Saturday, 29 September 2012

स्त्री विमर्शः जरूरत एक तटस्थ सोंच की

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय
साले हाल परिदृश्य में वैचारिकता का पतन कई क्षेत्रों में देखने को मिलता है। चाहे वो राजनैतिक क्षेत्र हो या फिर समाज के अन्य पहलु। इसी अनुक्रम में स्त्री  विमर्श एक महत्वपूर्ण विषय बनकर सामने आता है। दरअसल स्त्री  विमर्श एक ऐसी विषय वस्तु है जिस पर हर काल में अलग-अलग  व्याख्या होती रही है। कुछ लोग तो इस विषय पर चर्चा को ही कोरा समझते हैं। उनके अनुसार इस विमर्श ने कौन सा देश का भला किया है? समाज महिलाओं के प्रति जैसी सोच पहले रखता था वैसी ही आज भी रख रहा है। अर्थात् स्त्री विमर्श ने समाज को कोई नया मौलिक विकल्प नहीं सुझाया है। लेकिन मृणाल पाण्डे का यह वैचारिक लेख संग्रह ‘स्त्री ; लम्बा सफर’ उन लोगों से आग्रह करता है कि उन्हें कुछ दिनों के लिए चुप हो जाना चाहिए। दरअसल इसमें शामिल सभी आलेख तत्कालीन परिवेश में स्त्री  विमर्श के क्षेत्र में हुई परिचर्चाओं पर आधारित  है। मृणाल पाण्डे अपनी पत्रकारिता की सूक्ष्म दृष्टि से तत्कालीन परिवेश में (चाहे वो राजनीतिक हो या फिर  न्यायिक) महिलाओं के नाम पर होने वाले सियासी खेलों को बखूबी परखा है। लोकतंत्र के मंदिर से लेकर न्याय के मंदिर तक नारीवादी परम्पराओं को ताक पर रखा गया है। संसद के बाहर राजनीतिक दलों को महिलाओं के लिए विधायिका  में 33 प्रतिशत आरक्षण के लिए गरजते-चिल्लाते तो देखा जाता है लेकिन संसद के अंदर उस विवादित विधेयक पर चर्चा की हिम्मत किसी भी राजनीतिक दल को नहीं होती। वे इस मुद्दे पर संसद में भय का ऐसा वातावरण पैदा कर देते हैं जैसे महिलाएं देश की सबसे बड़ी खलनायिकाएं हैं। यह समाज और राजनीति का कैसा न्याय है जहां जातिवादी आरक्षण का स्वागत किया जाता है लेकिन देश की आधी  आबादी के आधार  पर विधायिका में 33 प्रतिशत के आरक्षण के मांग पर सियासी भूचाल आ जाता है। दरअसल पुरुष वर्चस्व समाज महिलाओं की राजनैतिक बराबरी को कभी आत्मसात कर ही नहीं पाता है तभी तो महिलाओं की चुनावी लड़ाई को ‘कैट फाइट’ कहा जाता है जबकि इसके ठीक उलट पुरुषों की लड़ाई को आक्रामक और स्वाभाविक प्रवृत्ति माना जाता है। कोई भी राजनीतिक दल महिलाओं पर दांव नहीं लगाना चाहता है यानि वो नारी आरक्षण की बात तो करता है परन्तु पार्टीगत आरक्षण पर नाक-भौं सिकोड़ता है। ऐसे में विधायिका में 33 प्रतिशत आरक्षण की बात दूर की कौड़ी ही साबित होती है। हालांकि इस वैचारिक लेख संग्रह में सिर्फ राजनीति की ही बात नहीं होती बल्कि राजनीति से परे कारपोरेट और मीडिया जगत की भी बात होती है। मीडिया पर आरोप लगाते हुए मृणाल पाण्डे कहती हैं कि मीडिया जो सबकी खबर देता है। महिला आरक्षण से लेकर महिलाओं  के प्रति होने वाली हिंसा तक, खबरों में प्रमुखता से दिखाई जाती हैं लेकिन वो अपनी खबर क्यों नहीं रखता। मीडिया में महिलाओं के लिए ऐसी स्थिति क्यों बन पड़ी है जिससे उनको पत्रकारिता में आने का मतलब ‘रोज कुआं खोदना और पानी पीना है’ लगने लगा है। जवाब शायद- तनख्वाहें कम, सुविधएं नगण्य, तरक्की नदारद और काम उबाऊ ।  महिला सशक्तिकरण की खबर और यौन उत्पीड़न की खबर करने वाला मीडिया यह क्यों भूल जाता है कि 100 में से 22.7 प्रतिशत मीडिया में काम करने वाली महिलाओं ने माना है कि कार्यक्षेत्र में उनका यौन उत्पीड़न हुआ है लेकिन वे चुप रही हैं। दरअसल उनकी इस चुप्पी से दो सवाल खड़े होते हैं कि वे ये सब इसलिए सहन कर लेती हैं कि उनको काम की जरूरत होती है या फिर  अन्यत्र भी हालात ऐसे ही हैं। हालांकि महिलाओं की स्थिति और हालात यहीं नहीं ठहरते। महिलाओं का मुद्दा तो एक प्रकार से कामधेनु  हो गया है क्योंकि दो दशक से महिला आरक्षण का मुद्दा तो फैशनेबल मुद्दा बना ही है और सभी पार्टियां गाहे-बेगाहे इस पर राजनीति भी करती रही हैं। इसके बाद महिलाओं की भूमिका वैश्विक परिदृश्य में भी तलाशी गई। जब भारत की इंदिरा नूई को अमेरिका की पेप्सिको कम्पनी का सीईओ बनते भारतीय महिलाओं ने देखा तो उनकी भी उम्मीदें जगीं लेकिन शायद उस वक्त उन्हें ये नहीं पता था कि देश में 80 प्रतिशत औरतें स्त्री -पुरुष भेदभाव की शिकार बन चुकी हैं। अर्थात् उन्हें किसी-न-किसी प्रकार घर की चहारदीवारी में रोका गया। हालांकि महिलाओं के प्रति हिंसा और अन्य मुद्दों के प्रति कानून ने सक्रियता दिखाई। घरेलु हिंसा कानून ने अपने व्यावहारिक दृष्टिकोण से महिलाओं के प्रति होने वाली न सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक प्रताड़ना को भी दंडनीय माना। कानून ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए ये बात भी स्वीकारी की समाज अपनी दकियानूसी परम्परा की वजह से न सिर्फ पत्नियों को बल्कि बहन-बेटियों को भी नुकसान पहुंचाता है। लेकिन कानून यह सुनिश्चित नहीं कर पाता है कि महिलाओं के प्रति हिंसा होती ही क्यों हैं? अगर किसी पुरुष को बलात्कार, हिंसा आदि करने के लिए सजा दी जाती है तो यातना पूरे समाज या परिवार को उठानी पड़ेगी ही। ऐसे में एक सुखमय परिवार या समाज की कल्पना आकाशकुसुम जैसी होगी। इस बीच बच्चों (लड़कियों) में यौन शिक्षा को लेकर काफी कुछ लिखा-पढ़ा गया है। दरअसल यह मुद्दा बन गया है कि उन्हें इस प्रकार की शिक्षा देना कितना उचित रहेगा कितना अनुचित। बहरहाल इस पूरे वैचारिक लेख संग्रह में मृणाल पाण्डे ने स्त्री  मुक्ति पर विचार किया है लेकिन इस उम्मीद में नहीं कि यह कोई निष्कर्ष निकालेगा, बल्कि इस मंतव्य से कि स्त्री -चर्चा के स्थायी आधार क्या हैं? इस संग्रह में शामिल लेखों ने यह स्पष्ट किया है कि समाज ने महिलाओं को प्रारम्भ से मुक्ति के विपरीत बंधन और बुधि के विपरीत कौटिल्य चरित्र का पर्याय माना है। लेकिन मृणाल पाण्डे ने जो सवाल छोड़े हैं वो वाजिब हैं। इन आलेखों के मर्म और गहराई को समझने से पहले स्त्री  विमर्श के स्थूल धरातल  पर जीवित परम्परा को समझना होगा। दरअसल इस पूरे परिदृश्य में एक जरूरत तटस्थ लेकिन मार्मिक दृष्टिकोण की भी है, नहीं तो ये वैचारिक लेखों की श्रृंखला पत्र-पत्रिकाओं में ही सिमट कर रह जाएंगी। 

स्त्री : लम्बा सफरः मृणाल पाण्डे
राधाकृष्ण प्रकाशन, प्रा.लि.
7/31, अंसारी मार्ग
दरियागंज, नई दिल्ली-02
कीमतः  250 रु.

Friday, 21 September 2012

यहां कोई रावण नहीं रहता!

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय
व्यंग्य वह विधा  है जो व्यंग्यकार के भीतर की नकारात्मक प्रतिक्रिया है और यह समाज और जीवन मूल्यों के क्षरण से उत्पन्न होता है। व्यंग्य शैली का इतिहास इस बात का साक्षी है कि जितनी भी व्यंग्य रचनायें हुई हैं वो तत्कालीन समाज के पतन, राजनीति का अवमूल्यन, शिक्षा नीतियों का बाजारीकरण आदि क्षेत्रों के नैतिक पतन पर केन्द्रित है। दरअसल ये सभी पृष्ठभूमि व्यंयग्यकारों को विषय प्रदान करते हैं। पिछले कुछ सालों में राजनीति व्यंग्यकारों के सम्मुख एक ऐसा विषय बनकर सामने आया है जिसमें व्यंग्यकार काफी संभावनाएं तलाश रहे हैं। दरअसल राजनीति अपनी परिभाषा और परिधि को  इस कदर कुंठित और सीमित कर चुकी है कि इसे मात्र नीतिविहीन परम्परा का द्योतक माना जा सकता है। वर्तमान राजनीति एक ऐसा खेल बन चुका है जहां सिर्फ और सिर्फ स्वहित की बातें होती हैं। इसमें ‘आम आदमी’ के लिए कुछ भी नहीं होता। ‘आम आदमी’ तो उसके लिए एक मोहरा होता है जिसकी बलि लेकर वो सत्ता को या तो बचाए रखता है या पिफर सत्तासीन होना चाहता है। शंकर पुणतांबेकर द्वारा रचित ‘रावण तुम बाहर आओ!’ राजनीति के इसी पतन की पराकाष्ठा की पृष्ठभूमि पर आधारित  है। दरअसल यह व्यंग्यात्मक नाटक, लेखक के बेचैन मन की उपज है जिसे वह समकालीन राजनीतिक परिवेश में देखता है। वस्तुतः यह एक ऐसा कथानक प्रस्तुत करता है जो राजनीति के वर्तमान स्वरूप से एकाकार हो जाता है और उस पर मंथन के लिए उत्प्रेरित करता है। ‘रावण तुम बाहर आओ!’ राजनैतिक परिपाटी पर आधारित  नाटक है जहां सामाजिक और मानवीय मूल्यों का अवमूल्यन कदम-कदम पर होता है। नाटक के केन्द्र में राजा वीरसेन होता है जिसके इर्द-गिर्द सारी कहानी घूमती है। राजा उस भ्रष्टतंत्र का प्रतिनिधि है  जहां हर आदमी दो व्यक्तित्व को जीता है। अंदर से रावण होते हुए भी राम बनने की जुगत हर व्यक्ति का आंतरिक प्रवृत्ति होता है। राजा वीरसेन उन्हीं में से एक है। वस्तुतः राजा एक विलासी महत्वाकांक्षी शासक का प्रतीक है जिसकी सोच एक सीमित परिधि में ही घूमती है। वह अपने पास उन सभी वस्तुओं को बंधक  बनाकर रखना पसंद करता है जो उसके विलासिता का मानक होते हैं। इसी क्रम में उसने सोने का पलंग भी बनवाया, जिसे वह प्रदर्शनी के लिए सबके सामने रखता है। दरअसल यह नाटक दो गुटों में बंट गया है। एक वो जो राजा की नीतियों का विरोध् करते हैं। इसमें राजा का बेटा कुमार, उसका दोस्त विक्रम और राजा की पत्नी रत्ना शामिल हैं। जबकि दूसरे गुट में राजा के वे चाटुकार हैं जो सिर्फ राजा की हां में हां मिलाते हैं। ये किसी भी परिस्थिति में राजा के प्रति वफादार नहीं माने जा सकते। हालांकि राजा को इन चाटुकारों से काफी सहारा मिलता है इसीलिए वो उन्हें हमेशा अपनी दराज में बंद करके रखता है। लेकिर ये चाटुकार राजा को सदैव अँधेरे  में धकेलने  का उपक्रम करते रहते हैं। ये चाटुकार वर्तमान राजनीति के उन नेताओं के प्रतिबिम्ब हैं जो अपनी राजनीतिक महात्वाकांक्षा के लिए स्वार्थ, भ्रष्टाचार, विश्वासघात को पोषित करते हैं और फिर  इसी को सीढ़ी बनाकर सत्ता की कुर्सी पर आसीन हो जाते हैं। सम्प्रति ये वो लोग हैं जो अपने राजा के मरने पर शोक तो मनाते हैं लेकिन उसके शोकसभा को जश्न के रूप में मनाते हैं और कहते हैं कि ‘चलो, साला मर गया।’ राजा उस निरंकुशता का प्रतिरूप है जो देश के संविधान  को बंधक  बनाकर उसे पंगु बना दिया है। दरअसल उसने संविधान  को लेकर एक विरोधभाष पैदा कर दिया है जो आम आदमी को अधिकार  तो देता है साथ ही राजा, नेता या विशिष्ट वर्ग को यह भी अधिकार  देता है कि वह आम आदमी के अधिकार  का प्रतिकार कर सके। नाटक के अन्य पात्रों की जहां तक बात है तो वीरसेन का बेटा कुमार, उसका दोस्त विक्रम और युवा पत्रकार शीला राजा के भ्रष्टाचार और भ्रष्टतंत्र से आहत युवा पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं  जो राजा की विलासिता, नीतिविहीन महत्वाकांक्षा का विरोध् करते हैं। वीरसेन की पत्नी रत्ना भी उसके पक्ष में नहीं है वो अपने पति की अतिमहात्वाकांक्षा का पुरजोर विरोध् करती है। इस क्रम में राजा कभी-कभी अकेला पड़ जाता है परन्तु इस मौके पर उसके चाटुकार बड़े काम आते हैं जो राजा के एकाकीपन को अपनी चाटुकारिता से भर देते हैं। इस नाटक का अन्त आम नाटकों की तरह नायक की जीत के साथ नहीं होता। बल्कि इसमें जीत की परम्परा के विपरीत खलनायकों की जीत के साथ होता है। दरअसल यह जीत साले हाल राजनीति को परिलक्षित करता है कि आप चाहे जितना भी ईमानदार बन लें, सत्यनिष्ठ बन जाएं, भ्रष्टाचार के खिलाफ झंडा उठा लें राजनीति के इन खलनायकों के खिलाफ जीत हासिल नहीं कर सकते। इन खलनायकों की एक लम्बी परम्परा बन चुकी है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी सत्ता पर आरूढ़ होते हैं। उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं कि लोग उन्हें रावण कहते हैं या राम। अगर राम कहते हैं तो बेहतर और रावण कहते हैं तो उसके चाटुकार हैं न राम के रूप में प्रस्तुत करने के लिए। ‘रावण तुम बाहर आओ!’ एक ऐसी पृष्ठभूमि पर आधरित नाटक है जिसका आवरण काफी व्यापक है। लेखक ने राजनैतिक परम्परा की छोटी-छोटी बातों पर भी सूक्ष्मता से दृष्टिपात किया है। आमतौर पर पत्रकारों की खबरों के प्रति बाध्यता, छोटी-छोटी घटनाओं पर जांच आयोग बैठाने की मांग, राजनैतिक चाटुकारिता, वादे-इरादे के बीच राजनैतिक रोटी सेंकने की परम्परा इस नाटक को जीवंत बनाती है। जहां तक इस नाटक के शिल्प की बात है तो यह वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य पर बिल्कुल सटीक बैठता है। नेपथ्य से आने वाली ‘पिंजरे की औरत’ की आवाज इस बात का एहसास कराती है कि देश, समाज और मानव राजा के दराज में किस प्रकार बंधक  हैं। लेखक इसके माध्यम से एक शिल्पगत प्रयोग करता है। मंचन के दृष्टिकोण से यह नाटक संतुलित कहा जा सकता है जिसमें किसी भारी-भरकम साजो सामान की जरूरत नहीं पड़ती। आधुनिक  रंगकर्मियों के लिए इसमें काफी गुंजाईश  है जिसे आधुनिकता  को मिश्रित कर और ज्यादा प्रभावशाली बनाया जा सकता है। 
रावण तुम बाहर आओ!: शंकर पुणतांबेकर
वाणी प्रकाशन, 4695, 21ए
दरियागंज, नई दिल्ली-110 002
कीमतः 195रु. 
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AMAR BHARTI (HINDI DAILY)
Pratap Bhawan, 5, Bahadurshah Zafar Marg,
New Delhi-110002
Tel.:011-23724460, 43083451  Fax:011-23724456

Friday, 14 September 2012

क्योंकि कहानियां सच कहती हैं

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय
कुसुम खेमानी की यह पुस्तक ‘सच कहती कहानियां’ एक ऐसी कौटुम्बिक परिपाटी पर रची गई मार्मिक कहानियों का संग्रह है जो समाज के भिन्न-भिन्न स्तरों, अनुभवों और प्रसंगों से संवाद कराता है। दरअसल किसी भी काल विशेष का साहित्य सृजन तत्कालीन सामाजिक परम्परा और संस्कृति को समझने का आधार प्रदान करता है और जब ‘सच कहती कहानियां’ जैसे संग्रह के माध्यम से संस्कृतियों और परम्पराओं का प्रासंगिक और आनुभूतिक वर्णन किया जाए तो ऐसे साहित्य रचनाओं से अपेक्षाएं और भी ज्यादा बढ़ जाती हैं क्योंकि भारत संस्कृतियों और परम्पराओं का देश है। इस संग्रह में जितनी भी कहानियों को शामिल किया गया है वो वास्तव में एक-दूसरे की अनुषंगी होने का एहसास कराती हैं। दरअसल ये सभी कहानियां समाज के विभिन्न स्तरों और अनुभवों से लबरेज होकर एक नई रचना का सृजन करती हैं। चौदह कहानियों के इस संग्रह की तीन कहानियां ‘एक मां धरती सी’, ‘लावण्यदेवी’, और ‘रश्मिरथी मां’ समाज की दैवीय रिश्ते की वो पटकथा है जो अनुभवों और एहसासों की सूक्ष्मता और अन्तरंगता से सामाजिक जीवन की यथार्थता को परिलक्षित करता है। ‘एक मां धरती सी’ उस बानी मौसी की कहानी है जो समयचक्र का कोपभाजन बन गईं हैं। दरअसल वो उसे बेटे की मां की प्रतिमूर्ति हैं जो अपनी प्रेमिका के कहने पर अपनी मां के मीठे कलेजे को निकाल तेजी से अपनी प्रेमिका को देने जाता है लेकिन तभी ठोकर खाकर गिर जाता है उसी वक्त मां के कलेजे से आवाज आती है कि ‘अरे बेटा! कहीं चोट तो नहीं लगी?’ ‘रश्मिरथी मां’ उस मातृत्व की कहानी है जो गरीबी और सामाजिक झंझावतों में डूबे अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए समाज के उस आक्षेप को भी सह लेती है जिसमें सेरोगेसी को ‘किराए पर कोख’ का तमगा देकर उसको सामाजिक रूप से बहिष्कृत कर देता है। लेकिन इस कहानी की मुख्य पात्र जाहिदा तो उन मांओं की मां है जो ऐसा दर्शन प्रस्तुत करती है जिससे भगवान शंकर के औढ़रदानी होने का एकाधिकार टूट जाता है। मातृत्व की अगली कड़ी में ‘लावण्यदेवी’ का भी प्रारूप देखने को मिलता है जो अपने माता-पिता की लाड़ली और अकूत सम्पति की इकलौती वारिश होती है। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक उन्होंने अनुशासन को इस तरह जिया है कि अनुशासन स्वयं झेप जाए। बचपन में उनके मां-बाप का प्यार, जवानी में पति का प्यार दरअसल एक परिलोक की कहानी जैसा प्रतीत होता है लेकिन जब उनके बेटे-बेटियां बड़े हो जाते हैं और उनकी जब शादी हो जाती है तो फिर वही अलौकिक सी जीवन जीने वाली लावण्यदेवी अपेक्षा और उपेक्षा के बीच निर्वात में अपने अस्तित्व को भी नहीं बचा पाती हैं। ‘काला परिजात’ एक ऐसी कहानी है जो इस बात का परिचायक है कि मनुष्य स्वयं में चाहे जैसा हो सामने वाले से एक आदर्श की उम्मीद करता है और ये आदर्श उसके व्यवहार से लेकर रूप-रंग तक में शामिल है। इस कहानी में दो ऐसे नीग्रो लोगों की कहानी है जो भारत आते हैं और उम्मीद करते हैं कि यहां के लोग सांवले हैं तो उन्हें यहां किसी भेदभाव से नहीं गुजरना पड़ेगा। उन्हें यहां वही सम्मान और अपनापन मिलेगा जो उन्हें अपने समुदायों में रहते हुए मिलता है लेकिन हकीकत की स्थूल धरातल पर उन्हें जो अनुभूति होती है उससे उनका यहां प्रवास बोझिल हो जाता है। रिश्तों के ताने-बाने से उन्मुक्त ‘पुरुष सती’ उस त्यागमयी मूर्ति बिशु की कहानी है जो अपनी पत्नी की खुशी के लिए अपने एहसासों को कुर्बान कर देता है। यहां तक की अपनी पत्नी के पुरुष मित्र के साथ रहने पर भी कोई एतराज नहीं जताता। दरअसल वह उस बात का पक्षधर है कि ‘जिसे जो करना होता है वह उसे करता ही है, इसके लिए वो साम, दाम, दंड, भेद सभी प्रवृतियों को अपनाता है ऐसे में किसी के रास्ते में रोड़ा डालकर बाधा उत्पन्न करना उचित नहीं’। और इसी आदर्श के सहारे वह अपनी पत्नी का त्याग भी कर देता है। संग्रह के अगले हिस्से में ‘जज्बा एक जर्रे का’ एक ऐसी महिला लक्ष्मी की कहानी है जो विपरीत परिस्थितियों की मार से टूटती नहीं बल्कि उसके साथ कदमताल करती है। दरअसल उसका सम्पूर्ण जीवन एक ऐसा दर्शन प्रस्तुत करता है जिसके आलोक से यह साफ हो जाता है कि दर्शन सामाजिक अनुभवों के गर्भ से निकलता है। लक्ष्मी अपने सरल जीवन से धर्म का इस प्रकार व्याख्यान कर पाती है कि धर्म मन में बसा होता है उसका तन भेद से कोई सरोकार नहीं होता। हमारे समाज में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो शहरों में रहते हैं लेकिन उनका ग्रामीण परिवेश से कहीं-न-कहीं एक लगाव होता है। इस संग्रह में कुछ ऐसी ही कहानियां हैं जो ग्रामीण परिवेश का एक पृथक कलेवर प्रस्तुत करती हैं। ‘पतराम दरवज्जा’, ‘वक़त एक साधारण औरत की’ दो ऐसी कहानियां है जो ग्रामीण परिदृश्य की अलौकिक गर्द को लौकिक बना देती हैं। दरअसल ये दोनों कहानियां हरियाणवी पृष्ठभूमि पर रची बसी है। इन दोनों कहानियों के पीछे दो अलग-अलग व्यक्तित्व की कहानी छिपी है जो अपने त्याग और आदर्श की वजह से दंतकथाओं जैसे प्रतीत होने लगते हैं। लेकिन ये दोनों पात्र भूतकाल में वर्तमान समाज के देवतुल्य थे। ‘पतराम दरवज्जा’ जहां पतरामजी की सामाजिक प्रतिष्ठा और उनके दरियादिली का आख्यान है वहीं ‘वक़त एक साधारण औरत की’ पतरामजी की अनुषंगी लगने वाली चुनिया बुआ की। पतरामजी अपनी कहानी में एक कुएं को 500 रुपये में खरीदकर उसके पानी को निःशुल्क करवाते हैं तो चुनिया बुआ 4000 में एक सार्वजनिक कुआं खुदवाती हैं। भारतीय समाज में विधवा औरत की सामाजिक स्वीकृति सम्मानजनक नहीं होती, शुभकार्यों में तो लोग उनका नाम तक नहीं लेते। लेकिन यहां चुनिया काकी इस सोच से परे हर मौके पर याद की जाती हैं। इन दोनों कहानियों के पात्रों में जहां पतरामजी पुरुष समाज का नेतृत्व करते हैं वहीं चुनिया काकी महिला समाज को। कुसुम खेमानी के इस पहले संग्रह में शामिल कहानियों में मानवीय और कौटुम्बिक पक्षधरता सर्वोपरि है। सभी कहानियां अलग-अलग परिवेश लेकिन एक समान रिश्तों की नाजुक डोर से बुनी गई है। उनकी कहानियों में कठोर यथार्थ का पुट विद्यमान है। ‘फर्द होना आदमी का’ और ‘एक पारस पत्थर’ इसी श्रृंखला की अगली कड़ी में शामिल है जो समाज के पारिवारिक उलझनों और अच्छे-बुरे अनुभवों को भाष्य रूप प्रदान करता है। इस संग्रह की शेष चार कहानियां ‘राज्यपाल ऐसा हो’, ‘गरीबधन’, ‘मेरीएन भेद बताओ’, और ‘एकदम चंगे’ मानवीय मूल्यों की वो कहानियां हैं जिसमें सिर्फ और सिर्फ उनके आदर्शों की बात होती है। ‘राज्यपाल ऐसा हो’ एक ऐसे राज्यपाल की कहानी है जो अपने जीवन काल में कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे, पद के मुताबिक पैसे भी खूब कमाए लेकिन अपने आखिरी वक्त में उनके पास सिर्फ एक नौकर और एक बाल्टी बचता है। उन्होंने अपना हवेलीनुमा घर उन गरीब बच्चों के लिए छोड़ दिया जो काफी समय से उस घर में रह रहे थे। ‘गरीबधन’ भी ऐसे ही एक व्यवसायी पुरुष की कहानी है जो नेपथ्य में रहकर भी अपने होने का एहसास कराता हैं। कहानी का मुख्य पात्र राजेन्द्र जिसका बचपन आभावों और मां-बाप के स्नेहिल स्पर्श से परे अपनी बुआ के घर में बीतता है। और फिर राजेन्द्र उस कहानी को चरितार्थ करता है जिसमें कहा जाता है कि ‘उद्यमी और भले साधक की सहायता स्वयं भगवान भी करते हैं।’ राजेन्द्र अपने जीवन दर्शन से अर्थ की नश्वरता को समझ उसकी अर्थवत्ता को समझा रहा है। ‘मरीएन भेद बताओ’ उस अमेरिकी भारतीय महिला की कहानी है जो जीवन और मानव मूल्यों के अलावा कुछ नहीं समझती। अमेरिका के वाशिंगटन में एक समृद्ध परिवार में नाजो-नखरे से पली-बढ़ी मेरीएन को भारत की सोंधी माटी की खुशबु भाती है और यहां के लोगों के सुख-दुख में भागीदार बनती है। उसके लिए एक दिन में 24 घंटे नहीं होते बल्कि 48 घंटे होते हैं। वो एक समृद्ध जीवन का त्याग का त्याग कर कभी सुन्दरवन में रहने वाले बच्चों के लिए उनी कपड़े ले जा रही है तो कभी मानसिक रूप से बीमार महिलाओं के लिए गाउन। इस बीच कभी उस बीमारी की परवाह नहीं करती है जो उसे मानसिक और शारीरिक रूप से तिल-तिल कर मार रही है। श्रृंखला के अंत में ‘एकदम चंगे’ एक ऐसी कहानी है जो डॉक्टर पुरुष के सहारे पंजाबी लोगों की जीवन के प्रति सकरात्मक और उर्जावान जीवन की व्याख्या करती है। दरअसल यह कहानी यह संदेश देती है कि जीवन चाहे जिस मोड़ पर हो पंजाबी लोगों का हाल पूछने पर एक ही जवाब जानते हैं ‘एकदम चंगे’। बहरहाल संग्रह की सभी कहानियां परिदृश्य और परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाकर जो भाव प्रस्तुत करती है वो अपने आप में अप्रतिम है। जहां तक भाषा की बात है तो इन कहानियों में सबसे प्रबल पक्ष भाषा और शैली ही है। ये सभी कहानियां हिन्दी में लिखी गई हैं लेकिन अपने साथ बांग्ला, मारवाड़ी (राजस्थानी), हरियाणवी, उर्दू और अंग्रेजी को जिस प्रकार एकाकार करती है उससे कथा शैली की एक नई परम्परा का दर्शन होता है। कुसुम खेमानी अपनी पहली कहानी संग्रह के माध्यम से एक छाप छोड़ती हैं जो उन्हें साहित्य के प्रति एक सशक्त और गंभीर शैलीकार के रूप में स्थापित करता है।

Tuesday, 11 September 2012

असीम पर लगा देशद्रोह का आरोप वापस होगा?

नई दिल्ली।। कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी पर लगे देशद्रोह के आरोप अगले 24 घंटों में वापस लिए जा सकते हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक असीम पर अब सिर्फ राष्ट्रीय प्रतीक के अपमान के मामला चलेगा।

वहीं, असीम की गिरफ्तारी के विरोध में देशभर में धरने और प्रदर्शन किए जा रहे हैं। मंगलवार को अरविंद केजरीवाल ने मुंबई की आर्थर रोड जेल जाकर असीम से मुलाकात की और यह ऐलान किया है कि अगर शुक्रवार तक असीम के खिलाफ केस नहीं हटाया गया तो शनिवार को जेल के बाहर धरने पर बैठ जाएंगे।

गौरतलब है कि अन्ना समर्थक और इंडिया अगेंस्ट करप्शन से जुड़े 25 वर्षीय असीम को 'आपत्तिजनक' कार्टून बनाने के आरोप में आईपीसी की धारा 124A (राजद्रोह), इंफॉर्मेशन टेक्नॉलजी ऐक्ट के तहत शनिवार को अरेस्ट किया गया था। पहले उन्हें 7 दिन की पुलिस हिरासत में भेजा था। एक दिन की पूछताछ के बाद पुलिस ने यह कहते हुए कि इस मामले में और जांच की जरूरत नहीं है, असीम को कस्टडी से इनकार कर दिया था। बाद में कोर्ट ने असीम को 24 सितंबर तक न्यायिक हिरासत में भेजा दिया। उधर, असीम ने खुद जमानत लेने से इनकार कर दिया था।

कानपुर के रहने वाले त्रिवेदी पर आरोप लगाया गया है कि उन्होंने मुंबई में पिछले साल दिसंबर में अन्ना हजारे की एक रैली के दौरान संविधान का मजाक उड़ाते हुए बैनर लगाए। असीम ने अपने एक कार्टून में तीन शेरों के स्थान पर तीन भेड़िये दिखाए थे और कार्टून के नीचे 'सत्यमेव जयते' की जगह 'भ्रष्टमेव जयते' लिखा था।

16 अक्टूबर को सैफ-करीना की शादी, कार्ड छपे

पटौदी। सैफ अली खान एवं करीना कपूर की शादी पूर्व निर्धारित तिथि 16 अक्टूबर को मुंबई में हो सकती है। लेकिन सैफ की मा शर्मिला टैगोर ने इसकी रिसेप्शन पार्टी पैतृक गाव पटौदी में देने का निर्णय कर लिया है। यहा तक कि कार्ड में स्थल और 18 अक्टूबर की तिथि भी तय कर दी गई है।

अभी तक सैफ-करीना की शादी को लेकर विरोधाभासी बयान आते रहे हैं। कुछ दिन पूर्व भोपाल में शर्मिला टैगोर ने कहा था कि शादी अक्टूबर में होगी तथा रिसेप्शन मुंबई में होगा। शादी के तीन कार्यक्रम तय हुए थे। परिवार शादी मुंबई में करने पर विचार कर रहा है तथा बाद में पार्टी दिल्ली तथा पटौदी में भी दी जाएगी। अब लगभग इस बात पर मुहर लग गई है। नवाब परिवार से जुड़े सूत्रों की माने तो नवाब परिवार ने शादी का कार्यक्रम तय कर लिया है। शादी 16 अक्टूबर को मुंबई में ही होगी। 17 अक्टूबर को दिल्ली में और 18 अक्टूबर को पटौदी में रिसेप्शन पार्टी दी जाएगी। 18 तथा 19 अक्टूबर को पटौदी में ही कार्यक्रम होंगे तथा इस दौरान सैफ-करीना यहीं रहेंगे। नवाब से जुड़े सूत्रों की माने तो पटौदी में होने वाली पार्टी के कार्ड भी छप चुके हैं। इसमें आमंत्रित करने वाले के रूप में शर्मिला टैगोर उर्फ रिंकू का नाम लिखा गया है। शर्मिला टैगोर का घरेलू नाम रिंकू है।

देश का सबसे महंगा तलाक: 5 करोड़ रुपये में टूटी 20 साल पुरानी शादी

नई दिल्‍ली. दिल्‍ली के एक जोड़े ने 20 साल के बाद शादी तोड़ने का फैसला किया है। इसके लिए पति ने पांच करोड़ रुपये चुकाने की हामी भरी है। पत्‍नी भी इतनी रकम लेकर तलाक के लिए तैयार है। पति-पत्‍नी की आपसी सहमति से होने जा रहे इस तलाक पर दिल्‍ली की साकेत फैमिली कोर्ट ने अपनी मुहर लगा दी है। यह देश के सबसे 'महंगे' तलाक में से एक है। तलाक लेने वाला पति दिल्‍ली का एक बड़ा कारोबारी है। इनकी शादी 1992 में हुई थी। इस साल फरवरी में उन्‍होंने तलाक की अर्जी दी। शुरुआत में उन्‍होंने तलाक के एवज में एक करोड़ रुपये देने की सहमति दी थी, लेकिन तलाक पर अंतिम मुहर लगने के लिए जो छह महीने का वक्‍त मिला, उस बीच उन्‍होंने चार करोड़ रुपये और देने का फैसला किया। इस जोड़े के दो नाबालिग बच्‍चे हैं। पति-पत्‍नी ने यह भी तय कर लिया कि बेटा बाप के साथ रहेगा, जबकि बेटी को मां रखेगी। महिला को पचास लाख रुपये का भुगतान किया जा चुका है। समझौते के मुताबिक अब कारोबारी को बेटी के नाम ढाई करोड़ रुपये की एफडी करानी है और शेष रकम मां मकान खरीदने के लिए इस्‍तेमाल करेगी। कोर्ट ने तलाक के समझौते पर मुहर लगाते हुए आदेश दिया कि पांच करोड़ रुपये मिल जाने के बाद महिला का अपने पूर्व पति की संपत्ति पर कोई दावा नहीं रह जाएगा।

जगजाहिर हुआ शाहरुख की फिल्‍म का नाम, पोस्‍टर


मुंबई. इस साल दिवाली के मौके पर रिलीज होने वाली शाहरुख खान की फिल्‍म का नाम सामने आ गया है। किंग खान की इस फिल्‍म का नाम है, 'जब तक है जान'। यश राज फिल्‍म्‍स के बैनर तले बन रही इस फिल्‍म में शाहरुख के अलावा अनुष्‍का शर्मा और कैटरीना कैफ होंगी। इस फिल्‍म के पोस्‍टर मंगलवार को कुछ अखबारों के फ्रंट पेज पर दिखाई दिए। इसमें शाहरुख को आर्मी की वर्दी पहने और रॉयल एनफील्‍ड पर बैठे दिखाया गया है। रोमांटिक कहानी वाली इस फिल्‍म का डायरेक्‍शन यश चोपड़ा कर रहे हैं। स्‍क्रीनप्‍ले आदित्‍य चोपड़ा ने लिखा है जो इस फिल्‍म के प्रोड्यूसर भी हैं। बतौर डायरेक्‍टर यश चोपड़ा इस फिल्‍म के जरिये आठ साल बाद वापसी कर रहे हैं। 'प्रेम त्रिकोण' पर आधारित इस फिल्‍म के पोस्‍टर पर पोएट्री भी लिखी हुई है। फिल्‍म की कुछ शूटिंग हाल में जम्‍मू-कश्‍मीर की वादियों में हुई है। जहां उनके प्रशंसकों को उन्‍हें देखने के लिए पुलिस की लाठियां तक खानी पड़ी थीं।