के बनते-बिगड़ते रिश्ते सरबजीत सिंह और उसकी रिहाई को प्रभावित करते रहे। यह पुस्तक सरबजीत सिंह की तरफ से केस लड़ते हुए अवैश शेख़ का अनुभव है जिसमें उन्होंने बड़ी साफगोशी से केस के हर पक्ष पर तटस्थ रहते हुए प्रकाश डाला है। इस केस के सन्दर्भ में वे पाक सरकार, कट्टरपंथ, पुलिस और मीडिया सबकी आंखों में किरकिरी बने हुए थे, इस दौरान उन्होंने उस दौर को भी देखा जब पाकिस्तान में उनके कार्यालय को निशाना बनाया गया और शहर में उनके पुतले जलाए गए। पाकिस्तान में उन्हें लोग कभी भारत के एजेन्ट कहते रहे तो कभी ये कहा कि वे ये सब सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए कर रहे हैं। बावजूद इसके उन्होंने तटस्थ होकर अपना और सरबजीत का पक्ष रखा। हालांकि सरबजीत सिंह के बारे में आम लोगों की अज्ञानता के लिए पाक हुकूमत ही दोषी है क्योंकि उसे भारतीय गुप्तचर और फैसलाबाद और लाहौर में बम धमाके  का दोषी ठहराया गया। 
पुस्तक का जब क्रमवार अध्ययन करते हैं तो एक नाम आता है मंजीत सिंह का।  दरअसल यह वही मंजीत है जो फैसलाबाद और लाहौर में हुए बम धमाके  में संलिप्त था लेकिन गलत पहचान ने उस सरबजीत सिंह को भारतीय आतंकवादी घोषित कर दिया जो 29-30 अगस्त, 1990 की रात को गलती से पाकिस्तानी सीमा में चला गया था तथा बिना किसी वास्तविकता को सामने लाए उसका ट्रायल कर दिया गया और सुना दी गई फांसी की सजा। पुस्तक में पृष्ठांकित ये दस्तावेज इस बात को पुष्ट करते हैं कि यह पूरा मामला गलत पहचान से जुड़ा है और सरबजीत सिंह को जो सजा सुनाई गई है वो दरअसल में मंजीत सिंह को सुनाई गई थी लेकिन पाकिस्तानी कानून और पुलिस की लापरवाही ने न सिर्फ मंजीत सिंह को पाकिस्तान से बाहर निकलने में मदद की बल्कि सरबजीत सिंह को मौत के मुंह में धमाके  दिया। पुस्तक के अन्य पक्ष की जब बात करते हैं तो यह स्पष्ट है कि यह पुस्तक एक दस्तावेज है, एक आपबीती है जिसमें लेखक ने 22 सालों से दूसरे मुल्क की जेल में बंद सरबजीत सिंह द्वारा अपने परिवार और भारत सरकार को लिखे पत्र को भी शामिल किया है जो अपनी मार्मिकता से पुस्तक को और प्रभावी बना देता है। इन सबके बीच सरबजीत के परिवार विशेषकर उसकी बहन दलबीर कौर और उसकी दोनों बेटियां पूनमदीप और स्पप्नदीप के साहस और उनके हौंसले को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जिन्होंने सरबजीत के केस को न सिर्फ हिन्दुस्तान में बल्कि पाकिस्तान में भी जिन्दा रखा है। हिन्दुस्तान में समय-समय पर सरबजीत सिंह की रिहाई के लिए जो अभियान चलाए जा रहे हैं वो भी महत्वपूर्ण कड़ी हैं। पुस्तक इस परत पर से भी पर्दा उठाने का कार्य करती है कि सरबजीत सिंह को लेकर पाकिस्तान में जनमानस की सोच बदलने लगी है। पुस्तक इस लिहाज से सराहनीय है कि इसके आखिरी परिशिष्ट  में उन भारतीय कैदियों के नाम और पते बताए गए हैं जो वर्षों से पाकिस्तानी जेल में बंद हैं। 
बहरहाल सरबजीत सिंह मामले को लेकर अवैश शेख़ की यह मुहिम काफी सराहनीय है। सरबजीत को लेकर पाकिस्तान या भारत में जो शंकाएं व्याप्त हैं उसे  दूर करने में यह पुस्तक काफी  सहयोग करेगी और लेखक का उद्देश्य भी यही है। इस पुस्तक में पाकिस्तानी पक्ष की कई तल्ख़ सच्चाइयां छिपी हैं जिसे लेखक ने अब तक जांच-पड़ताल में देखा और अनुभव किया है। 
सरबजीत सिंह की अजीब दास्तानः अवैस शेख़
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.
1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग
नई दिल्ली- 110 002
कीमतः 195रु.

परम्परा यूं ही नहीं बनती

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय

‘मीराबाई और भक्ति की आध्यात्मिक अर्थनीति’ स्त्रीवादी  लेखिका कुमकुम संगारी की एक महत्वपूर्ण शोध् की परिणति है जो साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालता है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस पुस्तक के माध्यम से लेखिका ने अपनी शोध् के माध्यम से मध्यकाल के रूढ़िवादी और कठोर पुरुष वर्चस्ववादी परम्परा पर प्रहार किया है और मध्यकाल में भक्तिधारा  की अहम स्तम्भ मीरा को पुरुषवादी अध्यात्म की मंडी में स्त्री  मुक्ति अभियान का अगुवा बना दिया है। दरअसल हिन्दी साहित्य का मध्यकाल एक ऐसा इतिहास है जहां राजवंशों में भीतर ही भीतर सत्ता के कई स्तर दिखाई देते हैं और इसी की पृष्ठभूमि में कुल-वंश और सामन्तशाही परम्परा का विस्तार हुआ। मीरा के माध्यम से कुमकुम संगारी ने उस वंश परम्परा पर कुठाराघात किया है जिसमें स्त्रियाँ  वंश की पहचान और प्रतिष्ठा की जरूरतों से बंधी  हुई थीं। इस काल में स्त्रियों को परिवार में पितृसत्तात्मक सुरक्षा तो प्राप्त थी लेकिन कहीं-न-कहीं वह जाति और लैंगिक असमता को दैनंदिन जीवन में दृष्टिगत करता एक दमनकारी ढ़ांचा था। लेकिन इस शोध् ने स्पष्ट कर दिया है कि जब वंश, कुल और जातिगत पितृसत्तात्मक अवधारणा  प्रबल हो रही थी तब भक्तिधारा  ने इस पर प्रहार किया और मीरा ने अपनी विचारधारा तथा कर्मणा शक्ति से पितृसत्ता के आदर्शों और दासत्व के विभिन्न आयामों के लौकिक सत्ता को चुनौती दी। दरअसल इस शोध् में एक प्रश्न छिपा है जो इस बात का उत्तर तलाश रही है कि मीरा को पितृसत्तात्मक समाज के विरूद्ध, संत की भूमिका के साथ-साथ समर्पण, पारिवारिक बगावत का प्रतिमान, स्त्री  का ऐसा स्वरूप जिसने सामन्तशाही, राजशाही पितृसत्ता के विरूद्ध  संघर्ष किया है, सामाजिक नियमों की आलोचिका आदि किस प्रतिरूप में प्रस्तुत किया जाए। कुमकुम संगारी ने मीरा के उस रूप को व्यक्त किया है जहां उनका समर्पण भाव काफी प्रबल होता है तभी तो वे अपने पति के लिए दैहिक रूप से अनुपस्थित रहती हैं क्योंकि वे मानती हैं कि उनका विवाह स्वप्न में कृष्ण से हो चुका है। लेकिन मीरा का यह समर्पण, पति के लिए उनकी उदासीनता और कृष्ण के प्रति उनका प्रेम उनके पति और ससुर द्वारा व्याभिचार माना जाता है। मीरा ने परिवार और पति की प्रताड़ना के बीच सन्तत्व तथा उससे प्राप्त आध्यात्मिक शक्तियों को स्थापित किया। इस शोध् ने मीरा को इस रूप में प्रस्तुत किया है जो पथभ्रष्ट कृतघ्न पत्नी बनकर वह न सिपर्फ सामाजिक अपेक्षाओं से मुक्ति पा लेती हैं बल्कि उन्हें स्वाधीनता, परितृप्ति, आत्मिक विकास तक प्राप्त हो जाता है। शायद इसी वजह से वो इनसानों से रक्त और विवाह से किसी सम्बन्ध् को नहीं मानती और पति के शरीर के साथ चिता में जलने से इनकार कर देती हैं। यानि संन्यासिन के रूप में मीरा सामान्य जीवन की असमता के सम्पूर्ण तंत्र को तुच्छ मानकर उससे दूरी बनाए रखती हैं और मीरा द्वारा प्रतिपादित यही अवधरणा पुष्ट होकर बुर्जुआवाद और पितृसत्तात्मक समाज के लिए चुनौती पेश करती है। 
बहरहाल इस शोध् में मीरा के माध्यम से कुमकुम संगारी ने उस संस्थान पर चोट किया है जो स्त्री को लैंगिक और जातिगत बन्धनों  के पाश में बांध्कर पराधीन बनाए रखने का उपक्रम करते हैं। लेकिन इस संघर्ष में मीरा कहीं विचलित नहीं होती। वे पितृसमाज के दासत्व से स्त्री समाज को उबारने में सफल रहती हैं अर्थात् उन्होंने उस शाप को उपहार बना दिया जहां स्त्री  जन्म पाने का बोझ पूर्वजन्मों के पापों का फल माना जाता है। इससे तत्कालीन शासक वर्ग राजनीतिक और सामाजिक पराजय की अनुभूति करता है और मीरा का उद्देश्य भी यही था। इस शोध् को पुस्तक का रूप देते हुए कुमकुम संगारी तथा अनुवाद करते हुए अनुपमा वर्मा ने शाब्दिक भाव, रचाव और भाषा शिल्प का पूरा ध्यान दिया है। भूमिका लिखते हुए अनामिका ने भी शोध् की आत्मा का मंथन किया है और उसके मूल भाव का सहेजा है। 
मीराबाई और भक्ति की आध्यात्मिक अर्थनीतिः कुमकुम संगारी
अनुवादः डॉ अनुपमा वर्मा
वाणी प्रकाशन, 4695, 21 ए
दरियागंज, नई दिल्ली-02 
कीमतः 295

Friday, 25 January 2013

अंतहीन सड़क पर गुलज़ार



पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय

इस पुस्तक को पढ़ते हुए मन बार-बार एक ही सवाल आ रहा है कि इस पुस्तक के लिए किसका शुक्रगुजार होना चाहिए और किसकी तारीफ की जानी चाहिए। गुलज़ार की, जिन्होंने काव्य श्रृंखला की एक ऐसी आभासी दुनिया बनाई है जिसे किसी परम्परा और समय विशेष में नहीं बांध जा सकता या  फिर विनोद खेतान की जिन्होंने गुलजार के लिखे गीतों,  कविताओं के इस संग्रह से हिन्दी संकलन को और ज्यादा समृद्ध  किया है। 
दरअसल उम्र से लम्बी सड़कों परः गुलज़ार,   विनोद खेतान द्वारा गुलजार की उन रचनाओं को संग्रहित कर अपनी भाषा दी गई है जो समय के साथ कदमताल करते हुए कालजीवी बन गई हैं। विनोद खेतान इस पुस्तक को मूर्त रूप देते हुए गुलज़ार की रंगों में नजर आते हैं क्योंकि उन्होंने इस पुस्तक को जिस अंदाज में प्रस्तुत किया है वो कहीं-न-कहीं गुलजार की भाषा बोलती नजर आती है। आज हिन्दी साहित्य में गुलज़ार पर लिखी पुस्तक को पढ़ते हुए लगता है कि क्या ये वही गुलज़ार हैं जो लम्बे समय तक हिन्दी साहित्य में अनजान बने रहे वो भी सिर्फ इसलिए कि उनकी पहचान फिल्मों  से है। लेकिन तब जो भी हुआ हो आज गुलज़ार जिस अंतहीन सड़क पर हैं वहां उन्हें शब्दों और सीमाओं में बंधना गुस्ताखी है क्योंकि उन्हें लम्हों में कैद नहीं किया जा सकता। हालांकि इस पुस्तक में विनोद खेतान ने अपनी व्यक्तिगत पसंद के नज्मों को शामिल किया है लेकिन इससे परे भी जो रचनाएं हैं या फिर  इसमें जो शामिल हैं वे ऐसी रूहानी शब्दों की कड़ी से जुड़ी हैं जो मानस पटल पर एक आभा बनाती हैं, उसमें एक ऐसा बिम्ब होता है जो कौंधता  है। अर्थात यह पुस्तक गुलज़ार द्वारा फिल्मों  के लिए लिखी गई रचनाओं में छिपी काव्य रस को दर्शाता है। समय की सीमा से परे लिखने वाले गुलज़ार को हो सकता है कि आम समाज संदेह की दृष्टि से देखता हो क्योंकि उनकी लेखनी हमेशा आभासी लगने वाले फिल्मी  संसार को ही आलोकित करती रही। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि फिल्में  भी हमारे समाज की आइना होती हैं उसमें भी वही विषय-वस्तु होती है जो हमारे आसपास के समाज में घटित होती हैं। ऐसे में गुलज़ार ने जो कुछ भी लिखा वे परिस्थितिजन्य थी। उनकी कविताएं वे चाहे जिस भाव से पैदा हुईं हो उनमें समय के साथ तारतम्य बैठाने की काबिलियत होती थी। उन कविताओं में वे सभी सार थे जो समय के साथ साक्षात्कार कर सकें और समय उन कविताओं में झांककर अपनी परछाईं देख सके। इस पुस्तक को पढ़कर इतना तो समझा जा सकता है कि गुलजार ने फिल्मों  के लिए जो रचनाएं लिखी हैं उसका दायरा न सिर्फ व्यापक है बल्कि उसके आकर्षण का दायरा भी इतना बड़ा है कि उसकी जद से बचा नहीं जा सकता। और शायद विनोद खेतान भी वही कर रहे हैं। यानि गुलज़ार की रचनाओं के काव्य रसों को रेखांकित कर रहे हैं और अगर यह कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह पुस्तक भी उसी का परिणाम है। 

पुस्तक को पढ़ते हुए आभास होता है कि एक ऐसा रचनाकार जिसकी रचनाएं उस पृष्ठभूमि के लिए तैयार की गई है जहां जीवन के हर पल का अतिनाटकीय ढंग से प्रस्तुत की जाती है वहां उसकी रचनाओं में एक गंभीरता है, एक ठहराव है, जिसके खामोश शब्द भी जीवन के फलसफा को कह जाते हैं यानि जहां खामोशी भी बोलती है और ऐसी बोलती है कि ‘बहते हुए आसुओं  से ज्यादा तकलीफ पलकों पर ठहरे मोती पैदा करते हैं’। फिर  भी उन्हें जिन्दगी से कोई नाराजगी नहीं बस उसके मासूम सवाल से परेशान हैं। दरअसल विनोद खेतान ने गुलज़ार की उस  खामोशी को बयां किया है जिसमें उन्होंने जिन्दगी के अकेलेपन, खालीपन और उदासी को इतना मुखर कर दिया है कि बेजान पड़ी सूनी आंखों ने कह दिया कि ‘मैं एक सदी से बैठी हूं, इस राह से कोई गुजरा नहीं, कुछ चांद के रथ तो गुजरे थे, पर चांद से कोई उतरा नहीं’। गुलजार की नज़्मों में इतनी विविधता  है कि जब वे नई पीढ़ी के लिए ‘कजरारे-कजरारे तेरे कारे-कारे नैना’ लिखते हैं तो उसमें भी एक शायर मन को यह कहने से नहीं रोक पाते कि ‘तेरी बातों में किमाम की खुशबू है, तेरा आना भी गर्मियों की लू है’। 

दरअसल गुलज़ार ने जितनी भी रचनाएं लिखी हैं वे सभी सार्थकता को मूर्त रूप देते हैं, उनमें ऐसा अक्स उभरता है जो भावनाओं के विस्तार में गोता लगाती नजर आती है। फिल्मों  के लिए लिखते समय उनके भाव सहजता को संजाए रहता है। यानि फिल्मों  में संगीत की जो अनुकूल प्रभाव की जरूरत होती है, कहानी के बीच में गानों की जो   प्रासंगिकता होती है उसे गुलज़ार के गीतों ने और ज्यादा सार्थक बना दिया है। उनकी गीतों से गुजरते हुए यह एहसास होता है कि उनमें एक अल्हड़पन है जो कभी पड़ोसी के चूल्हे से आग मांगने को कहता है तो कभी कहता है कि ‘गोली मार भेजे में, भेजा शोर करता है’। लेकिन जब वे कहते हैं कि ‘इतना लम्बा कश लो यारों, दम निकल जाए, जिन्दगी सुलगाओ यारो, गम निकल जाए’। तो इतना साफ हो जाता है कि वे जिन्दगी को हर तरह से जीने का भाव देते हैं और उन भावों को शायरी की शक्ल में ढाल देना ये तो गुलज़ार की खासियत है। और इतना ही नहीं जिस तरह वे जिंदगी को समझते हैं उसी तरह मौत को भी एक कविता समझते हैं जैसे ‘मौत तू एक कविता है, मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको’। 
बहरहाल गुलज़ार ने जो बात कही और जो नज़्म लिखे चाहे वे लफ्जों , प्रतीकों और प्रसंग के हिसाब से सार्थकता बैठाने में जो भी मुश्किलें पैदा करते हों लेकिन असल में वे एक कोशिश है जो जिन्दगी की जद्दोजहद से जूझने का सलीका बताती है। इस पुस्तक के बारे में लिखते समय शब्द बेशक कम पड़ जाते हैं लेकिन गुलजार के नज्मों की विवेचना कम नहीं होती। विनोद खेतान की यह पुस्तक गुलजार के लिखे गए गीतों का एक विश्लेषित रूप है। यहां लेखक की तारीफ करना होगा कि उन्होंने गुलज़ार साहब के गीतों का सूक्ष्म और गहनता से अध्ययन किया और जैसा कि उन्होंने  कहा भी है कि ये पुस्तक गुलज़ार के गानों को समझने की कोशिश में लिखी गई है।


AMAR BHARTI (HINDI DAILY)
Pratap Bhawan, 5, Bahadurshah Zafar Marg,
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Saturday, 19 January 2013

भारत का साप्ताहिक इतिहास


पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय

वरिष्ठ पत्रकार शशि शेखर की यह पुस्तक ‘मिटता भारत बनता इंडिया’ एक ऐसे समसामयिक लेखों का संग्रह है जो सर्वकालीन परिवेश का जीवंत उदाहरण है जिसमें राजनीति और प्रशासन की दुरवस्थाओं के बीच मिटते भारत और बनते इंडिया को दर्शाया गया है। लेकिन ये इंडिया नकारात्मक न होकर शशि शेखर की सकारात्मक सोच और अर्थों में पल्लिवत हो रहा था। दरअसल यह इंडिया वैश्वीकरण के कंधे  पर तो सवार है लेकिन उसने पश्चात्य सभ्यता और मॉडल की अंगुली तक नहीं पकड़ी है जो इस बात की परिचायक है कि देश जब बुनियादी निराशा में जकड़े भविष्य के प्रति नकारात्मक सोच पाल रहा था तब शशि शेखर ने अपने लेखों से विकास के नजरिए को सकारात्मक आयाम दिया और विकास को पहचानने का प्रयास किया। वैसे यह कहा जाए कि उन्होंने अपने लेखों में ‘माइक्रोजर्नलिज्म’ का परिचय दिया है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि उन्होंने अपने लेखों में साप्ताहिक होने वाली उन सभी घटनाओं पर सूक्ष्म निगाह डाली है जो कहीं-न-नहीं देश और समाज को प्रभावित करता है। दरअसल ये वो लेख हैं जिनमें साप्ताहिक इतिहास को दर्ज किया गया है और जहां जनमानस की आमचेतना का सम्पूर्ण इतिहास सुरक्षित है। इन लेखों की खास बात यह है कि ये आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जब ये लिखे गए थे। समय-समय पर लिखे गए ये लेख एक मंच प्रदान करते हैं जहां समय के साथ बहस किया जा सके, उसके साथ साक्षात्कार किया जा सके। उनके लेखों ने उदारीकरण, अर्थव्यवस्था, राजनीतिक गलियारों, वैश्विक परिस्थतियों, समेत पत्रकारिता की उठा-पटक आदि पर सूक्ष्मता से प्रकाश डाला है तभी तो वे जितनी सहजता से यह कहकर नई अर्थव्यवस्था पर चोट करते हैं कि ... आज हम उस बाजार में जा खड़े हुए हैं, जहां बाजार को हम नहीं, हमें बाजार खरीदता है। उतनी सहजता से बताते हैं कि पत्रकारिता अपने वास्तविक उद्देश्यों से किनारा कर चुकी है। हालांकि उनकी लेखनी किसी विषय विशेष की मोहताज नहीं थी जो उसका अनुकरण करे, वो तो स्वछंद थी स्वतंत्र लेखन के लिए। लेकिन साप्ताहिक घटनाक्रमों ने उन्हें पूरा मौका दिया। और उन्होंने ने भी किसी भी विषय को छुटने नहीं दिया। चाहे वो बांग्लादेश में होने वाली खूनी राष्ट्रवाद की आंधी  हो, कश्मीर में आतंक के अलाव पर संकट हो या फिर  बारूद की ढ़ेर पर बैठे पाकिस्तानी राजनीति की कहानी हो सबने उनकी लेखनी को उकसाया। उन्होंने इन मुद्दों से परे सबसे ज्यादा राजनीति पर कलम चलाया। राजनीति का यह परिवेश तमिलनाडु से लेकर कश्मीर, उत्तर प्रदेश तक पफैला हुआ था। हालांकि इस राजनीति का हिस्सा केन्द्र की नीतियां भी बनी जिसमें बजट से लेकर लोकपर्व और त्योहार शामिल हैं। 
इस पुस्तक में शामिल लेखों की परिधि यहीं समाप्त नहीं होती उन्होंने कुछ वास्तविक सम्स्यायों को भी गंभीरता से उठाया। जिसमें महिला बिल, बीमारू कहे जाने वाले राज्यों की समस्या, आतंकवाद की समस्या प्रमुखता से हावी रही हैं। हालांकि उन्होंने कुछ लेखों में अप्रत्यक्ष रूप से भी बुनियादी समस्याओं को भी उठाया है और उसमें उनके उपाय भी ढूंढ़ने का प्रयास किया है। इसके अलावा उन्होंने सदी के दशक के अंत पर उसका मूल्यांकन भी किया है जो ‘इस दशक के कुछ दुख-दर्द’ और ‘नए दशक से कुछ उम्मीदें और आशाएं’ नामक शीर्षक से शामिल हैं। इसमें से पहले लेख में जहां उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि आतंकवाद पर भारत और अमेरिका की सोच में कितना अंतर है। आतंकवाद पर अमेरिका का जुझारूपन भारत के लिए एक सबक है। आगे उन्होंने अमेरिका में हुए आर्थिक महामंदी पर भी प्रकाश डाला। हालांकि कि उन्होंने 21वीं सदी के पहले दशक को संशकित होकर देखा था। लेकिन उनके कुछ लेख इसी सदी के स्याह पक्ष में सुनहरे भविष्य की खोज करते नजर आते हैं। उनके कई लेख भारतीय समाज और राजनीति के पतन के बीच द्वंद्व करते नजर आते हैं। दरअसल वे स्पष्ट करते हैं कि जब राजनीति का धीरे-धीरे  क्षरण हो रहा है तब भारतीय समाज की चेतना एक नई उफर्जा के साथ सकारात्मक सोच को पल्लिवित कर रही है। 
इन सबके बीच शशि शेखर मध्य वर्ग को विशेष तरजीह देते नजर आते हैं। तभी तो उनकी नजर में समूचे एशिया में मध्यवर्ग बहुत तेजी से पनप रहे हैं और यही मध्यवर्ग तरक्की एक नया मार्ग प्रशस्त करते हैं क्योंकि इस वर्ग का विकास गरीबी के खिलापफ जीती हुई जंग है। बहरहाल मूल्यांकन स्वरूप शशि शेखर द्वारा लिखे गए साप्ताहिक इतिहास का यह संग्रह अपनी कुछ विशेषताओं के कारण आज भी प्रासंगिक है। इसमें शामिल सभी लेख सहज और स्पष्टवादी हैं जो दो टूक के अंदाज में प्रस्तुत होती हैं। इनमें कोई साहित्यिक गूढ़ता नहीं है बल्कि आम बोलचाल और समझ का तार्किक विवेचन है जो मानवीय संवेदना से लबरेज है। 
मिटता भारत बनता इंडियाः शशि शेखर
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.
1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग
नई दिल्ली- 110 002
कीमतः 600रु.
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AMAR BHARTI (HINDI DAILY)
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Friday, 16 November 2012

स्वयं को दोहराता इतिहास

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय
 
गंधर्वसेन , शरद पगारे की लिखी हुई एक औपन्यासिक कथा है जिसमें उज्जयिनी के कर्दम वंश का इतिहास और रहस्य छिपा है। दरअसल प्रारम्भिक रूप से यह उपन्यास कर्दम वंश के राजा चित्रसेन, सामंतसेन और हरिसेन पर आधारित  लगती है लेकिन गूढ़ रूप से अध्ययन करने पर यह कर्दम वंश के शिल्पकार, राजपुरोहित, राजमित्र, मार्गदर्शक और राजमित्र विष्णुगुप्त के इर्द-गिर्द घूमती है। अगर यह कहा जाए कि ‘गंधर्वसेन’ की उज्जयिनी के कर्दम वंश के सिंहासन तक पहुंचने की यात्रा के प्रस्तोता विष्णुगुप्त हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वे कर्दम वंश के हर उस दौर के साक्षी हैं जिस दौर से कोई राजतंत्र गुजरता है। 
क्षिप्रा नदी के तट पर बसा उज्जयिनी चित्रसेन के संरक्षण और विष्णुगुप्त के नेतृत्व में एक ऐसा राज्य था जो अपनी सुख और समृधि  पर इठलाता था, जहां क्षिप्रा युग-युगांतर से कर्दम वंश के राजाओं के पांव पखारती चली आ रही है, जहां घाटों, मंदिरों, देवालयों और शिवालयों में रसिकों, भक्तों, तीर्थयात्रियों की चहल-पहल से पूरा साम्राज्य मुखरित हो उठता था और इन सबसे परे स्थितप्रज्ञ योगी सा खड़ा था कर्दम वंश का प्रासाद, जो अपनी भव्य, गौरवमयी और यशस्वी इतिहास तथा प्रतापी राजाओं की परम्परा की नींव पर टिका था। लेकिन ‘गंधर्वसेन’ का कथानक भी एक परम्परागत शैली का आवरण ओढे़ एक राजतंत्रात्मक व्यवस्था का अप्रतिम उदाहरण बन गया है। राजव्यवस्था की इतिहास की परम्परा और उसकी विलासितापूर्ण जीवन शैली की पृष्ठभूमि पर आधारित  यह उपन्यास इतिहास लेखन श्रेणी की ऐसी कृति है जिसे लेखक ने बड़ी खूबसूरती से पेश किया है। 
शरद पगारे की यह पुस्तक ‘गंधर्वसेन’ के कर्दम वंश की गद्दी पर बैठने की कहानी है जिसे लेखक ने परिस्थिति, पात्रों, और कसी हुई भाषा को आधार  बनाकर एक अनुपम और पठनीय बना दिया है। जहां तक इस उपन्यास के कथानक की रचावट और बनावट की बात है तो लेखक ने कथानक के माध्यम से सभी पात्रों को सशक्त और प्रभावी बना दिया है। इसमें जीवित पात्रों के अलावा क्षिप्रा नदी को भी एक प्रमुख पात्र के रूप में प्रस्तुत की गई है, क्योंकि लेखक का कोई भी वर्णन बिना क्षिप्रा नदी के पूर्ण नहीं होती। इस पुस्तक में कथानक के बाद सबसे सबल पक्ष है इसकी भाषा। लेखक इस उपन्यास को भाषायी तौर पर सुदृढ़ बनाने के लिए जिस तरह अलंकारिक भाषाओं का प्रयोग किया है वो इसकी भाव प्रवणता को सम्पूर्ण आकार देता है और औपन्यासिक श्रृंखला में एक नया अध्याय जोड़ता है। अगर इस उपन्यास को कथानक के परे अवलोकित करें तो निश्चय ही भाषायी आधर पर एक अलग ही स्थान हासिल होगा। लेकिन लेखक उपन्यास लेखन की सभी विधाओं  के समुचित स्त्रोत को संतुलित रूप से पेश किया है जिसमें पुत्र वात्सल्य, राजप्रेम, छल-प्रपंच, राजद्रोह की भावना, आवेग आदि शामिल हैं, उपन्यास के विकासक्रम में समय-समय पर अपनी स्थिति स्पष्ट करते हैं। कुल मिलाकर ‘गंधर्वसेन’ के सत्तासीन होने की यात्रा  में कई कहानियां जुड़ती चली जाती हैं चाहे वो चित्रसेन की पृथक कहानी हो, सामंतसेन और उनकी भार्या द्वारा अपने ममत्व को त्याग कर दासी पुत्र हरिसेन को स्वपुत्र के रूप में पोषण करना हो या फिर  उसी हरिसेन के धीवरवंश  की कन्या श्यामली के प्रणयपाश में बंधकर  राजप्रासाद त्याग कर निर्वसन और अंत में मौत को अलिंगन कर अपने अपने पुत्रा गंधर्वसेन को अनाथ एक पड़ोसी के साथ छोड़ देने की कहानी हो, ये सभी पल गंधर्वसेन को उज्जयिनी की सत्ता के करीब पहुंचाते  हैं और इसी यात्रा की अप्रतिम व्याख्या   शरद पगारे ने अपने भाव प्रवणता और शाब्दिक विस्तार से किया है। 
गंधर्वसेन: शरद पगारे
वाणी प्रकाशन
4695, 21ए
दरियागंज, नई दिल्ली-02
मूल्यः 150 रु.

Friday, 2 November 2012

विस्मयकारी दुनिया से एक परिचय

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय
यतीन्द्र मिश्रा की लिखी यह पुस्तक ‘विस्मय का बखान’ कला के विभिन्न स्वरूपों और उनकी उपस्थितियों का सार है। यहां लेखक ने कला के विभिन्न रूपों पर एकाग्र होकर लेखनी को केन्द्रित किया है। कला के विभिन्न रूपों और लेखक द्वारा लिखे गए डायरियों, स्मृतियों, कला और कलाकारों की दुनिया तथा उनकी यात्रा का ‘विस्मय बखान’ है जो कला-यात्रा के प्रभावों की स्नेहिल स्पर्श तथा साहित्य और संस्कृति के समाज में कुछ जोश तथा जिज्ञासा के साथ समकालीनता का तारतम्य बैठाने का प्रयास है। मूलरूप से यह पुस्तक लेखक के पिछले कुछ सालों में समय-समय पर पत्रा-पत्रिकाओं में कलाओं पर लिखे गए निबन्धें का एक संचयन है जो बिना किसी कालक्रम की अवधरणा के तिथिवार प्रस्तुत किए गए हैं। लेखक ने इस पुस्तक को इस मायने में खास और रोचक बना दिया है कि पुस्तक लेखन के समय कला के विभिन्न मूर्धन्यों  और उनके बारे में लिखे गए स्मृति लेखों को भी सम्मिलित किए गए हैं जो इस पुस्तक को और ज्यादा पठनीय बनाते हैं। लेखक द्वारा लिखे गए तिथिवार डायरी, कला के विभिन्न रूपों पर जमे गर्द को साफ करने का कार्य करता है। चाहे वो शास्त्रीय  संगीत का क्षेत्रा हो, हुसैन की पेंटिग्स कला हो, लता मंगेश्कर की दैवीय आवाज हो या फिर साहिर लुधियानवी  द्वारा लिखे गए वो गाने हों जो जिन्दगी के मेलोड्रामा, प्रेम और विरह के बीच का अर्न्तद्वन्द्व, जंग और अमन, परिवार, समाज तथा राजनीति के विभिन्न भावालोकों से संवाद कराते हैं। ये सभी विषय इस संचयन का हिस्सा बनते हैं। 
इस संचयन खंड से जब बाहर निकलते हैं तो लेखक ने कला के विभिन्न रूपों के बहाने संगीत के विभिन्न शैलियों से रूबरू कराया है जिसे भाषा की निजी व स्वायत उपस्थिति ने उसे सम्पूर्ण आलोकित कर दिया है। लेखक ने भाषा का इस्तेमाल इस रूप में किया है कि कला के आवरण में कोई भी परिवर्तन या उतार-चढाव  हस्तक्षेप नहीं कर पाते हैं। हालांकि लेखक ने भाषा और कला के बीच के अंतर को भी स्पष्ट किया है। इस संचयन में  संगीत के एक ऐसे आवरण का वर्णन किया गया है जो इस आशय से शुरू होता है कि ‘अगर आप पहाड़ी सुनिएगा तो जंगल में जाना पड़ेगा।’ दरअसल यह खंड संगीत के विभिन्न राग और उसके परिवेश सृजन की अप्रतिम व्याख्या है। यहां संगीत के साथ नृत्य की परम्पराओं का भी जिक्र किया गया है और यह परम्परा रामजन्म के सोहर से लेकर कृष्ण-राध की लीलाओं पर आधरित नटवरी नृत्य को समेटे हुए नवाब वाजिद अली शाह की रास और कथक से मिलता एक नृत्य ‘रहस’ तक पहुंचती है और बड़ी तल्लीनता से बताती है कि संगीत और नृत्य के इस यात्रा में कितने संयोजन, राग-रागिनियों, श्रृंगारिक अभिव्यक्तियों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। लेखक ने अवध् के संगीत और उसकी परम्परा का बड़ी तसल्ली से जिक्र किया है। दरअसल यह अवधी  संगीत का व्यापक आवरण है जो अवध् के सन्तों, कवियों, गायकों, तवायफों, कथिकों, कीर्तन मंडलियों, नवाबों, वाग्गेयकारों एवं घरानों को समाहित किए हुए है। अवध् के संगीत की विशेषता यह है कि संगीत के तमाम उतार-चढावों के बावजूद शास्त्रीय य संगीत मुख्यधरा में बना रहा। इस क्षेत्र खंड की जितनी भी गायन और नृत्य की उपधराएं रहीं, उन्होंने एक समय विशेष में ख्यातिलब्ध  हुईं और वे धीरे धीरे  इतिहास का अंग बन गईं। इससे जब बाहर निकलते हैं तो हिन्दी फिल्म के आरम्भिक दौर और संगीत तथा नृत्य के आलोक में बाईयों के काल में प्रवेश करते हैं जहां फिल्मों  में संगीत के प्रारम्भिक दौर का विश्लेषण किया गया है साथ ही तत्कालीन समाज और राजघरानों के सांगितिक यात्रा का  भी वर्णन किया गया है। लेखक ने तवायफों और बाईयों के उस दौर का जिक्र किया है जब पिफल्मी दुनिया में उनके संगीत और नृत्यों का दबदबा सर्वाधिक था। लेकिन यहां यह भी स्पष्ट है कि सिनेमा के बदलते दौर ने उन्हें गुमनामी के स्याह गर्त में धकेल  दिया। पुस्तक के आखिरी खंड में स्मरण के रूप में पं मल्लिकार्जुन मंसूर, उस्ताद अमीर खां, पं कुमार गन्धर्व  पं भीमसेन जोशी, शैलेन्द्र और निर्मल वर्मा से जुड़ी कुछ यादें है जिसे लेखक ने आधार  बनाकर अपनी भावनाओं को मूर्त रूप दिया है। कला और साहित्य के बहाने इन मूर्धन्य  वाग्गेयकारों के कला सम्बन्धी  विचारों और सरोकारों को एक नए ढंग से देखने का जतन किया है। अंत में ‘रसन पिया’ शीर्षक से लिखी गई कविता जो ग्वालियर घराने के ख्याल गायक उस्ताद अब्दुल रशीद खां को समर्पित है। दरअसल इस कविता से पुस्तक एक समग्रता को हासिल करती है। यतीन्द्र मिश्र ने इस पुस्तक के माध्यम से संगीत, नृत्य, साहित्य, सिनेमा आदि विमर्श के सहारे कलाकारों, वाग्गेयकारों, कवियों, लेखकों नर्तकियों के संस्मरणों और उनसे हुए संवादों को आधार बनाकर एक विस्मयकारी संसार का बखान किया है। 

विस्मय का बखानः यतीन्द्र मिश्र
वाणी प्रकाशन
4695, 21ए, दरियागंज
नई दिल्ली-110 002
मूल्यः 395रु.