Saturday 11 August 2012

कहना तो आता है... [ साहित्य दर्पण ]

पुस्तक समीक्षा

अजय पाण्डेय
समाज सजग कवि के रूप मे चर्चित पवन करण के काव्य संकलन ‘कहना नहीं आता’ की कविताएं विचारशीलता, वैविध्य, संवेदनशीलता, संवाद धर्मिता , समरसता तथा समाजिक सरोकार की वजह से अपनी ओर आकर्षित  करती है। इस संकलन की सभी कविताएं आधुनिक  समाज, समयचक्र और कालान्तर में  होने वाली अनुभूतियों  की परिणति हैं जो यह दर्शाती है कि कविता तो कहीं से भी निकाली जा सकती है। दरअसल इसकी (संग्रह)  सभी कविताएं समकालीन समाज में अपने होने का एहसास कराती है। वैसे पिछले कई सालों में यह देखा गया है कि हिन्दी काव्य एक संक्रमण के दौर से गुजरा है जो कई परिवर्तनों का साक्षी रहा है। इन परिस्थितियों में जो नई कवि पीढ़ी हुई है उसके सामने आत्माभिव्यक्ति सबसे बड़ी चुनौती साबित हुई और इस चुनौती में पवन करण खड़े दिखाई देते हैं। दरअसल पवन करण अपनी आत्माभिव्यक्ति के लिए जिस समाजिकता और प्रायोगिक धरा को अपनाते हैं उससे इनकी कविताएं संवदेनशील और ईमानदार बन जाती हैं। उसमें एक सामाजिक निर्दोषता आ जाती है। जहां तक इस संकलन में शामिल कविताओं की शिल्प और संरचना की बात है तो ये कविताएं समाज संस्कृति, आधुनिकता  की परिपाटी, मानवीय आयामों समेत सोच और कल्पना के वैविध्य संसार को समटे हुए है। इनमें से ‘मोबाइल’ शीर्षक से पांच, ‘गरीब देश’ शीर्षक से दो, ‘मिलना’ शीर्षक से पांच, ‘अपने दोस्तों के बीच ईश्वर’ शीर्षक से पांच, और ‘मैं स्त्री  होना चाहता हूं  शीर्षक से दो कविताएं हैं। इसके अलावा इनमें से ‘इन्हें चाव से पढ़ें’ एक ऐसी कविता है जो शौचालयी भाषा को पोषित करती है। ‘सूर्या सावित्री , ‘आरक्षण गली अति सांकरी’, ‘चकबारा’, ‘सवारा’, ‘जयश्री राम’ ये कुछ ऐसी कविताएं हैं जो रूढ़िवादी समाज की सीमित सोच पर कुठाराघात है। हां बीच-बीच में ‘झूठ’, ‘रक्त’, ‘कल’, ‘कहना’, ‘माचिस’ आदि कई कविताएं जो पृथक लेकिन सार्थक संदेश छोड़ती हैं। कवि ने इस काव्य संग्रह में सामाजिक परिवेश और आम जीवन में होने वाली घटनाओं के इतने दृष्टिकोणों का समग्र रूप से उठाया है कि शायद ही उसका अंशमात्रा पहलू छूटा हो। इन कविताओं की सबसे अच्छी बात यह है कि यह मनुष्य, समाज, मानवीय कार्यशैली की सकारात्मक और नकरात्मक पक्ष दोनों पर प्रकाश डालती है। कवि ने कुछ कविताओं में समाज के कुरूप चेहरे पर से पर्दा उठाने का प्रयास भी किया है। ‘बल्ब’, ‘उस फोटोग्राफर का नाम पता करो’ से समाज की एक यथार्थता सामने आती है। पवन करण की कविताएं ‘सवारा’ और ‘भाई’ के माध्यम से रूढ़िवादी समाज और उसकी कौटिल्य परम्परा पर चोट करती नजर आती है। हां इसमें कवि ने ‘फोकटिया’ के माध्यम से दूर गांव में रहने वाले मुफ्त  की कमाई पर गुजर-बसर करने वाले लोगों पर प्रकाश डाला है। पवन करण की यह काव्य संग्रह ‘कहना नहीं आता’ एक समाज-सजग होने के साथ ही सामाजिक रूप से संवेदनशील और मानस पटल पर एक व्याकुलता की दुनिया है। इसमें लगभग सभी कविताएं कवि और आम जनमानस के जीवन में होने वाली दैनंदिनी घटनाओं का काव्यंकित रूप है। इसमें संवेदना, अनुभूति, और विचार की पराकाष्ठा है जो किसी भी शैली से पृथक एक अलग ही काव्यत्व-निर्वाह को प्राप्त करती है। अधिकतर कविताओं की संवेदनात्मक आख्यान उसे प्राकृतिक भावावेग से लिप्त कर काव्यात्मक-निर्वाह से ऐसे परिपूर्ण करती है कि लम्बी कविताएं भी एक प्रवाह प्राप्त करती है। जहां तक समकालीन कविताओं से तुलना की बात है तो जब उन कविताओं को परिदृश्य में रखकर पवन करण की कविताओं का अध्ययन करते हैं तो कुछ वैशिष्ट्य विचार जरूर दृष्टिगोचर होते हैं। हालांकि कवि ने इसे सामाजिकता से ओत-प्रोत करके बाजारोन्मुख शिल्प देने का प्रयास किया है। लेकिन कुछ कविताओं में अबूझ शिल्प भी नजर आते हैं जो सामाजिक कविता के दृष्टिकोण से निराशा पैदा करते हैं। इसके पीछे कारण है कि इस शैली में यह देखा जाता है कि आम जनमानस का इनसे कोई सरोकार नहीं होता। अगर इसे बाजारोन्मुखी भाव से परे देखें तो पवन करण की कविताएं बौद्धिकता  और संवेदनशीलता के साथ-साथ सामाजिक सजगता का माहौल तैयार करती है। कुछ कविताएं ऐसी भी हैं जो अपनी विचाराधरात्मक आयामों की वजह से भारतीय समाज की रूढ़िवादिता को निर्मिमेष भाव से प्रकट करती है। लेकिन इसी बीच कुछ कविताएं आधुनिकता  का आवरण ओढ़े कवि की समझदारी और प्रयोगिक्धार्मिता  को एक व्यापक आयाम दे देते हैं। इन कविताओं से पाठकवर्ग को एक संवाद करने का माध्यम मिलता है और एक ऐसी आकांक्षा पनपती है जिससे उसकी चाह ऐसे मोड़ पर पहुंच जाती है जहां से वह अपने आप से साक्षात्कार कर सके। उनकी कविताएं कलात्मक और रचनात्मक दृष्टिकोण से बिल्कुल भावशून्य हैं और वैसे देखा जाए तो कवि ने इसकी लेशमात्र कोशिश भी नहीं की है। लेकिन यह कहना सत्य है कि माध्यम के प्राकृतिक और अकृत्रिम रचाव ने ही कविता को संवेदना की पराकाष्ठा पर स्थापित किया है। इसमें एक बात और जो संग्रह की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है वो यह कि समाज, सभ्यता-संस्कृति, यात्रा, आधुनिक  परिवेश आदि का हर विक्षोभ कविता का शक्ल धर  लेता है।
 
कहना नहीं आताः पवन करण
वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली
मूल्यः 150रु. 

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