Tuesday, 11 September 2012

कोयला घोटाले में एक और कांग्रेसी नेता का नाम

कोल घोटाले में एक और कांग्रेसी नेता संतोष बगरोड़िया का नाम सामने आया है। एक अंग्रेजी अखबार के मुताबिक पूर्व कोयला मंत्री संतोष बगरोड़िया के परिवार की 10 फीसदी हिस्सेदारी वाली कंपनी मिनेक्स फिनवैस्ट प्राइवेट लिमिटेड को खनन का कोई अनुभव नहीं होने के बावजूद पकरी बरवाडीह खदान का अनु‌बंध दिया गया।

खास बात यह है कि इस कंपनी के पास अधिक वित्तीय स्‍त्रोत नहीं थे, फिर भी 23 हजार करोड़ रुपए का अनुबंध दिया गया। कोयला मंत्रालय के तहत एक पीएसयू सिंगरेनी कोलरी को छोड़कर खनन के अनुबंध के लिए कोई दूसरी बोली नहीं थी। इसके बाद सिंगरेली की बोली रद्द कर दी गई और बगरोडिया के भाई विनोद की हिस्सेदारी वाली कंपनी को ब्लॉक का कोयला खनन का अनुबंध दिया गया।

मालूम हो कि बगरोड़िया मनमोहन सराकर में अप्रैल 2008 से मई 2009 के बीच कोयला राज्य मंत्री रहे थे। हालांकि बगरोड़िया ने अपने भाई की हिस्सेदारी वाली कंपनी को अनुबंध दिए जाने में अपनी किसी भी भूमिका से इनकार किया है। उन्होंने कहा कि विनोद उनके भाई है लेकिन उन्हें पता नहीं ‌है वे किस तरह का कारोबार कर रहे हैं और न ही वे कारोबार के सिलसिले में उनसे कोई सलाह लेते हैं।

Monday, 10 September 2012

'मिनरल वाटर' से पांव धोते हैं लालू...!


मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राजद प्रमुख लालू प्रसाद द्वारा ‘मिनरल वाटर’ से पैर धोने के मामले में सोमवार को चुटकी लेते हुए कहा कि वे तो इसका उपयोग पीने के लिए करते हैं।

गोपालगंज में एक जनसभा के दौरान लालू प्रसाद रविवार को मिनरल वाटर की बोतल से अपना पैर धोते हुए दिखे थे। उनके बगल में पूर्व सांसद प्रभुनाथसिंह भी मंच पर बैठे हुए थे। इस संबंध में संवाददाताओं के सवाल पर लालू पर चुटकी लेते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि यह तो लालू जी जाने। हम तो मिनरल वाटर केवल पीने के काम में लाते हैं। 

विनाशकाले विपरीत बुद्धि : विशेष राज्य का दर्जा की मांग को लेकर राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के बयानों से आहत नीतीश कुमार ने कहा कि पूर्व मुख्यमंत्री का 'विनाश काले विपरीत बुद्धि' वाला हाल है। लालू प्रसाद बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने के संबंध में जदयू के अभियान को आड़े हाथ ले रहे हैं और इसके बदले में राज्य को विशेष पैकेज देने की मांग को व्यावहारिक बता रहे हैं। 

मुख्यमंत्री ने इस संबंध में लालू के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा, विशेष राज्य का दर्जा बिहार के जन-जन की मांग है और राज्य के लोगों का हक है। बिहार का नेता होने का दावा करने वाला व्यक्ति (लालू) विशेष राज्य का दर्जा का विरोध करता है तो इसे विनाश काले विपरीत बुद्धि ही कहेंगे। 

आगामी चुनावों में राजग के बड़ी शक्ति के रूप में उभरने का परोक्ष रूप से संभावना व्यक्त करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा, जनता हमें इतनी शक्ति देगी कि हम विशेष राज्य का दर्जा लेकर रहेंगे। विशेष राज्य को लेकर पुराने पैमाने पर केंद्र को लकीर का फकीर बने नहीं रहना चाहिए। 

नीतीश ने कहा कि अभी विशेष पैकेज नहीं, बल्कि विशेष राज्य का दर्जा की मांग करने की दरकार है। विशेष पैकेज तो केंद्र की ओर से 10वीं पंचवर्षीय योजना से मिल रहा है। दिल्ली में राजग सरकार में रहते हुए इसे हमने उठाया था। उन्होंने कहा, बिहार को विकसित राज्य बनाना है तो विशेष राज्य का दर्जा केंद्र को देना होगा। 2006 से इसकी मांग हम उठा रहे हैं। बिहार विधानमंडल में सर्वसम्मति से इसका प्रस्ताव पारित किया गया था। राजद ने भी इसका समर्थन किया था। 

पीएम पद का उम्मीदवार राजग तय करेगा : शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे द्वारा सुषमा स्वराज को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बताए जाने पर नीतीश ने कहा, प्रधानमंत्री के उम्मीदवार का फैसला राजग की बैठक में तय होगा। इस मामले में मेरी टिप्पणी की जरूरत नहीं है। भाजपा इस पर विचार रखेगी तो सहयोगी दल चर्चा करेंगे और राजग की ओर से कोई फैसला होगा। पहले भी ऐसा होता आया है कि भाजपा प्रधानमंत्री उम्मीदवार के बारे में विचार रखती आई है। 

वर्ष के अंत में होने वाले गुजरात विधानसभा और वहां चुनाव प्रचार के लिए जाने के संबंध में पूछे गए सवाल के बारे में नीतीश ने कहा, इस संबंध में फैसला पार्टी का शीर्ष नेतृत्व लेगा। मैं आने वाले समय में अधिकार यात्रा, सेवा यात्रा और बिहार विधानमंडल के शीत सत्र में व्यस्त रहूंगा। इसके अलावा पाकिस्तान जाने का भी कार्यक्रम है। जदयू पहले भी गुजरात में विधानसभा चुनाव लड़ती रही है। 

मैं प्राचीन कलाकृति बन गया हूं-प्रणब


एक सक्रिय राजनीतिक जीवन के बाद राष्ट्रपति भवन पहुंचने के बदलाव पर मजाकिया टिप्पणी करते हुए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने सोमवार को कहा कि मैं प्राचीन कलाकृति बन गया हूं।

देश के वित्तमंत्री का पद छोड़कर इसी वर्ष जुलाई में राष्ट्रपति की कुर्सी संभालने वाले प्रणब मुखर्जी के सम्मान में आज सीआईआई द्वारा आयोजित सम्मान समारोह में उन्होंने कहा कि निश्चित रूप से यह (राष्ट्रपति बनना) तस्वीर का दूसरा रुख है कि मैं भारतीय राजनीतिक गतिविधियों के मंच पर एक प्राचीन कलाकृति बन गया हूं।

उन्होंने कहा कि मेरी क्षमता अलग हो गई है, जहां मुझे एक फायदा है और एक भारी नुकसान भी है। फायदा यह कि मैं सलाह के तौर पर खुलकर बोल सकता हूं और नुकसान यह है कि मैं जो कुछ बोलता हूं, उसे अमल में नहीं ला सकता। 
राष्ट्रपति ने संसद में वित्तमंत्री के तौर पर अपने अंतिम भाषण को याद करते हुए एक बार फिर अपने शानदार सेंस ऑफ ह्यूमर का परिचय दिया।

ठहाकों और तालियों के बीच उन्होंने कहा कि लोकसभा में अपने अंतिम भाषण में मैं यह नहीं भूला कि शायद लोकसभा में यह मेरा अंतिम भाषण हो क्योंकि मैं उस परिसर में प्रवेश से वंचित होने वाला था। मुखर्जी ने कहा कि अब नई पीढ़ी को राजनीति में अपना दायित्व निभाना चाहिए।

उन्होंने कहा कि पुरानी पीढ़ी (राजनीति में हम सब जो हैं) अभी भी जगह भरे बैठी है। शायद हम में से कुछ को युवाओं के लिए जगह खाली कर देनी चाहिए।

Friday, 7 September 2012

पत्रों में बिहार

पुस्तक समीक्षा

अजय पाण्डेय
इस पुस्तक को पढ़ते हुए श्रीकांत बाबू को धन्यवाद करने की असीम उत्कंठा हो रही है। दरअसल श्रीकांत द्वारा संकलित ‘बिहारः चिट्ठियों की राजनीति’ पुस्तक कोई साहित्यिक विमर्श की प्रस्तुति नहीं है जिसकी साहित्यिक और अलंकारिक परिपाटी पर समीक्षा की जाए। वस्तुतः यह एक ऐसा संकलन है जो राजनीति की वास्तविकता से संवाद कराता है। बिहार और वहां की राजनीति के संदर्भ में अभी तक जो जानकारी थी वो इस पुस्तक के अध्ययन से और भी व्यापक हो जाती है। इससे पहले कि किसी विशेष पत्र का जिक्र हो, इस पुस्तक की महत्ता पर थोड़ी और चर्चा अपेक्षित है। यह ऐसा संकलन है जो बिहार के हर काल को आइने में उतारता है। देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद से लेकर नीतीश कुमार तक के पत्र ने, न सिर्फ राजनेताओं के आपसी वैचारिक मतभेद को उजागर किया है बल्कि जातिवाद, हिन्दु-मुस्लिम एकता, वोट-बैंक की राजनीति और आपसी तनातनी पर से भी पर्दा उठाया है। इस संकलन का पहला पत्र जो 1947 में डॉ राजेन्द्र प्रसाद द्वारा श्रीबाबू को लिखा गया था, वो बिहार की जातिगत और हिन्दु-मुस्लिम एकता की व्यक्तिवादी सोच पर आधरित राजनीति को दर्शाता है जो आजतक बिहार की राजनीति में परिलक्षित हो रही है। इस संकलन में खास बात यह है कि इसमें जितने भी राजनेताओं के पत्र शामिल किए गए हैं वो नेता किसी-न-किसी बड़े आंदोलन की उपज हैं चाहे वो राजेन्द्र बाबू हों या फिर नीतीश कुमार। और सबके राजनीतिक स्त्रोत एक ही हैं। अर्थात् बिहार की राजनीतिक पृष्ठभूमि पर दृष्टिगोचर होने वाले सभी राजनेता इतिहास की परिस्थितियों से बाहर निकले हैं जिन्हें राजनीतिक महत्वकांक्षाओं ने एक-दूसरे के सामने खड़ा कर दिया है। यह संकलन दरअसल राजनीतिक अन्तर्कलहों और अंतर्विरोधों का प्रतीक है नहीं तो बापू को संबोधित अपने पत्र में सूर्यनारायण आदर्शवादिता की दुहाई नहीं देते। हालांकि यह एकमात्र ऐसा पत्र नहीं है जिसमें आपसी मतभेद और परिस्थितियों की बात कही गई है बल्कि पूरी श्रृंखला है जो वैचारिक और राजनीतिक मतभेद और संवादहीनता के बीच निर्वात में गोता लगा रही है। आज हम जिन नेताओं को राजनीति के आपाधापी से पृथक कर, उनके लिए एक आदर्श दृष्टिकोण रखते हैं उनको संबोधित पत्र या उनके द्वारा लिखे पत्र को पढ़ते हुए एहसास होता है कि वे भी राजनैतिक परिभाषा की परिधि से बाहर नहीं थे। हालांकि इस संकलन में बात सिर्फ राजनीति तक सीमित नहीं है बल्कि राजनीति से आगे उसके अपराधीकरण की भी है। इस संकलित पत्रों से स्पष्ट होता है कि बिहार की राजनीति न सिर्फ जातिगत मुद्दों में उलझी रही बल्कि अपराधिक प्रवृति से भी लबरेज रही है। इससे बिहार की राजनीति का पतन तो हुआ ही है साथ ही नौकरशाही व्यवस्था को भी पतोन्मुख कर दिया। जिसका प्रमाण है अशोक चौधरी द्वारा 1978 में यशवंत सिन्हा को लिखा पत्र जो तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के प्रधान सचिव थे। इसमें लिखी बातों से स्पष्ट होता है कि तत्कालीन न्याय व्यवस्था को जातीय आधर पर स्थापित किया जा रहा है। हालांकि कुछ पत्रों में इसकी पीड़ा को भी देखा जा सकता है। जैसे ब्रम्हेश्वर मुखिया को लेकर कारा महानिरीक्षक को लिखा गया बक्सर के पुलिस अधीक्षक अमिताभ कुमार दास का पत्र। संकलित पत्रों को पढ़कर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि न सिर्फ बिहार शुरू से ही जातिवाद की राजनीति के दलदल में फंसा रहा बल्कि जितने भी बड़े नेता हुए हैं वो जातिवादी रहे हैं। हालांकि वर्तमान बिहार जो तथाकथित विकास की सीढ़ियों पर लगातार अग्रसर हो रहा है आज भी इस जातिगत मुद्दों से उबरा नहीं है। विकास के ‘अग्रदूत’ बने नीतीश कुमार भी इसी जोड़-तोड़ के परिणाम हैं। नीतीश कुमार जहां दलितों की राजनीति करते रहे और आरोप झेलते रहे कि उनके बाहरी और भीतरी व्यक्तित्व में काफी असमानता है। दूसरी तरफ नीतीश कुमार के समकालीन लालू यादव के पत्रों को पढ़कर यह स्पष्ट होता है कि वे हमेशा जातिगत आधारों के भरोसे रहे। वे हमेशा अवसरवादिता की राजनीति करते रहे। चाहे वो बिहार में मुख्यमंत्री बने रहने का दौर हो या फिर केन्द्र में रेलमंत्री बनने का। सभी परिस्थितियों में उनके अवसरवादी होने की भावना परिलक्षित होती है। हालांकि इस बीच शिवानंद तिवारी के पत्रों की भी बड़ी चर्चा रही। उनके लिखे पत्रों से तो यह स्पष्ट होता है कि वो लालू यादव और नीतीश कुमार के दो ध्रुवी खेमों में डोलते रहे। वे कभी लालू यादव के शुभचिंतक बन उन्हें नसीहत देते रहे तो कभी नीतीश कुमार को। चिट्ठियों की इस राजनीति में सबसे ज्यादा राजनीतिक दाव-पेंच लालू यादव और नीतीश कुमार के पत्र में देखने को मिलता है। यह उस दौर की बात थी जब महाराष्ट्र में रेलवे की परीक्षा देने गए बिहारियों के साथ हिंसा की घटना हुई थी। तब लालू यादव केन्द्र में रेलमंत्री थे और नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री । इन दोनों के पत्रों को पढ़कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस वक्त राजनीति किस कदर की जा रही थी। इसके अलावा इसमें कुछ पत्र और भी शामिल हैं जो बिहार की समाजवादी राजनीति को दर्शाते हैं। जैसे कर्पूरी ठाकुर और रामानंद तिवारी के बीच का पत्र। बहरहाल इस पुस्तक के माध्यम से आजादी के छह दशकों के राजनीति परिदृश्य में हुए बदलावों को देखा जा सकता है। दरअसल ये सभी पत्र बिहार की राजनीति को समझने का जरिया प्रदान करते हैं। इससे यह भी समझा जा सकता है कि बिहार की राजनीति तीन पीढ़ियों से गुजरी है और जिस युग की बागडोर जिन नेताओं के पास थी उनकी सोच अगली पीढ़ी के नेताओं से कितनी पृथक थी। 

बिहारः चिट्ठियों की राजनीतिः श्रीकांत
वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज
नई दिल्ली- 110 002
कीमतः 200रु.

AMAR BHARTI (HINDI DAILY)
Pratap Bhawan, 5, Bahadurshah Zafar Marg,
New Delhi-110002
Tel.:011-23724460, 43083451 Fax:011-23724456

Sunday, 2 September 2012

साहित्यिक परम्परा का दर्शन


पुस्तक समीक्षा

 अजय पाण्डेय

श्रीलाल शुक्ल की ‘अज्ञेयः कुछ रंग, कुछ राग’ एक ऐसी आलोचनात्मक रचना है जो इस शैली की सभी परम्पराओं से पृथक एक नई रंग पेश करती है। दरअसल उन्होंने जितनी भी रचनाएं की हैं वो किसी शैली विशेष की व्याख्या या आलोचना न होकर उसे समझने और समझाने की कला है। पुस्तक के प्रथम खण्ड ‘कहानी आन्दोलन और अज्ञेय की कहानियां’ इस बात पर प्रकाश डालती हैं कि कोई भी कहानी किसी एक क्षण का चित्रा प्रस्तुत करती है और वह क्षण किसी भी प्रारूप में हो सकता है। लेकिन श्रीलाल शुक्ल ने उस क्षण की बात कही है जब अज्ञेय ने भाषा, नई पीढ़ी, सैधांतिक पक्षों की प्रबलता और बदलाव के कारण कहानी लेखन छोड़ चुके थे। उसके बाद कथाकारों का जो दौर शुरू हुआ, उन्होंने अपने को पूर्ववर्ती लेखकों से भावबोध्, शिल्पबोध्, प्रवाह, मौलिकता आदि कई बिन्दुओं पर अलग स्थापित किया। साहित्य के घूमते पहिए ने अज्ञेय को औचित्यहीन बना दिया था । हालांकि इसका वाजिब कारण यह भी था कि कुछ समवयस्क लेखक अज्ञेय सरीखे कथाकारों की शैली को खारिज कर रहे थे। लेकिन अज्ञेय ने उस उम्र से कहानियां लिखनी शुरू की थी जिस उम्र में उनके समकालीन कथाकार भाषा और शैली को समझ रहे थे। वैसे इसमें एक बात और खास है कि इस कालखंड में जहां प्रेमचंद की शैली एक अलग ही साहित्यिक छाप छोड़ रही थी वहीं अज्ञेय प्रेमचंद के प्रभाव से बाहर एक अलग परम्परा स्थापित कर रहे थे। अज्ञेय अपनी कहानियों में विभिन्न परिस्थितियों में अवस्थित व्यक्ति के मनोलोक के अन्वेषण की ओर हमेशा अग्रसर रहे। और यही विध उन्हें बाकियों से अलग करता है। अज्ञेय अपनी रचना में इतने सचेष्ट हैं कि उनकी रचनाएं साहित्यिक हस्तक्षेप प्रस्तुत करती हैं। हालांकि आगे चलकर श्रीलाल शुक्ल ने अज्ञेय के बारे में यह भी लिखा है कि उनकी अनेक ऐसी कहानियां हैं जिसमें अपरिपक्वता थी, लेकिन तब यह भी स्पष्ट है कि ऐसा आरोप लगभग सभी लेखकों पर लगता रहा है और अज्ञेय ने तो अधिकतम कहानियां अपने युवावस्था में लिखी हैं। जहां तक उनकी कहानियों के आकलन की बात है तो अज्ञेय अपनी सभी विधाओं में मुखर नजर आते हैं। वे अपनी रचनाओं में चाहे जितना भी लोकभाषा से अलग रहे हों लेकिन जब उन्हीं रचनाओं का सूक्ष्म अध्ययन करते हैं तो स्पष्ट होता है कि अज्ञेय लोक-जीवन के कथाकार हैं।

इस पुस्तक का दूसरा खंड ‘आधुनिक हिन्दी उपन्यास और अज्ञेय’ दरअसल हिन्दी उपन्यास की यात्रा पर प्रकाश डालता है और यात्राकाल में अज्ञेय की ‘शेखरः एक जीवनी’ हिन्दी उपन्यास को एक नया आयाम देता है। श्रीलाल शुक्ल इस उपन्यासिक यात्रा गाथा को परिपुष्ट करने के लिए कई उपन्यासों का जिक्र करते हैं लेकिन इन सबमें अज्ञेय की ‘शेखरः एक जीवनी’ ने जो अमिट छाप छोड़ी है वो किसी अन्य ने नहीं। वस्तुतः यह पहला ऐसा उपन्यास है जिसमें शेखर (मुख्य पात्र) को इस रूप में प्रस्तुत किया गया है जो मृत्यु, प्रेम, ओज, देशभक्ति और दर्शन का प्रतिबिम्ब है। इतना ही नहीं यह पहला ऐसा उपन्यास है जिसमें तत्कालीन भारतीय समाज, संस्कृति, और भौगोलिक जीवन को भी कागजी ध्रातल पर लाया गया है और अज्ञेय इसमें पूरी तरह सफल भी होते हैं। दरअसल यह उस काल के सभी उपन्यासों से पृथक एक ऐसा उपन्यास है जो आधुनिक युग की ज्ञान- विधाओं और उपकरणों को एक संपुंजन के रूप में प्रस्तुत कर सका है। हालांकि ‘शेखरः एक जीवनी’ को लेकर कुछ आलोचकों में इस बात पर एकमत नहीं है कि शेखर के चरित्र को किस रूप में परिभाषित किया जाए। कुछ आलोचक उसे नियतिवादी मानते हैं तो कुछ विद्रोही। लेकिन उन्हें अवश्य ही समझ लेना चाहिए कि शेखर का कोई भी व्यक्तित्व अज्ञेय के दोनों खंडों में स्थापित नहीं हो सका है। बहरहाल सोच चाहे जो भी हो ‘शेखरः एक जीवनी’ का प्रकाशन हिन्दी उपन्यास की परंपरा को काफी पीछे छोड़ देता है। दरअसल यह उपन्यास विधा एक ऐसी फलक को प्राप्त करती है जो एक मुक्ति का एहसास करती है। वर्तमान में उपन्यास किसी विशेष घटनाओं का पुंज नहीं रहा, उसमें अब जीवन के समग्र अनुभव समेटे जा रहे हैं। उसमें मनुष्य के समानान्तर एक ऐसी दुनिया बसी है जो उसकी जटिल अनुभूतियों को इंगित करती है और अज्ञेय की ‘शेखरः एक जीवनी’ इस कसौटी पर खरी उतरती है। इस पुस्तक के अंतिम खंड 'आधुनिक हिन्दी व्यंग्यः अज्ञेय के संदर्भ के साथ’ वस्तुतः समकालीन हिन्दी के व्यंग्य लेखन का एक सर्वेक्षण है जो उस समय के व्यंग्य साहित्य का विश्लेषण करता है। लेकिन फिर भी श्रीलाल शुक्ल की नजर में व्यंग्य की कोई सुनिश्चित परिभाषा नहीं है। आजतक व्यंग्य को हास्य से जोड़ने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। दरअसल व्यंग्य के बारे में आम समझ ‘निंदात्मक’ और ‘आक्रामक’ लेखन के इर्द-गिर्द घूमता है जो शायद किसी लेखन शैली का नकारात्मक पक्ष भी माना जा सकता है लेकिन व्यंग्य विधा का एक सकारात्मक पक्ष यह भी है कि इस विधा में लेखक की निजी अवधरणा छिपी होती है जो किसी भी आदर्श सामाजिक व्यवस्था से जुड़ी होती है। इसके माध्यम से दूषित समाज या व्यवस्था के प्रति आक्रोश (निजी अवधरणा) व्यक्त किया जाता है। इस विधा की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह लेखन के सकारात्मक पक्ष को लोकस्वीकृति देता है और उसकी नकारात्मक-आक्रामकता को न्यायोचित बनाता है। दूसरे शब्दों में व्यंग्य, मूलतः जरूरत के अनुसार निन्दात्मक और आक्रामक लेखन के साहित्यिक उपयोग की परम्परा है। इस खंड की व्याख्या करते समय श्रीलाल शुक्ल ने व्यंग्य की यूरोपीय शैली का भी जिक्र किया है जो उस (यूरोपीय) भाषा में ‘सैटायर’ के समकक्ष प्रतीत होता है। जहां तक अज्ञेय के व्यंग्य शैली की बात है तो उनकी एक टिप्पणी ‘रमणीय गम्भीरता के हलके चापल्य की कौंध्’ काफी है उनकी व्यंग्य विशिष्टता को दर्शाने के लिए। बहरहाल जो भी हो व्यंग्य को दृष्टिगत रखते हुए यह निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए कि हिन्दी में व्यंग्य अन्य विधाओं का अनुषंगी नहीं रह गया है बल्कि वह इनसे परे नित स्वतंत्र विकास कर रहा है। कुल मिलाकर श्रीलाल शुक्ल ने ऐसी पुस्तक लिखी है जो हिन्दी की अलग-अलग विधाओं पर लिखी कई पुस्तकों की पुनरावृत्ति प्रस्तुत करता है। उन्होंने विभिन्न आयामों और स्वच्छंद समीक्षा के माध्यम से आधुनिक साहित्य को परखने की एक नई दृष्टि दी है। 

अज्ञेयः कुछ रंग, कुछ रागः श्रीलाल शुक्ल
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.,
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Saturday, 25 August 2012

सभ्यता को संजोती यात्राएं


पुस्तक समीक्षा

अजय पाण्डेय

डॉ कुसुम खेमानी की ‘कहानियां सुनाती यात्राएं’ एक ऐसा यात्रा संस्मरण हैं जो न सिर्फ भौगोलिक दर्शन हैं बल्कि अनुभूति और रोमांच का प्रसरण भी हैं। दरअसल इस पुस्तक से यात्रा-साहित्य को एक नया आयाम मिलता है जिसके माध्यम से इस साहित्य और शैली को परिपुष्ट किया जा सके। ‘कहानियां सुनाती यात्राएं’ की भाषा उतनी ही जीवंत और रोमांचक हैं जितनी यात्रा। इसके जरिए डॉ खेमानी ने विश्व संस्कृति की जो अप्रतिम व्याख्या की है वो अनन्य है लेकिन इसके आलोक में भारतीयता को जिस तरह गौरवान्वित किया गया है वो मात्रा यात्रा-साहित्य का विषय नहीं है। इस पूरे यात्रा संस्मरण को परम्परागत शैली से भिन्न इस अंदाज में प्रस्तुत किया गया है कि सभी प्रस्तुतियां (यात्रा संस्मरण) एकाकार हो गईं हैं। तभी तो डरबन से शुरू होने वाली यात्रा वेनिस (इटली)  तक एक ही फलक पर दृष्टिगोचर होती है लेकिन आनुभूतिक रूप से। डॉ खेमानी ने इस यात्रा संस्मरण से डरबन, रोम, बर्लिन, स्विट्जरलैण्ड, प्राग, मॉस्को, मिस्त्र, भूटान, अलास्का, हरिद्वार, कश्मीर, उज्जयिनी, कोलकाता, शिलांग, हैदराबाद तथा शांतिनिकेतन को एक सूत्र में पिरो दिया है। इन जगहों में इतनी तारतम्यता है कि डरबन विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष सीताराम रामभजन की अनुभूति सभी देशों और यात्राओं में होती है। दरअसल कुसुम खेमानी ने यात्रा के लिए जितने भी कदम बढ़ाए हैं वो सभ्यता और संस्कृति को उतनी बार परितृप्त करती है। इस यात्रा संस्मरण में जो बात सबसे ज्यादा अहम है वो यह कि यात्रा चाहे जिस देश की हो, वो यह दर्शाती है कि किसी भी देश की सभ्यता, ऐतिहासिकता, आदि को यात्रा के माध्यम से ही संजोया जा सकता है और डॉ खेमानी का यह यात्रा संस्मरण इसकी बखूबी व्याख्या भी करता है। उन्होंने अपनी सभी यात्राओं में वहां की सभ्यता का सूक्ष्म अध्ययन किया है तथा उसे एक आनुभूतिक भाषा का प्रारूप देकर उसकी गरिमा को और ज्यादा अंलकृत कर दिया है। इन यात्राओं में विशेषकर विदेश की यात्राओं में यह दृष्टिगोचर होता है कि डॉ खेमानी जहां भी जाती हैं उस देश की संस्कृति के साथ अपनी संस्कृति को एकमेक करना नहीं बिसरती। और यही वजह है कि वैदेशिक सभ्यताओं में भी एक अपनापन झलकता है। नहीं तो डरबन में ‘भारत हमारा देश है,’ ‘भारत भूमि स्वर्ग से महान है,’ ‘जन्मभूमि भारत मां की जय,’ तथा ‘हमें भारत पर गर्व है’ के गगनभेदी नारे नहीं लगाए जाते। लेकिन रोम के ऐश्वर्य को निहारते हुए उनके मानसपटल पर जरूर भारत की रवानगी, प्रवणता, प्रवाह और सौन्दर्य की अद्वितीयता दस्तक देती है जो साधारण  सी यक्षी, एलोरा की गुफा, कोणार्क-खजुराहो, जैसलमेर के ‘पटुओं की हवेली’, रणकपुर और दिलवाड़ा के मंदिरों में विद्यमान है। लेकिन इस बात का क्षोभ भी है कि कला के सभी आयाम मौजूद होने के बाद भी हमें दिखाने नहीं आता। परन्तु देश के अंदर की कुछ यात्राएं मसलन हरिद्वार, कश्मीर, हैदराबाद, उज्जयिनी, कोलकाता, गोवा जरूर राहत देती है और विश्वसभ्यता के साथ कदमताल करती है। जिसमें हैदराबाद, और उज्जयिनी की यात्रा ऐतिहासिकता, गोवा की यात्रा प्राकृतिक और आधुनिकता  तथा हरिद्वार और शांतिनिकेतन की यात्रा तो मोक्ष का द्वार ही खोल देती हैं और एक अद्भुत रोमांच पल्लवित करते हैं। लेकिन बर्लिन (जर्मनी)  जिसे डॉ खेमानी की नजरों से देखकर एक संतोष व्याप्त होता है कि जिसे हिटलर  ने हिंसा का पर्याय बना दिया था आज उसी देश का एक शहर विश्व को अहिंसा का पाठ पढ़ा रहा है और इसमें वो अकेला नहीं है बल्कि स्विट्जरलैण्ड और भूटान भी उसका भरपूर साथ दे रहे हैं। भूटान जहां सन्नाटा एक दैवीय धुन  सुनाता है वहीं स्विट्जरलैण्ड की धवल  पृष्ठभूमि पर नीली आभा के बीच शीतल कांति विद्यमान है जो इस बात की परिचायक है कि स्वर्ग जाने का मार्ग यहीं से गुजरता है। परन्तु एक भारतीय होने के नाते जो अपनापन मॉरिशस में मिलता है वो अन्यत्र नहीं। मॉरिशस ऐसा देश है जिसमें सम्पूर्ण भारतीयता तिरोहित है। वहां जाकर ही डॉ खेमानी जान पाती हैं कि पश्चिमी देशों में भी एक देश ऐसा है जो कोहिनूर की तरह चमक बिखेर रहा है। उन्हें मॉरिशस को ‘छोटा भारत’ कहते हुए सुनना एक सुखद अनुभूति का एहसास कराता है। लेकिन वहां से निकलकर जब ‘लोहे के पर्दे से झांकता मॉस्को’ पर दृष्टिपात करते हैं तो बड़ी विकलता होती है। कारण कि न सिर्फ मॉस्को बल्कि पूरे रूस को जिसे लेनिन ने अप्रतिम योगदान से दुर्भेद्य बना दिया था और बाद में ट्रॉटस्की, खुश्चेव, ब्रेजनेव तथा गोर्वाच्योव ने भी बारी-बारी से मॉस्को को अंलकृत किया था वो आज सेंट पीटर्सवर्ग के आगे नतमस्तक हो गया है। उसके अस्तित्व पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं कि अगर इस शहर को टॉलस्टॉय और गांधीजी  मिलकर बनाए होते तो इसका प्रारूप कैसा होता। कम से कम लेखक मॉस्को यात्रा संस्मरण के लिए ‘लोहे के पर्दे से झांकता मॉस्को’ शीर्षक का इस्तेमाल तो नहीं करतीं। परन्तु वहां से निकलकर जब अंकोरवाट में भारतीय मंदिरों का ठाठ देखते हैं तो निःसंकोच भारतीय परम्परा, शैली, नक्काशी की प्रतिभूति दिखने लगती है। यात्रा के क्रम में उज्जयिनी के ‘मृत्यु और प्रेम के जीवन-उत्सव’ से जब बाहर निकलते हैं तो मिस्त्र की वो पिरामिडें मृत्यु का नहीं बल्कि अमरता के ऐश्वर्य को परिभाषित करती हैं। वहां बने अजायबघर मृत्यु से साक्षात्कार कराते हुए जीवन की नई राह दिखा रहे हैं। कुछ ऐसे ही रास्ते अलास्का के शुभ्र धवल  खंड दिखा रहे हैं। अपनी यात्रा के आखिरी पड़ाव में जब डॉ कुसुम खेमानी त्रिनिडाड की यात्रा पर जाती हैं तो सहज ही भारतीय माटी की खुशबू आने लगती है तथा ये जानकर मन बड़ा हर्षित होता है कि त्रिनिडाड के चार प्रमुख विशेषताओं में भारतीय मूल के वी एस नॉयपाल का नाम भी शामिल है। इन सभी यात्राओं में अगर सबसे ज्यादा कोई देश या शहर छाप छोड़ता है तो वो रोम (इटली) है, क्योंकि डॉ खेमानी यहां के हवाईअड्डे पर जिस मुसीबत में फंसती हैं और यहां के अधिकारी  जो दरियादिली दिखाते हैं वो शायद ही किसी अन्य देश में दिखता है। रोम की यात्रा उन्हें एक नई अनुभूति प्रदान करता है। जहां तक इस शहर की बात है तो यहां के पुरातन चर्च, संग्रहालय, स्मारक खुद अपनी सौन्दर्य को बयां करते हैं। इटली ऐसी कलाकृतियों से भरा है मानो किसी चित्रकार ने एक बड़े कैनवास पर एक चित्ताकर्षक चित्र बना दिया हो। इस प्रकार ‘कहानियां सुनानी यात्राएं’ एक-दो नहीं लगभग सभी जगहों को शब्दों के माध्यम से एक भौगोलिक कैनवास पर उकेरी गई चित्रकथा जो यह बताती है कि घुमक्कड़ी जैसा कुछ नहीं। 

कहानियां सुनाती यात्राएं:  डॉ कुसुम खेमानी
राधाकृष्ण  प्रकाशन,
7/31, अंसारी रोड,
दरियागंज, 
नई दिल्ली-110 002
मूल्यः 400रु.
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Saturday, 18 August 2012

समय के साथ-साथ


पुस्तक समीक्षा

अजय पाण्डेय

शुरूआत गुलजार की ही पंक्ति से ‘किताबों से कभी गुजरो तो यूं किर्दार मिलते हैं! गए वक्तों की ड्योढ़ी में खड़े कुछ यार मिलते हैं!! दरअसल ‘ड्योढ़ी’ संस्मरण युक्त कहानी बहुआयामी प्रतिभा के किवदंती और मूर्धन्य, शायर, फिल्मकार , लेखक और गीतकार  गुलजार की रचना है जिसमें गुलजार का व्यक्तित्व आइने की तरह स्पष्ट झलकता है। ‘ड्योढ़ी’ एक संग्रह है जिसमें कुल आठ अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय में तीन-तीन परन्तु अध्याय दो में चार कहानियां हैं। ‘ड्योढ़ी’ की भाषा इतनी जीवंत है कि गुलजार कहानी के सभी पात्रों से संवाद करते नजर आते हैं। अर्थात् इसमें कथा तत्व भरपूर है। गुलजार ने कहानी में तारतम्य बनाए रखने के लिए एक अध्याय में एक सी पृष्ठभूमि पर रची-बसी कहानियों को इस कड़ी में रखा है कि एक कहानी बड़ी सहजता से दूसरी में प्रवेश कर जाती है। भाषा और अनुभव के बेजोड़ संगम ने कहानियों पर अप्रतिम छाप छोड़ा है। शुरूआती अध्याय के तीनों संस्मरण में भावावेग और संवेदना इस तरह समाहित है कि पाठक स्वयं उसका अंश बन जाता है। जादू (जावेद अख्तर) और साहिर लुधियानवी  के रिश्ते एक ऐसी परिपाटी पर आधरित है जहां भावनाएं इतनी प्रखर हो जाती हैं कि खुद से साक्षात्कार करने लगती हैं। फिर  निर्वात में एक प्रश्न खड़ा हो जाता है कि इस रिश्ते का स्वरूप क्या होगा? इसी रिश्ते के पायदान से ऐसी यादें प्रस्फुटित होती है जिससे कुलदीप नैयर की यादें जीवंत हो उठती है। ये यादें उनकी माताजी और उनके पीर साहब से इस कदर जुड़ी हैं कि वे ताउम्र उससे जुड़े रहते हैं। लेकिन कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं जो समय की मधुर  शिला पर एक हक से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। भूषण बनमाली की भी यही स्थिति है जो अपनी मित्रामंडली में जॉन स्टुअर्ट मिल के व्यक्तिवादी सिदधांत को परिपुष्ट करते हैं। कहानी की श्रृंखला जब आगे बढ़ती है तो मुम्बई की सच्ची तस्वीर जीवंत हो उठती है। वहां की मलिन बस्तियां और उसमें रहने वाले लोग और उनके बीच रहने वाला दामू, मारूति या फिर  भीखू उस चरित्र की अप्रतिम चित्रण करते हैं जहां आज भी लोग शराब के नशे में अपना सब कुछ दाव पर लगा देते हैं। हालांकि बात सिर्फ इतनी सी नहीं है। बस्तियों में रहने वाले लोगों का जो चरित्र-चित्रण किया गया है वो पाठक के सामने कभी धुंधली  न पड़ने वाली तस्वीर छोड़ जाते हैं। रिश्तों के लिए जद्दोजहद समाज की प्रकृति के रूप में दृष्टिगोचर होती है। गुलजार के शब्दों के कशीदे और इन्द्रजाल में रिश्ते इतनी गहराई तक जुडें हैं कि इसका प्रभाव और असर सरहद पार भी देखा जा सकता है। उन्हें आज भी देश के बंटवारे की आह लेकर जीवन के बोझ को ढ़ोते हुए देखा जा सकता है। चाहे वो फत्तू मासी, सीमा पर तैनात बुझारत सिंह हो या फिर  न्यूयार्क में रेस्तरां चलाने वाला रिटायर्ड कर्नल शाहीन। ये सभी लोग एक ही मनोदशा की प्रतिमूर्ति हैं। विभाजित हुए क्षेत्रों के बारे में जानने की कौतुहलता एक ऐसी इंसानी फितरत  को दर्शाती है जो उम्रभर इंसान का पीछा साए की तरह करती है। लेकिन गुलजार ने बड़ी साफगोशी से सीमा पर होने वाली रक्तरंजिश को देश की सीमा से ही जोड़ दिया है। तभी तो बंगाल में हुए दंगों का वीभत्स चेहरा देखने को मिलता है। दंगे मे इंसान का वो कुरूप चेहरा सामने आया है जिसमें कई लोगों ने मिलकर एक लड़की के उपर अपना ‘पुरुषार्थ' उतार दिया है। सड़क पर उसकी लाश ऐसे पड़ी है जैसे थाली में कटी हिल्सा मछली। इस पूरे घटना में आम आदमी कभी अपने अस्तित्व को जान नहीं पाता है। अगर वो जान पाता तो कश्मीर के लोग हिन्दुस्तान को दूसरा देश क्यों मानते? हमारी हुकूमतें वहां से आने वाले लोगों को बेधती  नजर से क्यों देखतीं? दरअसल यही वो सवाल है जिसके जवाब मिलते-मिलते कई पीढ़ियां गुजर गईं। गुलजार ने ‘स्वयंवर’ शीर्षक से एक ऐसे प्रधानमंत्री की मौत का मंजर पेश किया है जिनकी यादें आज भी हिन्दुस्तानियों के जेहन में घूम रही हैं। वो एक ऐसा स्वयंवर था जिसमें दोनों अमर हो गए। यह घटना एक बड़ा और अबूझ सवाल छोड़ जाता है कि आखिर वे कौन लोग थे जिन्होंने यह किया। लेकिन अगले ही पल यह जवाब मिल जाता है कि ये वो लोग थे जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में हुए विकास के असमानता के गर्भ से पैदा हुए और समाज के जमींदारों और सामंतों के दलनों के साये में पले-बढ़े। नहीं तो गोरख पांडे जैसे लोग व्यवस्था के खिलाफ आवाज क्यों उठाते? उन्हें नक्सलवादी बनने की जरूरत ही नहीं पड़ती। गुलजार ने ‘अठन्नियां’ शीर्षक से आम आदमी की जिस भावनाओं को जोड़ा है वो अपने आप में मातबरी से लबरेज है। दरअसल यह एक आम आदमी की सच्ची तस्वीर है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था और इस व्यवस्था की चूक से पैदा हुई अवैध् लोकतांत्रिक परिणति के बीच कैसे पिसता है इसका माकूल दृष्टांत है। लेकिन अगले पल जीवन और मौत से संघर्ष के बीच की लम्बी लेकिन मार्मिक अवस्था को गुलजार ने बखूबी शब्दों के जाल में पिरोया है। गुलजार के कहानी के पात्र मौत के रास्ते में होने वाली पीड़ा से अंजान हैं और उन्हें मौत  कहानी की किताबों के सुपरमैन जैसी दिखने लगती है। लेकिन मौत से जीतने की संघर्षगाथा सिर्फ मानवीय फितरत  में शुमार नहीं होती, बल्कि पशु-पक्षियों में भी होती है और एक उन्मुक्त आकांक्षा उनके दिल में भी पनपती है। लेकिन समय के साथ-साथ मनुष्य की स्थिति बिल्कुल अमजद की नारंगी जैसी हो जाती है जो समय के साथ पिलपिले और दागदार हो जाते हैं। मौत हमेशा वक्त से जीतती आ रही है जैसा कि भूकंप से जमींदोज हुई इमारतों के बोझ तले बुखारी तिल-तिल कर मौत की आगोश में जाता है परन्तु उसकी जिजिविषा उसे अठ्ठारह दिन मौत से लड़ने की ताकत देता है और अंततः वह मौत को पटखनी भी दे देता है। लेकिन हर बार ऐसा नहीं होता क्योंकि जिन्दगी को कभी ‘शॉर्टकट’ से नहीं जिया जा सकता। गुलजार ये बता देना चाहते हैं कि जीवन के उस पार एक गहरी खोह है जहां से पार नहीं पाया जा सकता। अंत में गुलजार ने सांझ के उस ढ़लते सूरज को याद किया है जो समय और समाज दोनों से ‘एडजस्टमेंट’ करते रहते हैं। लाला जी को जहां अपनी बीबी के बुढ़ापे में बाल कटवाने से इतनी कुफ्र होती है कि वह घर तक त्याग देते हैं और संन्यासी का रूप धरण कर उम्र भर न बाल कटवाते हैं और न ही दाढ़ी। वहीं उम्र के आखिरी पायदान पर खड़े दादा को अपने पोते से इस बात के लिए एडजस्टमेंट करनी पड़ती है क्योंकि उसने अपने पोते को डांटते हुए तीन-चार थप्पड़ लगा दिया है। इस उम्र में एडजस्टमेंट करना कितना मुश्किल है वो ‘एडजस्टमेंट’ खुद बयां कर देता है। 
कुल मिलाकर गुलजार की ‘ड्योढ़ी’ सम्पूर्ण वायवीय संसार को समेटे एक भावपरक शैली में प्रस्तुत की गई है जिसमें मानवीय संवेदना, रिश्तों का ताना-बाना, समाज का वीभत्स चेहरा, बुढ़ापे का दर्द वो सबकुछ है जो समय के साथ-साथ अपने आप से संवाद करता है। 
                                                                                                                                                                अजय पाण्डेय
                                                                                                                                                                ड्योढ़ीः गुलजार 
                                                                                                                                वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज,
                                                                                                                                                                नई दिल्ली-110002
                                                                                                                                                                        मूल्यः 250रु.