Friday 10 August 2012

बहुजन आत्मा की खोज में एक कदम [ साहित्य दर्पण ]

फारवर्ड प्रेस (पत्रिका)
अजय पाण्डेय
आज बहुजन साहित्य और पत्रिका पढ़ते हुए यह जिज्ञासा प्रबल हो रही है कि ऐसे साहित्य की जरूरत क्यों पड़ी क्योंकि साहित्य का तो कोई दायरा होता ही नहीं है, उसमें बहुजन, ब्राह्मणवाद या द्विजता जैसी कोई बात नहीं होती है। लेकिन पत्रिका को पढ़ने के बाद जिज्ञासा पर विराम लगा। और स्पष्ट हुआ कि जिस समाज में ब्राह्मणवादी और द्विज साहित्य की मौजूदगी को ज्यादा तवज्जो दिया गया है उसमें इस बहुजन साहित्य की आवश्यकता है।  दरअसल बहुजन साहित्य को लिखने का यह मंतव्य नहीं है कि पूरे हिन्दी साहित्य को इस नजरिये से देखा जाए।  बल्कि यह इस बात को इंगित करता है कि समाज समस्त साहित्य के मूल्यों को अंगीकार करे। हालांकि पत्रिका के संपादकीय लेख में जिस कहानी का जिक्र कर समाज के ताने-बाने को दर्शाने की कोशिश की गई है उससे तो स्पष्ट है कि समाज में जो दलित, आदिवासी या पिफर मुसलमानों के नाम पर जो भ्रांतियां पफैली हुई हैं वो दरअसल सामाजिक असंतुलन का परिणाम है। इसके अलावा जिस विषय वस्तु पर ज्यादा जोर दिया गया है वो है ‘बहुजन साहित्य’। इस खंड में बहुजन साहित्य समय की मांग को लेकर इतना विस्तृत हो गया है कि इसमें ओबीसी साहित्य धरा, दलित साहित्य धरा और आदिवासी साहित्य भी समावेशित हो गया है। इसमें इस बात को प्रखरता से उभारा गया है कि बहुजन साहित्य अस्मिता और भूख से लड़ने का हथियार मुहैया कराती है और स्पष्ट करती है कि जो लड़ाई भूख और अस्मिता के लिए लड़ी जाती है वही अगर साहित्य के लिए की जाए तो उसे ‘बहुजन साहित्य’ कहते हैं। इसके अलावा जहां तक बहुजन आलोचना की बात है तो इतना तो स्पष्ट है कि किसी साहित्य की आलोचना उसकी सम्यक विवेचन, निरीक्षण तथा सूक्ष्म अध्ययन करती है। इसमें न सिर्फ कृति के बाहरी आवरण का परीक्षण होता है बल्कि साहित्यकार की भी अंतःचेतना की परख होती है। इसके अलावा आलोचना की मार्क्सवादी शैली का अनुपयुक्त करार देना भी इस साहित्य की सार्थकता पर जोर देता है क्योंकि भारत में वर्ग-संघर्ष से ज्यादा जाति-संघर्ष देखा जाता है ऐसे में यह उचित है कि मार्क्सवादी आलोचना भारत में बेईमानी है। पत्रिका के अगले खंड में उन साहित्यकारों और लेखकों का जिक्र है जो समय और समाज के जातीय पदसोपान की अंध्ेरी स्याह में गुमनाम हो गए। पत्रिका ऐसे लोगों को पुनर्जीवित करती है जिन्हें सवर्ण साहित्य और साहित्यकारों ने नेपथ्य में भेज दिया था। चाहे वो ज्योतिबा पुफले, ताराबाई शिंदे, अनूपलाल मंडल या पिफर इन जैसे कितने ही साहित्यकार जिन्हें सवर्ण साहित्य ने कभी अंगीकार नहीं किया और इनकी रचनाओं को पल्लवित तक नहीं होने दिया। आज ज्योतिबा पफुले को आधुनिक  बहुजन साहित्य का अग्रदूत माना जाता है, अनूपलाल मंडल की साहित्य उस काल की अमूल्य धरोहर  हो सकती थी जब हमारा साहित्य गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा आजादी के ख्वाब बुन रहा था और क्रांतिकारी लेखिका ताराबाई शिंदे उन्नीसवीं सदी उन साहित्यकारों में से एक थी जिन्होंने सामाजिक जटिलताओं पर प्रहार किया था। बावजूद इसके इन जैसे साहित्यकारों ने ख्याति तो दूर समाज में पहचान तक नहीं बना सके।  ‘बहुजन साहित्य की अवधरणा और आदिवासी’ खंड में दलित साहित्य के साथ-साथ आदिवासी साहित्य को स्पष्ट करना भी पत्रिका की विशेषता की एक कड़ी है। दरअसल इन दोनों साहित्यों में मामूली पफर्क है। आदिवासी साहित्य का अध्ययन जहां जंगलों और जमीनों के संघर्ष के साथ होता है वहीं दलित साहित्य के अध्ययन के केन्द्र में दलित-मुक्ति और जातीय संघर्ष है। इस खंड में आदिवासियों की सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्राता के प्रश्न का उत्तर बहुजन साहित्य में ढूंढना  भी इस साहित्य की यथार्थता पर प्रकाश डालता है। इन सब के बीच पत्रिका में जो पथप्रदर्शक और सच्चाई से रूबरू कराती कवितायें हैं वो वास्तव में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। कुछ कविताओं में दलित आत्मा की खोज भी सामाजिक वैमनस्य का परिणाम है। 

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