Tuesday, 11 September 2012

'मुगलों और अंग्रेजों के मुखबिर थे दिग्गी के पूर्वज'

मुंबई।। ठाकरे परिवार को बिहार मूल का बताने वाले कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह पर उन्हीं के अंदाज में पलटवार किया गया है। शिवसेना के मुखपत्र 'दोपहर का सामना' के एक लेख में दिग्विजय के पूर्वजों 'दगाबाज' कहते हुए दावा किया गया है कि वे मुगलों और अंग्रेजों के मुखबिर थे। लेख में ठाकरे के पूर्वजों की खूब तारीफ गई है। कहा गया है कि शिवाजी की सेना में ठाकरे के पूर्वजों का अहम स्थान रहा है। वहीं, दिग्विजय को खिंची कुल का बताया गया है। लेख में कहा गया है कि दिग्विजय के पूर्वज मुगलों और अंग्रेजों की मुखबिरी करते थे।

इसमें लिखा गया है, 'ठाकरे कुल पर आरोप लगाने वाले दिग्विजय सिंह का कुल भी जांच लिया जाए। ठाकरे कुल के पूर्वज तो छत्रपति शिवराज की सेना के शूरवीर थे। वे हिंदू स्वराज के लिए लड़ रहे थे। दिग्विजय सिंह का कुल खींची राजपूतों का है। वे जिस राघोगढ़ रियासत के राजा हैं उसका अधिकृत इतिहास उनके खींची होने की पुष्टि करता है। खींची संस्थान, जोधपुर से प्रकाशित 'सर्वे ऑफ खींची हिस्ट्री'जिसके लेखक ए.एच निजामी और जी. ए. खींची हैं, का दावा है कि खींची उपजाति राजपूत धन लेकर युद्ध करने के लिए कुख्यात रहे हैं। ... दिग्वजिय जिस रोघागढ़ रियासत के कुंवर हैं, वह रियासत गरीबदास नामक योद्धा को बादशाह अकबर ने दी थी। जब राजपूताना और मामलाव के अधिकांश क्षत्रिय राणा प्रताप की ओर हो लिए थे, तब भी राघोगढ़ का गरीबदास अकबर का मुखबिर था। इस गद्दी पर 17 97 तक दिग्विजय का पूर्वज बलवंत सिंह मौजूद था। '1778 के प्रथम मराठा-अंग्रेज युद्ध में बलवंत सिंह ने अंग्रेजों की मदद की थी।

गौरतलब है कि पिछले कुछ दिनों से दिग्विजय सिंह और ठाकरे परिवार के बीच जुबानी जंग छिड़ी हुई है। विवाद तब शुरू हुआ जब दिग्विजय सिंह ने यह कहा कि बिहारियों का विरोध करने वाला ठाकरे परिवार खुद बिहार से आया है। इसके लिए उन्होंने ठाकरे परिवार पर लिखी किताब का हवाला भी दिया। दिग्विजय के इस बयान से तिलमिलाए उद्धव ठाकरे ने उन्हें पागल तक कह डाला।

'राहुल गांधी पर रेप के आरोप के पीछे अखिलेश'

नई दिल्ली/ कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के खिलाफ लड़की के रेप और अपहरण के आरोप मामले ने नया मोड़ ले लिया है। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता किशोर समरिते की वकील कामिनी जायसवाल ने कहा कि राहुल गांधी के खिलाफ रेप और अपहरण से संबंधित याचिका सपा नेता अखिलेश यादव के इशारे पर इलाहाबाद हाईकोर्ट में दायर की गई थी। अखिलेश यादव फिलहाल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं।

समाचार एजेंसी के मुताबिक समरिते की वकील जायसवाल ने अदालत से कहा कि उन्हें पंडारा रोड से निर्देश मिला था कि वह राहुल गांधी के खिलाफ हाईकोर्ट में यह याचिका दायर करें। जब जज स्वतंत्र कुमार ने पंडारा रोड के जिक्र पर स्पष्टीकरण मांगा तो जायसवाल ने कहा कि निर्देश यूपी के मौजूदा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की ओर से मिले थे।

न्यायमूर्ति बीएस चौहान और न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार की खंडपीठ मध्य प्रदेश के पूर्व विधायक किशोर समरीते की उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी जिनमें समरीते ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी। हाईकोर्ट ने समरिते के खिलाफ सीबीआई जांच शुरू करने और 50 लाख जुर्माना लगाने का आदेश दिया था। हालांकि सुनवाई के दौरान अखिलेश यादव के वकील रत्नाकर दास ने समरीते के वकील के बयान का पुरजोर विरोध किया। बाद में अदालत ने 17 सितंबर तक के लिए कार्यवाही स्‍थगित कर दी।

समरिते का आरोप था कि 2006 में राहुल गांधी और उनके दोस्तों की अमेठी यात्रा के दौरान स्थानीय लड़की गायब हो गई थी। उन्होंने आरोप लगाया कि लड़की के साथ रेप हुआ था।

कोयला घोटाले में एक और कांग्रेसी नेता का नाम

कोल घोटाले में एक और कांग्रेसी नेता संतोष बगरोड़िया का नाम सामने आया है। एक अंग्रेजी अखबार के मुताबिक पूर्व कोयला मंत्री संतोष बगरोड़िया के परिवार की 10 फीसदी हिस्सेदारी वाली कंपनी मिनेक्स फिनवैस्ट प्राइवेट लिमिटेड को खनन का कोई अनुभव नहीं होने के बावजूद पकरी बरवाडीह खदान का अनु‌बंध दिया गया।

खास बात यह है कि इस कंपनी के पास अधिक वित्तीय स्‍त्रोत नहीं थे, फिर भी 23 हजार करोड़ रुपए का अनुबंध दिया गया। कोयला मंत्रालय के तहत एक पीएसयू सिंगरेनी कोलरी को छोड़कर खनन के अनुबंध के लिए कोई दूसरी बोली नहीं थी। इसके बाद सिंगरेली की बोली रद्द कर दी गई और बगरोडिया के भाई विनोद की हिस्सेदारी वाली कंपनी को ब्लॉक का कोयला खनन का अनुबंध दिया गया।

मालूम हो कि बगरोड़िया मनमोहन सराकर में अप्रैल 2008 से मई 2009 के बीच कोयला राज्य मंत्री रहे थे। हालांकि बगरोड़िया ने अपने भाई की हिस्सेदारी वाली कंपनी को अनुबंध दिए जाने में अपनी किसी भी भूमिका से इनकार किया है। उन्होंने कहा कि विनोद उनके भाई है लेकिन उन्हें पता नहीं ‌है वे किस तरह का कारोबार कर रहे हैं और न ही वे कारोबार के सिलसिले में उनसे कोई सलाह लेते हैं।

Monday, 10 September 2012

'मिनरल वाटर' से पांव धोते हैं लालू...!


मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राजद प्रमुख लालू प्रसाद द्वारा ‘मिनरल वाटर’ से पैर धोने के मामले में सोमवार को चुटकी लेते हुए कहा कि वे तो इसका उपयोग पीने के लिए करते हैं।

गोपालगंज में एक जनसभा के दौरान लालू प्रसाद रविवार को मिनरल वाटर की बोतल से अपना पैर धोते हुए दिखे थे। उनके बगल में पूर्व सांसद प्रभुनाथसिंह भी मंच पर बैठे हुए थे। इस संबंध में संवाददाताओं के सवाल पर लालू पर चुटकी लेते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि यह तो लालू जी जाने। हम तो मिनरल वाटर केवल पीने के काम में लाते हैं। 

विनाशकाले विपरीत बुद्धि : विशेष राज्य का दर्जा की मांग को लेकर राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के बयानों से आहत नीतीश कुमार ने कहा कि पूर्व मुख्यमंत्री का 'विनाश काले विपरीत बुद्धि' वाला हाल है। लालू प्रसाद बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने के संबंध में जदयू के अभियान को आड़े हाथ ले रहे हैं और इसके बदले में राज्य को विशेष पैकेज देने की मांग को व्यावहारिक बता रहे हैं। 

मुख्यमंत्री ने इस संबंध में लालू के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा, विशेष राज्य का दर्जा बिहार के जन-जन की मांग है और राज्य के लोगों का हक है। बिहार का नेता होने का दावा करने वाला व्यक्ति (लालू) विशेष राज्य का दर्जा का विरोध करता है तो इसे विनाश काले विपरीत बुद्धि ही कहेंगे। 

आगामी चुनावों में राजग के बड़ी शक्ति के रूप में उभरने का परोक्ष रूप से संभावना व्यक्त करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा, जनता हमें इतनी शक्ति देगी कि हम विशेष राज्य का दर्जा लेकर रहेंगे। विशेष राज्य को लेकर पुराने पैमाने पर केंद्र को लकीर का फकीर बने नहीं रहना चाहिए। 

नीतीश ने कहा कि अभी विशेष पैकेज नहीं, बल्कि विशेष राज्य का दर्जा की मांग करने की दरकार है। विशेष पैकेज तो केंद्र की ओर से 10वीं पंचवर्षीय योजना से मिल रहा है। दिल्ली में राजग सरकार में रहते हुए इसे हमने उठाया था। उन्होंने कहा, बिहार को विकसित राज्य बनाना है तो विशेष राज्य का दर्जा केंद्र को देना होगा। 2006 से इसकी मांग हम उठा रहे हैं। बिहार विधानमंडल में सर्वसम्मति से इसका प्रस्ताव पारित किया गया था। राजद ने भी इसका समर्थन किया था। 

पीएम पद का उम्मीदवार राजग तय करेगा : शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे द्वारा सुषमा स्वराज को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बताए जाने पर नीतीश ने कहा, प्रधानमंत्री के उम्मीदवार का फैसला राजग की बैठक में तय होगा। इस मामले में मेरी टिप्पणी की जरूरत नहीं है। भाजपा इस पर विचार रखेगी तो सहयोगी दल चर्चा करेंगे और राजग की ओर से कोई फैसला होगा। पहले भी ऐसा होता आया है कि भाजपा प्रधानमंत्री उम्मीदवार के बारे में विचार रखती आई है। 

वर्ष के अंत में होने वाले गुजरात विधानसभा और वहां चुनाव प्रचार के लिए जाने के संबंध में पूछे गए सवाल के बारे में नीतीश ने कहा, इस संबंध में फैसला पार्टी का शीर्ष नेतृत्व लेगा। मैं आने वाले समय में अधिकार यात्रा, सेवा यात्रा और बिहार विधानमंडल के शीत सत्र में व्यस्त रहूंगा। इसके अलावा पाकिस्तान जाने का भी कार्यक्रम है। जदयू पहले भी गुजरात में विधानसभा चुनाव लड़ती रही है। 

मैं प्राचीन कलाकृति बन गया हूं-प्रणब


एक सक्रिय राजनीतिक जीवन के बाद राष्ट्रपति भवन पहुंचने के बदलाव पर मजाकिया टिप्पणी करते हुए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने सोमवार को कहा कि मैं प्राचीन कलाकृति बन गया हूं।

देश के वित्तमंत्री का पद छोड़कर इसी वर्ष जुलाई में राष्ट्रपति की कुर्सी संभालने वाले प्रणब मुखर्जी के सम्मान में आज सीआईआई द्वारा आयोजित सम्मान समारोह में उन्होंने कहा कि निश्चित रूप से यह (राष्ट्रपति बनना) तस्वीर का दूसरा रुख है कि मैं भारतीय राजनीतिक गतिविधियों के मंच पर एक प्राचीन कलाकृति बन गया हूं।

उन्होंने कहा कि मेरी क्षमता अलग हो गई है, जहां मुझे एक फायदा है और एक भारी नुकसान भी है। फायदा यह कि मैं सलाह के तौर पर खुलकर बोल सकता हूं और नुकसान यह है कि मैं जो कुछ बोलता हूं, उसे अमल में नहीं ला सकता। 
राष्ट्रपति ने संसद में वित्तमंत्री के तौर पर अपने अंतिम भाषण को याद करते हुए एक बार फिर अपने शानदार सेंस ऑफ ह्यूमर का परिचय दिया।

ठहाकों और तालियों के बीच उन्होंने कहा कि लोकसभा में अपने अंतिम भाषण में मैं यह नहीं भूला कि शायद लोकसभा में यह मेरा अंतिम भाषण हो क्योंकि मैं उस परिसर में प्रवेश से वंचित होने वाला था। मुखर्जी ने कहा कि अब नई पीढ़ी को राजनीति में अपना दायित्व निभाना चाहिए।

उन्होंने कहा कि पुरानी पीढ़ी (राजनीति में हम सब जो हैं) अभी भी जगह भरे बैठी है। शायद हम में से कुछ को युवाओं के लिए जगह खाली कर देनी चाहिए।

Friday, 7 September 2012

पत्रों में बिहार

पुस्तक समीक्षा

अजय पाण्डेय
इस पुस्तक को पढ़ते हुए श्रीकांत बाबू को धन्यवाद करने की असीम उत्कंठा हो रही है। दरअसल श्रीकांत द्वारा संकलित ‘बिहारः चिट्ठियों की राजनीति’ पुस्तक कोई साहित्यिक विमर्श की प्रस्तुति नहीं है जिसकी साहित्यिक और अलंकारिक परिपाटी पर समीक्षा की जाए। वस्तुतः यह एक ऐसा संकलन है जो राजनीति की वास्तविकता से संवाद कराता है। बिहार और वहां की राजनीति के संदर्भ में अभी तक जो जानकारी थी वो इस पुस्तक के अध्ययन से और भी व्यापक हो जाती है। इससे पहले कि किसी विशेष पत्र का जिक्र हो, इस पुस्तक की महत्ता पर थोड़ी और चर्चा अपेक्षित है। यह ऐसा संकलन है जो बिहार के हर काल को आइने में उतारता है। देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद से लेकर नीतीश कुमार तक के पत्र ने, न सिर्फ राजनेताओं के आपसी वैचारिक मतभेद को उजागर किया है बल्कि जातिवाद, हिन्दु-मुस्लिम एकता, वोट-बैंक की राजनीति और आपसी तनातनी पर से भी पर्दा उठाया है। इस संकलन का पहला पत्र जो 1947 में डॉ राजेन्द्र प्रसाद द्वारा श्रीबाबू को लिखा गया था, वो बिहार की जातिगत और हिन्दु-मुस्लिम एकता की व्यक्तिवादी सोच पर आधरित राजनीति को दर्शाता है जो आजतक बिहार की राजनीति में परिलक्षित हो रही है। इस संकलन में खास बात यह है कि इसमें जितने भी राजनेताओं के पत्र शामिल किए गए हैं वो नेता किसी-न-किसी बड़े आंदोलन की उपज हैं चाहे वो राजेन्द्र बाबू हों या फिर नीतीश कुमार। और सबके राजनीतिक स्त्रोत एक ही हैं। अर्थात् बिहार की राजनीतिक पृष्ठभूमि पर दृष्टिगोचर होने वाले सभी राजनेता इतिहास की परिस्थितियों से बाहर निकले हैं जिन्हें राजनीतिक महत्वकांक्षाओं ने एक-दूसरे के सामने खड़ा कर दिया है। यह संकलन दरअसल राजनीतिक अन्तर्कलहों और अंतर्विरोधों का प्रतीक है नहीं तो बापू को संबोधित अपने पत्र में सूर्यनारायण आदर्शवादिता की दुहाई नहीं देते। हालांकि यह एकमात्र ऐसा पत्र नहीं है जिसमें आपसी मतभेद और परिस्थितियों की बात कही गई है बल्कि पूरी श्रृंखला है जो वैचारिक और राजनीतिक मतभेद और संवादहीनता के बीच निर्वात में गोता लगा रही है। आज हम जिन नेताओं को राजनीति के आपाधापी से पृथक कर, उनके लिए एक आदर्श दृष्टिकोण रखते हैं उनको संबोधित पत्र या उनके द्वारा लिखे पत्र को पढ़ते हुए एहसास होता है कि वे भी राजनैतिक परिभाषा की परिधि से बाहर नहीं थे। हालांकि इस संकलन में बात सिर्फ राजनीति तक सीमित नहीं है बल्कि राजनीति से आगे उसके अपराधीकरण की भी है। इस संकलित पत्रों से स्पष्ट होता है कि बिहार की राजनीति न सिर्फ जातिगत मुद्दों में उलझी रही बल्कि अपराधिक प्रवृति से भी लबरेज रही है। इससे बिहार की राजनीति का पतन तो हुआ ही है साथ ही नौकरशाही व्यवस्था को भी पतोन्मुख कर दिया। जिसका प्रमाण है अशोक चौधरी द्वारा 1978 में यशवंत सिन्हा को लिखा पत्र जो तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के प्रधान सचिव थे। इसमें लिखी बातों से स्पष्ट होता है कि तत्कालीन न्याय व्यवस्था को जातीय आधर पर स्थापित किया जा रहा है। हालांकि कुछ पत्रों में इसकी पीड़ा को भी देखा जा सकता है। जैसे ब्रम्हेश्वर मुखिया को लेकर कारा महानिरीक्षक को लिखा गया बक्सर के पुलिस अधीक्षक अमिताभ कुमार दास का पत्र। संकलित पत्रों को पढ़कर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि न सिर्फ बिहार शुरू से ही जातिवाद की राजनीति के दलदल में फंसा रहा बल्कि जितने भी बड़े नेता हुए हैं वो जातिवादी रहे हैं। हालांकि वर्तमान बिहार जो तथाकथित विकास की सीढ़ियों पर लगातार अग्रसर हो रहा है आज भी इस जातिगत मुद्दों से उबरा नहीं है। विकास के ‘अग्रदूत’ बने नीतीश कुमार भी इसी जोड़-तोड़ के परिणाम हैं। नीतीश कुमार जहां दलितों की राजनीति करते रहे और आरोप झेलते रहे कि उनके बाहरी और भीतरी व्यक्तित्व में काफी असमानता है। दूसरी तरफ नीतीश कुमार के समकालीन लालू यादव के पत्रों को पढ़कर यह स्पष्ट होता है कि वे हमेशा जातिगत आधारों के भरोसे रहे। वे हमेशा अवसरवादिता की राजनीति करते रहे। चाहे वो बिहार में मुख्यमंत्री बने रहने का दौर हो या फिर केन्द्र में रेलमंत्री बनने का। सभी परिस्थितियों में उनके अवसरवादी होने की भावना परिलक्षित होती है। हालांकि इस बीच शिवानंद तिवारी के पत्रों की भी बड़ी चर्चा रही। उनके लिखे पत्रों से तो यह स्पष्ट होता है कि वो लालू यादव और नीतीश कुमार के दो ध्रुवी खेमों में डोलते रहे। वे कभी लालू यादव के शुभचिंतक बन उन्हें नसीहत देते रहे तो कभी नीतीश कुमार को। चिट्ठियों की इस राजनीति में सबसे ज्यादा राजनीतिक दाव-पेंच लालू यादव और नीतीश कुमार के पत्र में देखने को मिलता है। यह उस दौर की बात थी जब महाराष्ट्र में रेलवे की परीक्षा देने गए बिहारियों के साथ हिंसा की घटना हुई थी। तब लालू यादव केन्द्र में रेलमंत्री थे और नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री । इन दोनों के पत्रों को पढ़कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस वक्त राजनीति किस कदर की जा रही थी। इसके अलावा इसमें कुछ पत्र और भी शामिल हैं जो बिहार की समाजवादी राजनीति को दर्शाते हैं। जैसे कर्पूरी ठाकुर और रामानंद तिवारी के बीच का पत्र। बहरहाल इस पुस्तक के माध्यम से आजादी के छह दशकों के राजनीति परिदृश्य में हुए बदलावों को देखा जा सकता है। दरअसल ये सभी पत्र बिहार की राजनीति को समझने का जरिया प्रदान करते हैं। इससे यह भी समझा जा सकता है कि बिहार की राजनीति तीन पीढ़ियों से गुजरी है और जिस युग की बागडोर जिन नेताओं के पास थी उनकी सोच अगली पीढ़ी के नेताओं से कितनी पृथक थी। 

बिहारः चिट्ठियों की राजनीतिः श्रीकांत
वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज
नई दिल्ली- 110 002
कीमतः 200रु.

AMAR BHARTI (HINDI DAILY)
Pratap Bhawan, 5, Bahadurshah Zafar Marg,
New Delhi-110002
Tel.:011-23724460, 43083451 Fax:011-23724456

Sunday, 2 September 2012

साहित्यिक परम्परा का दर्शन


पुस्तक समीक्षा

 अजय पाण्डेय

श्रीलाल शुक्ल की ‘अज्ञेयः कुछ रंग, कुछ राग’ एक ऐसी आलोचनात्मक रचना है जो इस शैली की सभी परम्पराओं से पृथक एक नई रंग पेश करती है। दरअसल उन्होंने जितनी भी रचनाएं की हैं वो किसी शैली विशेष की व्याख्या या आलोचना न होकर उसे समझने और समझाने की कला है। पुस्तक के प्रथम खण्ड ‘कहानी आन्दोलन और अज्ञेय की कहानियां’ इस बात पर प्रकाश डालती हैं कि कोई भी कहानी किसी एक क्षण का चित्रा प्रस्तुत करती है और वह क्षण किसी भी प्रारूप में हो सकता है। लेकिन श्रीलाल शुक्ल ने उस क्षण की बात कही है जब अज्ञेय ने भाषा, नई पीढ़ी, सैधांतिक पक्षों की प्रबलता और बदलाव के कारण कहानी लेखन छोड़ चुके थे। उसके बाद कथाकारों का जो दौर शुरू हुआ, उन्होंने अपने को पूर्ववर्ती लेखकों से भावबोध्, शिल्पबोध्, प्रवाह, मौलिकता आदि कई बिन्दुओं पर अलग स्थापित किया। साहित्य के घूमते पहिए ने अज्ञेय को औचित्यहीन बना दिया था । हालांकि इसका वाजिब कारण यह भी था कि कुछ समवयस्क लेखक अज्ञेय सरीखे कथाकारों की शैली को खारिज कर रहे थे। लेकिन अज्ञेय ने उस उम्र से कहानियां लिखनी शुरू की थी जिस उम्र में उनके समकालीन कथाकार भाषा और शैली को समझ रहे थे। वैसे इसमें एक बात और खास है कि इस कालखंड में जहां प्रेमचंद की शैली एक अलग ही साहित्यिक छाप छोड़ रही थी वहीं अज्ञेय प्रेमचंद के प्रभाव से बाहर एक अलग परम्परा स्थापित कर रहे थे। अज्ञेय अपनी कहानियों में विभिन्न परिस्थितियों में अवस्थित व्यक्ति के मनोलोक के अन्वेषण की ओर हमेशा अग्रसर रहे। और यही विध उन्हें बाकियों से अलग करता है। अज्ञेय अपनी रचना में इतने सचेष्ट हैं कि उनकी रचनाएं साहित्यिक हस्तक्षेप प्रस्तुत करती हैं। हालांकि आगे चलकर श्रीलाल शुक्ल ने अज्ञेय के बारे में यह भी लिखा है कि उनकी अनेक ऐसी कहानियां हैं जिसमें अपरिपक्वता थी, लेकिन तब यह भी स्पष्ट है कि ऐसा आरोप लगभग सभी लेखकों पर लगता रहा है और अज्ञेय ने तो अधिकतम कहानियां अपने युवावस्था में लिखी हैं। जहां तक उनकी कहानियों के आकलन की बात है तो अज्ञेय अपनी सभी विधाओं में मुखर नजर आते हैं। वे अपनी रचनाओं में चाहे जितना भी लोकभाषा से अलग रहे हों लेकिन जब उन्हीं रचनाओं का सूक्ष्म अध्ययन करते हैं तो स्पष्ट होता है कि अज्ञेय लोक-जीवन के कथाकार हैं।

इस पुस्तक का दूसरा खंड ‘आधुनिक हिन्दी उपन्यास और अज्ञेय’ दरअसल हिन्दी उपन्यास की यात्रा पर प्रकाश डालता है और यात्राकाल में अज्ञेय की ‘शेखरः एक जीवनी’ हिन्दी उपन्यास को एक नया आयाम देता है। श्रीलाल शुक्ल इस उपन्यासिक यात्रा गाथा को परिपुष्ट करने के लिए कई उपन्यासों का जिक्र करते हैं लेकिन इन सबमें अज्ञेय की ‘शेखरः एक जीवनी’ ने जो अमिट छाप छोड़ी है वो किसी अन्य ने नहीं। वस्तुतः यह पहला ऐसा उपन्यास है जिसमें शेखर (मुख्य पात्र) को इस रूप में प्रस्तुत किया गया है जो मृत्यु, प्रेम, ओज, देशभक्ति और दर्शन का प्रतिबिम्ब है। इतना ही नहीं यह पहला ऐसा उपन्यास है जिसमें तत्कालीन भारतीय समाज, संस्कृति, और भौगोलिक जीवन को भी कागजी ध्रातल पर लाया गया है और अज्ञेय इसमें पूरी तरह सफल भी होते हैं। दरअसल यह उस काल के सभी उपन्यासों से पृथक एक ऐसा उपन्यास है जो आधुनिक युग की ज्ञान- विधाओं और उपकरणों को एक संपुंजन के रूप में प्रस्तुत कर सका है। हालांकि ‘शेखरः एक जीवनी’ को लेकर कुछ आलोचकों में इस बात पर एकमत नहीं है कि शेखर के चरित्र को किस रूप में परिभाषित किया जाए। कुछ आलोचक उसे नियतिवादी मानते हैं तो कुछ विद्रोही। लेकिन उन्हें अवश्य ही समझ लेना चाहिए कि शेखर का कोई भी व्यक्तित्व अज्ञेय के दोनों खंडों में स्थापित नहीं हो सका है। बहरहाल सोच चाहे जो भी हो ‘शेखरः एक जीवनी’ का प्रकाशन हिन्दी उपन्यास की परंपरा को काफी पीछे छोड़ देता है। दरअसल यह उपन्यास विधा एक ऐसी फलक को प्राप्त करती है जो एक मुक्ति का एहसास करती है। वर्तमान में उपन्यास किसी विशेष घटनाओं का पुंज नहीं रहा, उसमें अब जीवन के समग्र अनुभव समेटे जा रहे हैं। उसमें मनुष्य के समानान्तर एक ऐसी दुनिया बसी है जो उसकी जटिल अनुभूतियों को इंगित करती है और अज्ञेय की ‘शेखरः एक जीवनी’ इस कसौटी पर खरी उतरती है। इस पुस्तक के अंतिम खंड 'आधुनिक हिन्दी व्यंग्यः अज्ञेय के संदर्भ के साथ’ वस्तुतः समकालीन हिन्दी के व्यंग्य लेखन का एक सर्वेक्षण है जो उस समय के व्यंग्य साहित्य का विश्लेषण करता है। लेकिन फिर भी श्रीलाल शुक्ल की नजर में व्यंग्य की कोई सुनिश्चित परिभाषा नहीं है। आजतक व्यंग्य को हास्य से जोड़ने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। दरअसल व्यंग्य के बारे में आम समझ ‘निंदात्मक’ और ‘आक्रामक’ लेखन के इर्द-गिर्द घूमता है जो शायद किसी लेखन शैली का नकारात्मक पक्ष भी माना जा सकता है लेकिन व्यंग्य विधा का एक सकारात्मक पक्ष यह भी है कि इस विधा में लेखक की निजी अवधरणा छिपी होती है जो किसी भी आदर्श सामाजिक व्यवस्था से जुड़ी होती है। इसके माध्यम से दूषित समाज या व्यवस्था के प्रति आक्रोश (निजी अवधरणा) व्यक्त किया जाता है। इस विधा की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह लेखन के सकारात्मक पक्ष को लोकस्वीकृति देता है और उसकी नकारात्मक-आक्रामकता को न्यायोचित बनाता है। दूसरे शब्दों में व्यंग्य, मूलतः जरूरत के अनुसार निन्दात्मक और आक्रामक लेखन के साहित्यिक उपयोग की परम्परा है। इस खंड की व्याख्या करते समय श्रीलाल शुक्ल ने व्यंग्य की यूरोपीय शैली का भी जिक्र किया है जो उस (यूरोपीय) भाषा में ‘सैटायर’ के समकक्ष प्रतीत होता है। जहां तक अज्ञेय के व्यंग्य शैली की बात है तो उनकी एक टिप्पणी ‘रमणीय गम्भीरता के हलके चापल्य की कौंध्’ काफी है उनकी व्यंग्य विशिष्टता को दर्शाने के लिए। बहरहाल जो भी हो व्यंग्य को दृष्टिगत रखते हुए यह निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए कि हिन्दी में व्यंग्य अन्य विधाओं का अनुषंगी नहीं रह गया है बल्कि वह इनसे परे नित स्वतंत्र विकास कर रहा है। कुल मिलाकर श्रीलाल शुक्ल ने ऐसी पुस्तक लिखी है जो हिन्दी की अलग-अलग विधाओं पर लिखी कई पुस्तकों की पुनरावृत्ति प्रस्तुत करता है। उन्होंने विभिन्न आयामों और स्वच्छंद समीक्षा के माध्यम से आधुनिक साहित्य को परखने की एक नई दृष्टि दी है। 

अज्ञेयः कुछ रंग, कुछ रागः श्रीलाल शुक्ल
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.,
1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग
दरियागंज
नई दिल्ली- 110 002
कीमतः 150रु.
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