Wednesday 10 October 2012

साहित्य के विभिन्न भावालोकों में

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय

साहित्य के विभिन्न आयामों, दृष्टिकोणों, परम्पराओं और शोधपरक  विषयवस्तु को समेटे सुधीश पचौरी द्वारा संपादित वाक् का यह अंक साहित्यिक फलक पर एक चतुर्दिक छाप छोड़ता है। साहित्यिक संग्रह के प्रारम्भ में श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की कुछ स्मृतियां तत्कालीन समाज को समझने-बुझने का एक आधार  प्रदान करती हैं। ‘दाखिले की शर्त’ शीर्षक से शामिल इस संस्मरण ने समाज में विद्यमान जटिलताओं, जातिभेदों, बेगारी प्रथा समेत तमाम विषयों को बड़ी सूक्ष्मता लेकिन सहजता से उठाया है। दरअसल यह संस्मरण साक्षी है उस दौर का जब समाज जातिभेदों और प्रपंचों के भंवरजाल में उलझा हुआ था। जहां समाज के निम्नवर्गीय (जातिगत रूप से) लोगों की नियति उच्चवर्गीय लोगों की ड्योढ़ी पर आकर दम तोड़ देती थी। वह साक्षी है उस दौर की जहां पढ़ने-लिखने का एकाधिकार  समाज के ऊँचें तबके के लोगों को ही प्राप्त था। लेकिन उन परिस्थितियों में श्यौराज सिंह ने जिस तरह तारतम्य बैठाया वह उनकी जिजिविषा, पढ़ने की ललक और समाज की प्रतिगामी धाराओं से लड़ने का प्रमाण प्रस्तुत करती है। इसमें शामिल दो अन्य शोधपरक  लेख ‘वर्णाश्रम व्यवस्था में  स्त्री ; देवी या दासी’ और ‘संथाल ‘हूल’; आजादी की पहली बड़ी लड़ाई’ इस सोच और परम्परा को आगे बढ़ाने का कार्य करते हैं। ‘वर्णाश्रम व्यवस्था में स्त्री ; देवी या दासी’ भारतीय इतिहास में स्त्रियों  की स्थिति पर प्रकाश डालता है। दरअसल इसमें वैदिक काल से लेकर हाल तक की घटनाओं में स्त्रीत्व परम्परा का दर्शन होता है। वैसे इस पूरे आलेख में इस प्रश्न का उत्तर तलाशने की कोशिश की गई है कि जिस प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति का महिमामंडन किया जाता रहा है उसमें नारी की क्या स्थिति थी। सामाज में उसे किस श्रेणी में रखा गया था- देवी या दासी? दूसरा लेख ‘संथाल ‘हूल’; आजादी की पहली बड़ी लड़ाई’ एक व्यापक शोध् है तथा आजादी की लड़ाई में योगदान देने वाले उन लोगों को सामने लाने का प्रयास किया गया है जिन्हें समयचक्र ने नेपथ्य में भेज दिया है। दरअसल भारत की आजादी की लड़ाई की परिधि कुछ शहरों  और कुछेक लोगों तक सिमट कर रह गई है लेकिन सही मायने में आजादी की लड़ाई गरीब किसानों, आदिवासियों, कामगारों  ने लड़ी। यह लेख संथाल ‘हूल’ को केन्द्र में रखकर लिखा गया है जिससे स्पष्ट किया गया है कि यह शोषण के खिलाफ एक व्यापक जन आंदोलन था जिसमें  एक बड़ी क्रांति का बीज निहित था। लेकिन यह दुर्भाग्य है उन संथालों का या फिर  इन जैसे हजारों-लाखों लोगों का जो पूंजीवादी व्यवस्था में जकड़े हुए हैं और उन्हें वैसे देश की माटी नसीब हुई जहां एक आंतरिक उपनिवेश काम करता है जिसने क्रांति की धार को हमेशा कुंद किया है। बाद के लेखों में साहित्यिक यात्रा की शुरूआत होती है जिसमें पहला लेख ‘त्रिलोचनः नैसर्गिकता को परम्परा बनाता सृजन’ त्रिलोचन की साहित्यिक रचना को समर्पित है। त्रिलोचन की पूरी रचना एक साधरण प्रसंग से युक्त लेकिन असाधरण प्रभाव और रचना साहित्य का सच उजागर करता है। उनकी रचनाएं सत्य, प्रतीति, और प्रबोध् की अंदरूनी बनावट से पैदा होता है जो यह स्पष्ट करता है कि उनकी रचना भूमि का कोई ध्रुवीय  संघर्ष नहीं है। त्रिलोचन की रचनाएं एक घालमेल हैं जो एक दर्शन है, मूल्य है जो उनकी रचनाओं में एक समीकरण पैदा करता है। दरअसल उनकी रचनाएं काफी व्यापक भाव तो प्रस्तुत करती हैं परन्तु बहुआयामी साबित नहीं हो पाती। आगे के खंड में एक कहानी ‘तनहाइयां परिंदे की’ शीर्षक के साथ है जो एक क्रांतिकारी युवा नेता हेमंत के इर्द-गिर्द घूमती है। हेमंत एक ऐसा किरदार है जिसके अन्तर्मन में शासन-प्रशासन के लिए उतनी ही घृणा है जितना कि अपनी सहपाठी ज्योति से प्रेम। लेकिन यह कहानी उस पृष्ठभूमि पर आधरित है जहां तिथियों को छोड़कर बाकी सबकुछ झूठ होता है। इस श्रृंखला में तीन काव्यखंड भी हैं। जिसमें पहली बोध्सित्व की कविताएं हैं जिसमें एक भावशून्य बिस्नू की दास्तान है लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण वो कड़ी है जो यह समझता है कि ‘जिनकी आंखों में कुछ नहीं होता उनके जीवन में कुछ नहीं होता’। इसके अलावा युवा पीढ़ी के दो प्रतिनिनियों की कविताएं हैं जिसमें पहली निशांत और दूसरी शंकरानन्द की हैं। निशांत की कविताएं जहां कैनवास पर उकेरे गए चित्रों के विभिन्न भावालोकों को बयां करती हैं वहीं शंकरानन्द की कविताएं राजनीतिक समझ और सामाजिक सजगता की उम्मीद जगाती हैं। इसके अलावा ‘कल्पना’ पत्रिका के संपादक जगदीश मित्तल से बातचीत की लम्बी श्रृंखला है जो कला के विभिन्न आयामों से संवाद स्थापित करता है। प्रियदर्शन का पुस्तक विशेष ‘वन से खुले और बंद अज्ञेय’ शीर्षक से ‘अपने-अपने अज्ञेय’ की समीक्षा है। दरअसल यह विश्लेषण पूरी तरह अज्ञेय दर्शन है। अंत में दो शोध् आलेख हैं जिसमें एक जगदीश चतुर्वेदी द्वारा ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और साहित्य का इतिहास दर्शन’ कराता है तो वहीं विजयदान देथा द्वारा रचित ‘कंचन बड़ा कि काया’ का पल्लव द्वारा विश्लेषण है। जहां हर किरदार एक दुविधा  में  जीता है। यह कहानी विजयदान देथा को गहरी लोक चेतना के कलाकार के रूप में स्थापित करती है। वे बड़ी सापफगोशी से अपनी बात स्पष्ट करते हैं कि जिस सुख की प्राप्ति के लिए मनुष्य को धन  और उपभोग की लालसा है उसी लालसा में जीवन बीतता चला जाता है, सुख नहीं मिलता। दरअसल इस पूरी कहानी में झूठे मूल्यों, आदर्शों मनुष्य की उदात्तता की सर्वोच्च कामना को परिलक्षित किया गया है। बहरहाल, वाक् का यह अंक गंभीर, सार्थक और सटीक संग्रहों के साथ एक सम्पूर्ण कलेवर है जिसे संपादक सुधीश  पचौरी ने और ज्यादा धार  दिया है। 
 वाक्
वाणी प्रकाशन, 21-ए
दरियागंज, नई दिल्ली-02
कीमतः 75रु.

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