Saturday 18 August 2012

समय के साथ-साथ


पुस्तक समीक्षा

अजय पाण्डेय

शुरूआत गुलजार की ही पंक्ति से ‘किताबों से कभी गुजरो तो यूं किर्दार मिलते हैं! गए वक्तों की ड्योढ़ी में खड़े कुछ यार मिलते हैं!! दरअसल ‘ड्योढ़ी’ संस्मरण युक्त कहानी बहुआयामी प्रतिभा के किवदंती और मूर्धन्य, शायर, फिल्मकार , लेखक और गीतकार  गुलजार की रचना है जिसमें गुलजार का व्यक्तित्व आइने की तरह स्पष्ट झलकता है। ‘ड्योढ़ी’ एक संग्रह है जिसमें कुल आठ अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय में तीन-तीन परन्तु अध्याय दो में चार कहानियां हैं। ‘ड्योढ़ी’ की भाषा इतनी जीवंत है कि गुलजार कहानी के सभी पात्रों से संवाद करते नजर आते हैं। अर्थात् इसमें कथा तत्व भरपूर है। गुलजार ने कहानी में तारतम्य बनाए रखने के लिए एक अध्याय में एक सी पृष्ठभूमि पर रची-बसी कहानियों को इस कड़ी में रखा है कि एक कहानी बड़ी सहजता से दूसरी में प्रवेश कर जाती है। भाषा और अनुभव के बेजोड़ संगम ने कहानियों पर अप्रतिम छाप छोड़ा है। शुरूआती अध्याय के तीनों संस्मरण में भावावेग और संवेदना इस तरह समाहित है कि पाठक स्वयं उसका अंश बन जाता है। जादू (जावेद अख्तर) और साहिर लुधियानवी  के रिश्ते एक ऐसी परिपाटी पर आधरित है जहां भावनाएं इतनी प्रखर हो जाती हैं कि खुद से साक्षात्कार करने लगती हैं। फिर  निर्वात में एक प्रश्न खड़ा हो जाता है कि इस रिश्ते का स्वरूप क्या होगा? इसी रिश्ते के पायदान से ऐसी यादें प्रस्फुटित होती है जिससे कुलदीप नैयर की यादें जीवंत हो उठती है। ये यादें उनकी माताजी और उनके पीर साहब से इस कदर जुड़ी हैं कि वे ताउम्र उससे जुड़े रहते हैं। लेकिन कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं जो समय की मधुर  शिला पर एक हक से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। भूषण बनमाली की भी यही स्थिति है जो अपनी मित्रामंडली में जॉन स्टुअर्ट मिल के व्यक्तिवादी सिदधांत को परिपुष्ट करते हैं। कहानी की श्रृंखला जब आगे बढ़ती है तो मुम्बई की सच्ची तस्वीर जीवंत हो उठती है। वहां की मलिन बस्तियां और उसमें रहने वाले लोग और उनके बीच रहने वाला दामू, मारूति या फिर  भीखू उस चरित्र की अप्रतिम चित्रण करते हैं जहां आज भी लोग शराब के नशे में अपना सब कुछ दाव पर लगा देते हैं। हालांकि बात सिर्फ इतनी सी नहीं है। बस्तियों में रहने वाले लोगों का जो चरित्र-चित्रण किया गया है वो पाठक के सामने कभी धुंधली  न पड़ने वाली तस्वीर छोड़ जाते हैं। रिश्तों के लिए जद्दोजहद समाज की प्रकृति के रूप में दृष्टिगोचर होती है। गुलजार के शब्दों के कशीदे और इन्द्रजाल में रिश्ते इतनी गहराई तक जुडें हैं कि इसका प्रभाव और असर सरहद पार भी देखा जा सकता है। उन्हें आज भी देश के बंटवारे की आह लेकर जीवन के बोझ को ढ़ोते हुए देखा जा सकता है। चाहे वो फत्तू मासी, सीमा पर तैनात बुझारत सिंह हो या फिर  न्यूयार्क में रेस्तरां चलाने वाला रिटायर्ड कर्नल शाहीन। ये सभी लोग एक ही मनोदशा की प्रतिमूर्ति हैं। विभाजित हुए क्षेत्रों के बारे में जानने की कौतुहलता एक ऐसी इंसानी फितरत  को दर्शाती है जो उम्रभर इंसान का पीछा साए की तरह करती है। लेकिन गुलजार ने बड़ी साफगोशी से सीमा पर होने वाली रक्तरंजिश को देश की सीमा से ही जोड़ दिया है। तभी तो बंगाल में हुए दंगों का वीभत्स चेहरा देखने को मिलता है। दंगे मे इंसान का वो कुरूप चेहरा सामने आया है जिसमें कई लोगों ने मिलकर एक लड़की के उपर अपना ‘पुरुषार्थ' उतार दिया है। सड़क पर उसकी लाश ऐसे पड़ी है जैसे थाली में कटी हिल्सा मछली। इस पूरे घटना में आम आदमी कभी अपने अस्तित्व को जान नहीं पाता है। अगर वो जान पाता तो कश्मीर के लोग हिन्दुस्तान को दूसरा देश क्यों मानते? हमारी हुकूमतें वहां से आने वाले लोगों को बेधती  नजर से क्यों देखतीं? दरअसल यही वो सवाल है जिसके जवाब मिलते-मिलते कई पीढ़ियां गुजर गईं। गुलजार ने ‘स्वयंवर’ शीर्षक से एक ऐसे प्रधानमंत्री की मौत का मंजर पेश किया है जिनकी यादें आज भी हिन्दुस्तानियों के जेहन में घूम रही हैं। वो एक ऐसा स्वयंवर था जिसमें दोनों अमर हो गए। यह घटना एक बड़ा और अबूझ सवाल छोड़ जाता है कि आखिर वे कौन लोग थे जिन्होंने यह किया। लेकिन अगले ही पल यह जवाब मिल जाता है कि ये वो लोग थे जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में हुए विकास के असमानता के गर्भ से पैदा हुए और समाज के जमींदारों और सामंतों के दलनों के साये में पले-बढ़े। नहीं तो गोरख पांडे जैसे लोग व्यवस्था के खिलाफ आवाज क्यों उठाते? उन्हें नक्सलवादी बनने की जरूरत ही नहीं पड़ती। गुलजार ने ‘अठन्नियां’ शीर्षक से आम आदमी की जिस भावनाओं को जोड़ा है वो अपने आप में मातबरी से लबरेज है। दरअसल यह एक आम आदमी की सच्ची तस्वीर है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था और इस व्यवस्था की चूक से पैदा हुई अवैध् लोकतांत्रिक परिणति के बीच कैसे पिसता है इसका माकूल दृष्टांत है। लेकिन अगले पल जीवन और मौत से संघर्ष के बीच की लम्बी लेकिन मार्मिक अवस्था को गुलजार ने बखूबी शब्दों के जाल में पिरोया है। गुलजार के कहानी के पात्र मौत के रास्ते में होने वाली पीड़ा से अंजान हैं और उन्हें मौत  कहानी की किताबों के सुपरमैन जैसी दिखने लगती है। लेकिन मौत से जीतने की संघर्षगाथा सिर्फ मानवीय फितरत  में शुमार नहीं होती, बल्कि पशु-पक्षियों में भी होती है और एक उन्मुक्त आकांक्षा उनके दिल में भी पनपती है। लेकिन समय के साथ-साथ मनुष्य की स्थिति बिल्कुल अमजद की नारंगी जैसी हो जाती है जो समय के साथ पिलपिले और दागदार हो जाते हैं। मौत हमेशा वक्त से जीतती आ रही है जैसा कि भूकंप से जमींदोज हुई इमारतों के बोझ तले बुखारी तिल-तिल कर मौत की आगोश में जाता है परन्तु उसकी जिजिविषा उसे अठ्ठारह दिन मौत से लड़ने की ताकत देता है और अंततः वह मौत को पटखनी भी दे देता है। लेकिन हर बार ऐसा नहीं होता क्योंकि जिन्दगी को कभी ‘शॉर्टकट’ से नहीं जिया जा सकता। गुलजार ये बता देना चाहते हैं कि जीवन के उस पार एक गहरी खोह है जहां से पार नहीं पाया जा सकता। अंत में गुलजार ने सांझ के उस ढ़लते सूरज को याद किया है जो समय और समाज दोनों से ‘एडजस्टमेंट’ करते रहते हैं। लाला जी को जहां अपनी बीबी के बुढ़ापे में बाल कटवाने से इतनी कुफ्र होती है कि वह घर तक त्याग देते हैं और संन्यासी का रूप धरण कर उम्र भर न बाल कटवाते हैं और न ही दाढ़ी। वहीं उम्र के आखिरी पायदान पर खड़े दादा को अपने पोते से इस बात के लिए एडजस्टमेंट करनी पड़ती है क्योंकि उसने अपने पोते को डांटते हुए तीन-चार थप्पड़ लगा दिया है। इस उम्र में एडजस्टमेंट करना कितना मुश्किल है वो ‘एडजस्टमेंट’ खुद बयां कर देता है। 
कुल मिलाकर गुलजार की ‘ड्योढ़ी’ सम्पूर्ण वायवीय संसार को समेटे एक भावपरक शैली में प्रस्तुत की गई है जिसमें मानवीय संवेदना, रिश्तों का ताना-बाना, समाज का वीभत्स चेहरा, बुढ़ापे का दर्द वो सबकुछ है जो समय के साथ-साथ अपने आप से संवाद करता है। 
                                                                                                                                                                अजय पाण्डेय
                                                                                                                                                                ड्योढ़ीः गुलजार 
                                                                                                                                वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज,
                                                                                                                                                                नई दिल्ली-110002
                                                                                                                                                                        मूल्यः 250रु.

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