Saturday, 20 October 2012

नई सोच के साथ एक गंभीर पहल

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय 
नाट्य विधा  की पारम्परिक संरचना, शैली से परे रवीन्द्र भारती की यह पुस्तक ‘अगिन तिरिया’ एक अलग ही भावालोक और मानक स्थापित करती है। यह रचना एक ऐसा आवरण प्रस्तुत करती है जिसमें साहित्य के विभिन्न आयामों यथा भाषा, शैली, और रचाव को आधार  बनाया गया है। दरअसल रवीन्द्र भारती अपनी नाट्य कृति की परम्परागत शैली और प्रस्तुति से अलग ही पहचान बनाए हुए हैं। लेकिन इस रचना में उन्होंने उस परम्परा से पृथक एक अद्भुत पृष्ठभूमि पर अपने भाव व्यक्त किए हैं जिसमें परम्परागत पात्रों की जगह कुछ ऐसे पात्र हैं जो नाट्य शिल्प से सर्वदा अनभिज्ञ हैं फिर  भी रवीन्द्र भारती ने उन पात्रों को संवेदना और भाव देकर इतना परिपुष्ट कर दिया है कि वे नाट्य कृति की परम्परागत शैली से एकाकार हो जाते हैं। फिर एक ऐसे नाट्य साहित्य की रचना होती है जिसके गर्भ में छिपा है एक लम्बा संघर्ष, सामाजिक जटिलता, लोक परम्परा की नकारात्मक वृत्ति और इसके आलोक में पनपने वाली रूढ़िवादिता। इसमें एक ऐसी रचाव और बनावट है जिसमें देशी और आंचलिक भाषाएं एक अलग ही भाव के साथ प्रस्तुत होती हैं जिससे इसमें एक लचीलापन, लोकरंजिता और सांकेतिक नाटकीयता आ जाती है। तीन अंकों और बीस दृश्यों में समाहित यह नाटक कुछ ऐसे दृश्यों के साथ शुरू होता है जिसमें एक समाज का चरित्र चित्रण है जहां समाज दास और स्वामी, बुर्जुआ और सर्वहारा तथा शोषक और शोषित वर्ग के मार्क्सवादी विचार में विचरण कर रहा है, जहां सभ्यता ने अपने विकास के क्रम में पहले से शोषित, दलित और बेबस लोगों को गर्त में ध्केल दिया है। दरअसल यह संघर्षगाथा  है हाशिए पर जी रहे बहिष्कृत कुलांगार और सर्वभोगी तथा सर्वसुविधा  पर कुंडली मारकर बैठे अग्नि-कुटुम्ब समाज के बीच की।
 नाटक का दूसरा अंक लोकतांत्रिक समाज के उस पहलू पर प्रकाश डालता है जहां हत्या की संस्कृति पनपती है और विश्व सत्ता उसे पोषित करती है। इस अंक में दृश्यों में एक सांकेतिक अर्थ छिपा है जिसमें यह दर्शाया गया है कि प्रेम की हत्या करने वाली व्यवस्था सर्वदा आतंक की आगोश में पोषित होती है। दरअसल यह नाट्य खंड लोकतांत्रिक समाज और अपने अस्तित्व को बचाए रखने के संघर्ष को दृश्यांकित करता है। इसमें दो वर्गों के बीच का प्रतिद्वन्द्व है जिसमें एक वर्ग तानाशाह, पाखंड, शोषक, हत्यारा, सम्पतिशोषक, ज्ञान और आलोक वर्ग का प्रतिनिधित्व  करता है जो सुविधाहीन , शोषित, निरीह वर्ग का शोषण करता है। ये अपने साम्राज्य के आलोक में इतने प्रतिहिंसक हैं कि कोयल की सांकेतिक बोली भी इन्हें चुनौती लगती है और वे उस सुर मल्लिका की गर्दन मरोड़ने से नहीं चूकते। दरअसल यह अंक उस बुर्जुआ वर्ग के साम्राज्यवादी नीति की परिचायक है जहां मानवता दम तोड़ देती है। 
नाटक का तीसरा अंक एक ऐसी सत्ता का दृश्यांकन है जहां अग्नि के ताप, आलोक दृष्टि, साहस, शक्ति ऐसे तमाम गुणों का आवरण ओढ़कर  श्रेष्ठी समाज धर्म  और आतंक का साम्राज्य स्थापित कर चुका है। वे इतने दंभी हैं कि इसके आलोक में संशकित होकर भी आलोकित हो रहे हैं। इस अंक के कुछ दृश्यों में अनुचरों की गुलामी के विद्रुप, विकृति और कुत्सित भावों का समावेश है जिसे देखकर समाज का श्रेष्ठी गुदगुदाता है। ये श्रेष्ठी (शोषक वर्ग) ऐसे चरित्र का प्रतिनिधत्व  करते हैं जो अपने अनुचरों की असामयिक या अकाल मृत्यु को प्रिय खेल समझते हैं और उसका जश्न मनाते हैं। लेकिन नाटक आखिरी दृश्य के बदलाव, जागृति, रूढ़िवादी परम्परा के अवसान का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है जब शोषित वर्ग की चेतना जाग उठती है और सामाजिक पूर्वाग्रहों और गुलामी की बेड़ियों से उन्मुक्त हो जाता है और फिर  एक नियति बन चुके घने तिमिर से बाहर एक नई रोशनी में आंखें खोलता है। 
बहरहाल नाटककार रवीन्द्र भारती अपनी इस रचना ‘अगिन तिरिया’ के साथ एक अनोखा लेकिन सार्थक और सफल प्रयास किया है। उन्होंने जिस प्रासंगिकता, विषयवस्तु, योजना को उठाया है वो उनके लोकरंजक पात्र, भाषिक योजना, क्षेत्रीय  और देशी शब्दावली के सफल और सटीक समावेशन से और प्रभावी हो जाते हैं। जहां तक इसके मंचन और प्रस्तुति की बात है तो परम्परागत और नियमित नाटक शैली से परे इसमें गम्भीरता है। इस नाटक की भाषायी योजना ने इसे मंचकों और निर्देशकों के सामने एक चुनौती बना दिया है। लेकिन इतना भी अवश्यम्भावी है कि यह नाटक अपने मंचन से एक नई परम्परा को जरूर परिभाषित करेगा। 
 
अगिन तिरियाः रवीन्द्र भारती
राधाकृष्ण  प्रकाशन प्रा. लि.
7/31, अंसारी मार्ग,  दरियागंज-02
कीमतः 200रु.

Sunday, 14 October 2012

‘दस्तक’ चुपके से

पुस्तक समीक्षा, अजय पाण्डेय
यशोदा सिंह की ‘दस्तक’ साहित्य सृजन के लिए एक ऐसी नजीर है जिसे उनके बाद की पीढ़ी इसे पोषित और संचित कर हिन्दी साहित्य को औरसमृद्ध करेंगी। उनकी ‘दस्तक’ को प्रथम सोच और समझ से परे न तो संस्मरण माना जा सकता है और न ही रेखाचित्र या फिर  डायरी। यह तो इंसानी कहानी है जिसके केन्द्र में एक अविस्मरणीय पात्र ‘हसीना खाला’ है। हसीना खाला एक ऐसी किरदार है जो आम समाज और दैनंदिन की जिन्दगी में हमारा एक अभिन्न हिस्सा बन जाती है और फिर  चल पड़ता लिखने का एक सिलसिला। ‘दस्तक’ की सूत्राधार हसीना खाला के साथ चलने वाली कहानी दरअसल कई जिंदगियों और किरदारों को आपस में जोड़ता है और उसे समाज से रूबरू कराता है। हसीना खाला की कहानी एक ऐसी दुनिया में पल्लवित होती है जहां ‘दस्तक’ देने के लिए ऐसे रास्तों से गुजरना पड़ता है जहां पानी के लिए लम्बी लाइन में लोग अहले सुबह से खड़े होते हैं, जहां दो लोग खड़े हो जाएं तो रास्ता बंद हो जाता है, जहां पानी गिरने से कीचड़ भर जाता है, जहां मुहल्ले की बूढ़ी औरतें राशन न मिलने से राशनवाले को पानी पी-पीकर कोसती हैं, जहां पड़ोस वाली बाजी की नई नवेली बहू जब दाल को छौंक-बघारती है तो बूढ़ी खाला का खांसते-खांसते दम निकल जाता है। फिर जाकर हसीना खाला की कहानी की परिधि तक पहुंचा जा सकता है। लेकिन बावजूद इसके हसीना खाला के व्यक्त्वि को आसानी से नहीं समझा जा सकता। ‘दस्तक’ को पढ़ते हुए हसीना खाला के बारे में अन्तःमन में एक जिज्ञासा पनपती है कि वे कौन हैं? उनका परिचय क्या है? पिफर ऐसा लगता है कि कहीं ये यशोदा सिंह की परिकल्पना की कोई पात्र तो नहीं, लेकिन अगले ही क्षण उनका व्यक्त्वि एहसास दिलाता है कि दरअसल हसीना खाला को किसी एक पात्रा की परिधि में समेटा ही नहीं जा सकता। वो तो ‘हॉस्पिटल ऑन फुट’, ‘काउंसिलर ऑन डिमांड’, ‘सफल जीवन जीने के सहज नुस्खे की जीती जागती प्रतिमूर्ति’ और मानवता को अपनी बूढ़ी और एकाकी कंधें पर ढ़ोने वाली शांति स्वरूपा है, जो ‘नाफ उतारते’ समय उतनी ही ममत्व दिखाती है जितना राशन के न मिलने के पीछे होने वाली सियासत के विरूद्ध  प्रखरता। दरअसल हसीना खाला अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में कई चरित्रों को जीवंत करती है। यह महज इत्तेफाक या लेखिका के मन की परिकल्पना नहीं है कि अपने मुहल्ले में रहते हुए संवेदना, अपनत्व और ममत्व की डोर से बंधी  हसीना खाला का जीवन कितना एकाकी है। उनके मन में भी एक कसक है, सूनापन है जो गाहे-बगाहे उनके अकेलेपन में ‘दस्तक’ दे जाता है चुपके से। अपने अन्य चरित्र में मूर्त होते हुए हसीना खाला एक और कथांश का पटाक्षेप करती है। उन्हें इस बात का इल्म है कि देश में राजनीति का स्तर क्या है और राजनीतिक दलों ने आम लोगों को कितना बेवकूफ बनाया है। उन्हें सब पता है कि कांग्रेस ने कितनी अनियमितताएं की हैं और भाजपा तो लाला और बनियाओं का ही पेट भरती रही है। ऐसे में हसीना खाला का चरित्र और भी सशक्त हो जाता है जब उन्हें ‘गाँधी’ की असलियत और उसकी ताकत का एहसास हो जाता है। बावजूद इसके हसीना खाला की जिन्दगी कभी रूकती नहीं। लेकिन उनके जीवन में एक ठहराव है, जहां वो जिंदगी के कारोबार में तमाम सिलवटों के बाद भी इत्मीनान की जीवन जी रही हैं। उनके चेहरे पर उफ और बेबसी का लेसमात्र अंश नहीं है। दरअसल हसीना खाला की शख्सियत एक ऐसी पहेली है जिसे समझने और बुझने के लिए उनकी दुनिया और बस्ती का एक हिस्सा बनना पड़ेगा। नहीं तो हसीना खाला जैसे पात्र हमारे रोजमर्रा की भागमभाग जीवन से कब निकल जाएगी और हमें एहसास तक नहीं होगा। और हम एक ऐसे दर्शन से महरूम रह जाएंगे जो हमारे जीवन का सबसे बड़ा फलसफा है। पुस्तक के दूसरे पहलू अर्थात् जब इसके सृजन और भाषा की बात करते हैं तो ‘दस्तक’ कहानी, रेखाचित्र, कथा-बिम्ब, संस्मरण और डायरी इन तमाम विधाओं  की परिभाषा से परे एक अलग ही रचना की पृष्ठभूमि तैयार करती है। ‘दस्तक’ के सृजन के भी दो पहलू हैं जिसमें अव्वल तो इसकी शैली ही है जो पुस्तक के तमाम कथांशों को पढ़ते या इनसे गुजरते वक्त ये एहसास कराते हैं कि यशोदा सिंह अपनी स्मृतियों और वर्तमान के मानस पटल को एकाकार करते हुए उसमें गोता लगा रही हैं। ‘दस्तक’ किसी परम्परागत लेखन शैली, किताबी भाषा, शैलीगत कसावट की परिधि से  बाहर एक ऐसी प्रस्तुति है जो जीवन के तमाम सिलवटों और उसकी बनावटी एहसासों में रहते हुए संभावनापूर्ण साहित्य सृजन का एक मानक प्रस्तुत करती है। ‘दस्तक’ का दूसरा पहलू यह जानना है कि इसे साहित्य सृजन की किसी श्रेणी मे रखा जाए, परन्तु हसीना खाला के व्यक्त्वि को पढ़कर यह स्पष्ट भी हो जाता है कि ‘दस्तक’ को निश्चित परम्परा में समेटना उचित नहीं। क्योंकि ‘यहां न तो कोई सनसनी है और न ही कोई मिर्च-मसाला।’ यहां तो बस एक वृतांत है जिसमें इत्मीनान है, एक ठहराव है। ‘दस्तक’ स्मृतियों का एक ऐसा कैनवास है जिस पर कई छवियों को उनकी भूमिका के अनुसार उकेरा गया है। भाषा के दृष्टिकोण से यह उर्दू-हिन्दी की हिन्दुस्तानी जुबां है जो परम्परागत होते हुए भी सहज और सरल है। 
 
दस्तकः यशोदा सिंह
वाणी प्रकाशन
4695ए 21-ए, दरियागंज
नई दिल्ली- 110 002 
मूल्यः 175रु.

Wednesday, 10 October 2012

साहित्य के विभिन्न भावालोकों में

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय

साहित्य के विभिन्न आयामों, दृष्टिकोणों, परम्पराओं और शोधपरक  विषयवस्तु को समेटे सुधीश पचौरी द्वारा संपादित वाक् का यह अंक साहित्यिक फलक पर एक चतुर्दिक छाप छोड़ता है। साहित्यिक संग्रह के प्रारम्भ में श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की कुछ स्मृतियां तत्कालीन समाज को समझने-बुझने का एक आधार  प्रदान करती हैं। ‘दाखिले की शर्त’ शीर्षक से शामिल इस संस्मरण ने समाज में विद्यमान जटिलताओं, जातिभेदों, बेगारी प्रथा समेत तमाम विषयों को बड़ी सूक्ष्मता लेकिन सहजता से उठाया है। दरअसल यह संस्मरण साक्षी है उस दौर का जब समाज जातिभेदों और प्रपंचों के भंवरजाल में उलझा हुआ था। जहां समाज के निम्नवर्गीय (जातिगत रूप से) लोगों की नियति उच्चवर्गीय लोगों की ड्योढ़ी पर आकर दम तोड़ देती थी। वह साक्षी है उस दौर की जहां पढ़ने-लिखने का एकाधिकार  समाज के ऊँचें तबके के लोगों को ही प्राप्त था। लेकिन उन परिस्थितियों में श्यौराज सिंह ने जिस तरह तारतम्य बैठाया वह उनकी जिजिविषा, पढ़ने की ललक और समाज की प्रतिगामी धाराओं से लड़ने का प्रमाण प्रस्तुत करती है। इसमें शामिल दो अन्य शोधपरक  लेख ‘वर्णाश्रम व्यवस्था में  स्त्री ; देवी या दासी’ और ‘संथाल ‘हूल’; आजादी की पहली बड़ी लड़ाई’ इस सोच और परम्परा को आगे बढ़ाने का कार्य करते हैं। ‘वर्णाश्रम व्यवस्था में स्त्री ; देवी या दासी’ भारतीय इतिहास में स्त्रियों  की स्थिति पर प्रकाश डालता है। दरअसल इसमें वैदिक काल से लेकर हाल तक की घटनाओं में स्त्रीत्व परम्परा का दर्शन होता है। वैसे इस पूरे आलेख में इस प्रश्न का उत्तर तलाशने की कोशिश की गई है कि जिस प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति का महिमामंडन किया जाता रहा है उसमें नारी की क्या स्थिति थी। सामाज में उसे किस श्रेणी में रखा गया था- देवी या दासी? दूसरा लेख ‘संथाल ‘हूल’; आजादी की पहली बड़ी लड़ाई’ एक व्यापक शोध् है तथा आजादी की लड़ाई में योगदान देने वाले उन लोगों को सामने लाने का प्रयास किया गया है जिन्हें समयचक्र ने नेपथ्य में भेज दिया है। दरअसल भारत की आजादी की लड़ाई की परिधि कुछ शहरों  और कुछेक लोगों तक सिमट कर रह गई है लेकिन सही मायने में आजादी की लड़ाई गरीब किसानों, आदिवासियों, कामगारों  ने लड़ी। यह लेख संथाल ‘हूल’ को केन्द्र में रखकर लिखा गया है जिससे स्पष्ट किया गया है कि यह शोषण के खिलाफ एक व्यापक जन आंदोलन था जिसमें  एक बड़ी क्रांति का बीज निहित था। लेकिन यह दुर्भाग्य है उन संथालों का या फिर  इन जैसे हजारों-लाखों लोगों का जो पूंजीवादी व्यवस्था में जकड़े हुए हैं और उन्हें वैसे देश की माटी नसीब हुई जहां एक आंतरिक उपनिवेश काम करता है जिसने क्रांति की धार को हमेशा कुंद किया है। बाद के लेखों में साहित्यिक यात्रा की शुरूआत होती है जिसमें पहला लेख ‘त्रिलोचनः नैसर्गिकता को परम्परा बनाता सृजन’ त्रिलोचन की साहित्यिक रचना को समर्पित है। त्रिलोचन की पूरी रचना एक साधरण प्रसंग से युक्त लेकिन असाधरण प्रभाव और रचना साहित्य का सच उजागर करता है। उनकी रचनाएं सत्य, प्रतीति, और प्रबोध् की अंदरूनी बनावट से पैदा होता है जो यह स्पष्ट करता है कि उनकी रचना भूमि का कोई ध्रुवीय  संघर्ष नहीं है। त्रिलोचन की रचनाएं एक घालमेल हैं जो एक दर्शन है, मूल्य है जो उनकी रचनाओं में एक समीकरण पैदा करता है। दरअसल उनकी रचनाएं काफी व्यापक भाव तो प्रस्तुत करती हैं परन्तु बहुआयामी साबित नहीं हो पाती। आगे के खंड में एक कहानी ‘तनहाइयां परिंदे की’ शीर्षक के साथ है जो एक क्रांतिकारी युवा नेता हेमंत के इर्द-गिर्द घूमती है। हेमंत एक ऐसा किरदार है जिसके अन्तर्मन में शासन-प्रशासन के लिए उतनी ही घृणा है जितना कि अपनी सहपाठी ज्योति से प्रेम। लेकिन यह कहानी उस पृष्ठभूमि पर आधरित है जहां तिथियों को छोड़कर बाकी सबकुछ झूठ होता है। इस श्रृंखला में तीन काव्यखंड भी हैं। जिसमें पहली बोध्सित्व की कविताएं हैं जिसमें एक भावशून्य बिस्नू की दास्तान है लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण वो कड़ी है जो यह समझता है कि ‘जिनकी आंखों में कुछ नहीं होता उनके जीवन में कुछ नहीं होता’। इसके अलावा युवा पीढ़ी के दो प्रतिनिनियों की कविताएं हैं जिसमें पहली निशांत और दूसरी शंकरानन्द की हैं। निशांत की कविताएं जहां कैनवास पर उकेरे गए चित्रों के विभिन्न भावालोकों को बयां करती हैं वहीं शंकरानन्द की कविताएं राजनीतिक समझ और सामाजिक सजगता की उम्मीद जगाती हैं। इसके अलावा ‘कल्पना’ पत्रिका के संपादक जगदीश मित्तल से बातचीत की लम्बी श्रृंखला है जो कला के विभिन्न आयामों से संवाद स्थापित करता है। प्रियदर्शन का पुस्तक विशेष ‘वन से खुले और बंद अज्ञेय’ शीर्षक से ‘अपने-अपने अज्ञेय’ की समीक्षा है। दरअसल यह विश्लेषण पूरी तरह अज्ञेय दर्शन है। अंत में दो शोध् आलेख हैं जिसमें एक जगदीश चतुर्वेदी द्वारा ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और साहित्य का इतिहास दर्शन’ कराता है तो वहीं विजयदान देथा द्वारा रचित ‘कंचन बड़ा कि काया’ का पल्लव द्वारा विश्लेषण है। जहां हर किरदार एक दुविधा  में  जीता है। यह कहानी विजयदान देथा को गहरी लोक चेतना के कलाकार के रूप में स्थापित करती है। वे बड़ी सापफगोशी से अपनी बात स्पष्ट करते हैं कि जिस सुख की प्राप्ति के लिए मनुष्य को धन  और उपभोग की लालसा है उसी लालसा में जीवन बीतता चला जाता है, सुख नहीं मिलता। दरअसल इस पूरी कहानी में झूठे मूल्यों, आदर्शों मनुष्य की उदात्तता की सर्वोच्च कामना को परिलक्षित किया गया है। बहरहाल, वाक् का यह अंक गंभीर, सार्थक और सटीक संग्रहों के साथ एक सम्पूर्ण कलेवर है जिसे संपादक सुधीश  पचौरी ने और ज्यादा धार  दिया है। 
 वाक्
वाणी प्रकाशन, 21-ए
दरियागंज, नई दिल्ली-02
कीमतः 75रु.

सूनी आंखों में तैरते सपने

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय

प्रतापराव कदम का यह काव्य संग्रह ‘उसकी आंखों में कुछ’ एक ऐसी सामाजिक परिपाटी पर आधरित है जहां अराजकता और खोखले आदर्श हर कोने और हर स्तर पर बिखरे हुए हैं जहां कवि अपनी भावनात्मक परिपक्वता से प्रतिकार करता है। दरअसल इस संग्रह की कविताएं प्रश्न पूछती हुई प्रतीत होती हैं जो समाज में, मान्यताओं में और मानवीय भावनाओं में अपने औचित्य और अस्तित्व को तलाशती हैं। इन कविताओं में कस्बों और मध्यमवर्गीय लोगों की भावनाएं समाहित हैं जहां अराजकता का विस्तार नित्य फैलता जा रहा है। इन कविताओं में जीवन के कटु यथार्थ और उनमें छिपी संवदेना का खुरदरा स्पर्श निहित है। प्रतापराव कदम अपनी पैनी नजर से समाज के कौटिल्य चेहरे और विद्रूप खबरों की भी शिनाख्त करते हैं और मानवीय नृशंसता को भाष्य रूप प्रदान करते हैं। ‘निठारी तो हंडिया का एक चावल है’ और ‘नीम मुल्ला खतरा-ए-ईमान’ इस कड़ी की दो कविताएं हैं जो निठारी हत्याकांड और हैदराबाद में तसलीमा नासरीन पर हुए हमलों पर आधारित  है। इन कविताओं ने प्रतापराव कदम को राजनीतिक आधारित  भी प्रदान किया है जिससे वे प्रश्नवाची राजनीतिक कविता कर पाये हैं। इस संग्रह में शामिल कविताएं वैचारिक दृष्टिकोणों और मान्यताओं के सहारे एक ऐसा आवरण प्रस्तुत करती हैं जहां मनुष्य संघर्ष, यातनाएं, पीड़ा आदि कटु सत्यों से घिरा होता है। इस कड़ी में ‘हितैषी कहां सब्र करते हैं’, ‘लानत भेजता हूं’, ‘कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक है’, ‘किशोर त्रिपाठी आत्महत्या केस’ और ‘घृणा’ आदि ऐसी कई कविताएं हैं जो तल्ख सच्चाइयों को बयां करती हैं और ऐसा नहीं है कि ये सच्चाइयां सिर्फ मानवीय   संवेदनाओं के धरातल पर ही विद्यमान हैं बल्कि ये तो समाज और जीवन को भी बुरी तरह झकझोर रही हैं। ‘बाजार ही सत्य मृत्यु की तरह’ इसका प्रमाण है कि मनुष्य भविष्य में अपनी सभी उत्कंठाओं और सपनों को खो देगा। क्योंकि एक आदमी एक जगह से हटता है/हवा तुरन्त खाली जगह भर देती है। वैसे कवि इससे बाहर निकलकर जीवन की अन्य तल्ख छवियों को भी प्रस्तुत करता है। यह कितना औचित्यपूर्ण लेकिन रोचक है कि जब कवि एक तरफ समाज के विद्रुप चेहरे पर से पर्दा उठा रहा है तभी वह ‘लोटा’, ‘आसमान ही टूट पड़ेगा’, ‘डांगरिया’, ‘मेरे भूत भविष्य दोनों’, ‘सांस लेने भर से’ और ‘दुम’ आदि कई कविताएं भी चाटुकारिता, फूहड़ता, आत्ममुग्धता  को आधार बनाकर लिख रहा होता है जो एक सार्थकता और वैचारिक दृष्टिकोण पेश करता है। इस संग्रह की कुछ कविताएं जैसे ‘फ़ज़र की नमाज के वक्त इमलीपुरा’, ‘कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक है’, ‘विष्णु गणपत चौधुले, ‘खेल कबड्डी का’ या फिर  ‘कोसी नदी’ समाज से कुछ सवाल करती हुई नजर आती हैं। हालांकि यह बड़ा ही रोचक है कि कवि जीवन और समाज के हर ओर से कविता ढ़ूंढ़ लेता है और अपनी अभिव्यक्ति से एक सार्थकता दे पाता है। इसके अलावा, कई कविताएं हैं जो भारतीय समाज के परिदृश्यों, उनकी मौलिकता, इतिहासों और संवेदनाओं से उसे भाषायी भीड़ से परे ले जाती हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि कवि ने इस प्रकार की रचना कर एक साहसी कदम उठाया है। प्रतापराव कदम ने अपनी कविताओं से मानवीय चिन्ताओं को एक कैनवास पर उकेर कर एक विमर्श का मौका प्रदान करते हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं से उन लोगों को एक बल प्रदान किया है जो सामाजिक प्रपंचों, राजनीतिक आक्षेपों और धर्मिक क्षरण से कुंठित  हैं। इसमें लोगों की विवशता को सामने लाया गया है कि वो इन प्रपंचों के खिलाफ आवाज उठाए या अपनी इज्जत बचाए। जैसे- मैं आदमी नहीं पैजामा, वह भी बिना नाड़े का/ दोनों हाथ जेब में, बचाए, बनाए हुए इज्जत। (पैजामा)। वैसे ‘फेसबुक’ को लेकर क्षोभ भी व्यक्त किया गया है कि युवा वर्ग कैसे एक मायावी और छद्म दुनिया में विचरण कर रहा है। जहां सब कुछ तो है लेकिन नकली और निरर्थक। ये भ्रामक परम्परा सिपर्फ यहीं नहीं दिखती बल्कि यहां से निकलकर ‘कागज’ पर भी दिखती है क्योंकि हमारे देश में अधिकांश काम कागजों पर ही होते हैं जो ‘फेसबुक’ की तरह छलावा मात्र है। वैसे ‘इस तरह वसंत’ इसी कड़ी का अगला हिस्सा माना जा सकता है जहां जीवन की सच्चाई पर एक भ्रामक और फरेबी आवरण ओढ़ा दिया जाता है, लेकिन मनुष्य फिर  भी चलता जाता है बिल्कुल उस साइकिल की तरह जिसमें दोनों पहिए उस दम्पति की पहचान हैं जिसमें एक की लाचारी दूसरे की रफ़्तार  को थाम सकती है। 
बहरहाल, इस संग्रह की कई अन्य कविताएं ऐसी हैं जो सटीक प्रभाव छोड़ती हैं और स्पष्ट करती हैं कि प्रतापराव कदम इन कविताओं के माध्यम से राजनीतिक, धर्मिक और सामाजिक अपकृत्यों पर प्रहार कर रहे हैं। वे इन सबके विरूद्ध  होने वाले आंदोलन, अनशन के समानान्तर भाषायी हथियार भी उपलब्ध् कराते हैं। इन कविताओं की भाषा सरल और सहज है जिससे किसी प्रकार को कोई भ्रम नहीं पैदा होता है और यदि होता भी है तो पाठक उसको पोषित कर अपने आप को समृद्ध  करता है। 

उसकी आँखों में कुछ; प्रताप राव कदम 
राधाकृष्ण  प्रकाशन  


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Friday, 5 October 2012

अनुभूतियों को मथती एक परम्परा

Jindagi ke liye hi
पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय

रिपुसूदन श्रीवास्तव का यह काव्य संग्रह ‘जिन्दगी के लिए ही ’ दरअसल उनकी एक कविता ‘देरिदा और कविता’ के माध्यम से स्पष्ट होता है। वैसे यह पूरा संग्रह कविताओं के बदलते चरित्र को प्रस्तुत करता है क्योंकि वर्तमान काव्य लेखन न किसी बंधन  को समझता है और न ही किसी परम्परा को। वह तो एक नदी की तरह है जो रोज अपनी धारा बदलती है। वह एक रस्सी तोड़कर भागे हुए बैल की तरह है जो कभी इस खेत में मुंह लगाता है तो कभी उस खेत में। बहरहाल अपने प्रारंभिक परिचय में यह पुस्तक लेखक के अनुभवों का वो शाब्दिक विस्तार है जो अपने आप में सम्पूर्णता की पराकाष्ठा है। इस संग्रह की सभी कविताएं कल्पना और विचार के साथ धरातल  की वास्तविकता से ऐसा तारतम्य स्थापित करती है जो अपने लिए एक नया मार्ग स्वयं तलाश लेती है। ये सभी कविताएं एक ऐसे अनुभव का उदाहरण बनती हैं जहां मनुष्य, प्रकृति और समाज के बीच एक गहरी खाई है। यह साक्ष्य है उन परिस्थितियों का जहां मनुष्य अपनी माटी से दूर होकर एक बनावटी जिन्दगी के छोटे से डिब्बे में कैद हो गया है। कवि के मन में आज भी यादों की एक कसक है जो बरसों पूर्व ध्रीतराष्ट्र  रूपी समय के अलिंगन में  दम तोड़ चुके हैं। लेकिन मनुष्य ने भी अपनी ‘जिजीविषा’ को कम नहीं होने दिया। बिल्कुल उस दूब की तरह जो पत्थर के नीचे दबकर भी सतत संघर्ष करती है और अंततः मरती नहीं, बल्कि उस पत्थर पर ही दरार डाल देती है। रिपुसूदन श्रीवास्तव की अधिकतम  कविताएं उनकी आनुभूतिक अभिव्यक्ति की देन है जो कल्पना और विचारों के समागम से बाहर आया है। अधिकांश  कविताओं में कवि ने मनुष्य और प्रकृति के बीच के अर्न्तद्वन्द्व को ही भाष्य रूप दिया है। इस क्रम में ‘फूल’, ‘एक शहर’, ‘अविष्कार ’, ‘दहशत’ ऐसी कविताएं हैं जो मनुष्य द्वारा प्रकृति को उपेक्षित किए जाने की परम्परा से बाहर आती है। इसके बाद की जितनी भी कविताएं हैं वो मनुष्य और समाज के बदलते चरित्र की परिपाटी पर रची बसी है। दरअसल इन कविताओं में वैसी स्मृतियां छिपी हुई हैं जो वर्तमान परिदृश्य पर दस्तक देती है। इसमें शामिल तमाम ऐसी कविताएं जैसे ‘महुआ’, ‘संस्पर्श’, ‘जाड़े की सुबह’, ‘सुख’, ‘गांव की चिट्ठी’ हैं जो मनुष्य के उन क्षणों पर दृष्टिपात करती हैं जो समयचक्र में विस्मृति हो गए हैं लेकिन कवि ने उन्हें अपने सरल और सहज भाष्य भाव से पुनर्जीवित कर दिया है। इस संग्रह की अन्य कविताएं जैसे ‘भूख’, ‘मांओं के सपने’ ‘जाड़े की रात’ ये वो कविताएं हैं जो जीवन की उस यर्थाथता से पर्दा उठाते हैं जो उम्मीद और आकांक्षा लिए दम तोड़ देते हैं। इसमें वो दर्द छिपा है जहां आंखों में सपने तैरते तो हैं लेकिन कभी मूर्त रूप नहीं धर  पाते। इसके अलावा कुछ ऐसी कविताएं हैं जो सिर्फ और सिर्फ कविमन की अनुभूतियों का प्रमाण हैं। इनमें ‘आग’, ‘अगहन में’, ‘पुल’, ‘चाभी’, ‘रूई’, ‘सन्दर्भ’, आदि प्रमुख हैं। हालांकि इन कविताओं के आलोक में जीवन के वो सारे तथ्य समाहित हैं जिन्हें मनुष्य नेपथ्य में महसूस करता है। मनुष्य की इच्छाएं कभी मरती नहीं, ये मनुष्य जीवन का एक पहलु है और रिपुसूदन श्रीवास्तव ने इसकी व्याख्या भी बड़ी सहजता से की है जो ‘मछली की चाह’ शीर्षक से प्रस्तुत है। इस कविता के माध्यम से कवि बड़ी साफगोशी से स्पष्ट करते हैं कि इच्छाओं के न तो पैर होते हैं और न ही उसकी कोई सीमा। वो बस अंतहीन निर्वात में अपनी उत्कंठा लिए मनुष्य के जीवन में लिप्सा पैदा करती रहती है। हालांकि कवि ने अपनी कुछ कविताओं से हल्के-फुल्के विषय को भी भाव प्रदान किया है। जिसमें ‘नए वर्ष की कविता’, ‘आश्वस्ति’, ‘दूरियां’, ‘एक सुबह’, ‘तुम्हारे जाने के बाद’, ‘शीत लहर’, ‘कहां हो तुम’ प्रमुख हैं। वैसे तो इस संग्रह की सभी कविताएं कविताओं की परम्परा से बाहर होकर एक उन्मुक्त शैली स्थापित करती है ये सभी कविताएं इस कड़ी की प्रतिनिधि  कविता कहीं जा सकती है। लेकिन ‘जीवन’ कविता के माध्यम से कवि ने मानव जीवन की सच्ची तस्वीर पेश की है। यह कितना बड़ा सत्य है कि मनुष्य के लिए वर्तमान में सबसे बड़ा शाश्वत लक्ष्य रोटी ही रह गया है। यानि जीवन की पूरी परिभाषा रोटी के ही इर्द-गिर्द घूम रही है। फिर  मानव अपने सम्पूर्ण जीवन में एक पुतला बनकर रह जाता है, शायद इसी वजह से शेक्सपीयर ने जीवन को किसी मूर्ख की कही हुई बिना सिर-पैर की कहानी की संज्ञा दी है। इतना ही नहीं जीवन को लेकर मनुष्य के उहापोह की स्थिति ‘जिन्दगी के लिए’ में भी दिखाई देती है। तभी तो कवि ‘गणित का मनोविज्ञान’ और ‘जाड़े की धूप और बीअर’ के माध्यम से जीवन की गहराइयों में नहीं जाना चाहता। वो तो ‘एक शहर’ में जीना चाहता है उन लोगों की तरह जो बस जी रहे हैं बिना यह जाने कि क्यों जी रहे हैं। बहरहाल रिपुसूदन श्रीवास्तव अपने इस संग्रह के जरिये एक सम्पूर्ण आनुभूतिक सोच को परिलक्षित करते नजर आते हैं जिसमें मनुष्य, समाज, और प्रकृति के सारे तत्व विद्यमान हैं। जहां तक भाषा की बात है तो इन कविताओं में एक प्रवाह है जो पाठक वर्ग से एक सामान्य भाष्य रूप में तारतम्य बैठाता है। कवि के मौलिक अनुभव का भाष्य रूप होने के कारण गंभीर परिस्थितियां भी सरल और सहज भाव से प्रस्तुत होती हैं। 
जिन्दगी के लिए हीः रिपुसूदन श्रीवास्तव
राधकृष्ण प्रकाशन, प्रा. लि.
7/31, अंसारी रोड, दरियागंज
नई दिल्ली- 110 002 
कीमतः 150 रु.

Saturday, 29 September 2012

स्त्री विमर्शः जरूरत एक तटस्थ सोंच की

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय
साले हाल परिदृश्य में वैचारिकता का पतन कई क्षेत्रों में देखने को मिलता है। चाहे वो राजनैतिक क्षेत्र हो या फिर समाज के अन्य पहलु। इसी अनुक्रम में स्त्री  विमर्श एक महत्वपूर्ण विषय बनकर सामने आता है। दरअसल स्त्री  विमर्श एक ऐसी विषय वस्तु है जिस पर हर काल में अलग-अलग  व्याख्या होती रही है। कुछ लोग तो इस विषय पर चर्चा को ही कोरा समझते हैं। उनके अनुसार इस विमर्श ने कौन सा देश का भला किया है? समाज महिलाओं के प्रति जैसी सोच पहले रखता था वैसी ही आज भी रख रहा है। अर्थात् स्त्री विमर्श ने समाज को कोई नया मौलिक विकल्प नहीं सुझाया है। लेकिन मृणाल पाण्डे का यह वैचारिक लेख संग्रह ‘स्त्री ; लम्बा सफर’ उन लोगों से आग्रह करता है कि उन्हें कुछ दिनों के लिए चुप हो जाना चाहिए। दरअसल इसमें शामिल सभी आलेख तत्कालीन परिवेश में स्त्री  विमर्श के क्षेत्र में हुई परिचर्चाओं पर आधारित  है। मृणाल पाण्डे अपनी पत्रकारिता की सूक्ष्म दृष्टि से तत्कालीन परिवेश में (चाहे वो राजनीतिक हो या फिर  न्यायिक) महिलाओं के नाम पर होने वाले सियासी खेलों को बखूबी परखा है। लोकतंत्र के मंदिर से लेकर न्याय के मंदिर तक नारीवादी परम्पराओं को ताक पर रखा गया है। संसद के बाहर राजनीतिक दलों को महिलाओं के लिए विधायिका  में 33 प्रतिशत आरक्षण के लिए गरजते-चिल्लाते तो देखा जाता है लेकिन संसद के अंदर उस विवादित विधेयक पर चर्चा की हिम्मत किसी भी राजनीतिक दल को नहीं होती। वे इस मुद्दे पर संसद में भय का ऐसा वातावरण पैदा कर देते हैं जैसे महिलाएं देश की सबसे बड़ी खलनायिकाएं हैं। यह समाज और राजनीति का कैसा न्याय है जहां जातिवादी आरक्षण का स्वागत किया जाता है लेकिन देश की आधी  आबादी के आधार  पर विधायिका में 33 प्रतिशत के आरक्षण के मांग पर सियासी भूचाल आ जाता है। दरअसल पुरुष वर्चस्व समाज महिलाओं की राजनैतिक बराबरी को कभी आत्मसात कर ही नहीं पाता है तभी तो महिलाओं की चुनावी लड़ाई को ‘कैट फाइट’ कहा जाता है जबकि इसके ठीक उलट पुरुषों की लड़ाई को आक्रामक और स्वाभाविक प्रवृत्ति माना जाता है। कोई भी राजनीतिक दल महिलाओं पर दांव नहीं लगाना चाहता है यानि वो नारी आरक्षण की बात तो करता है परन्तु पार्टीगत आरक्षण पर नाक-भौं सिकोड़ता है। ऐसे में विधायिका में 33 प्रतिशत आरक्षण की बात दूर की कौड़ी ही साबित होती है। हालांकि इस वैचारिक लेख संग्रह में सिर्फ राजनीति की ही बात नहीं होती बल्कि राजनीति से परे कारपोरेट और मीडिया जगत की भी बात होती है। मीडिया पर आरोप लगाते हुए मृणाल पाण्डे कहती हैं कि मीडिया जो सबकी खबर देता है। महिला आरक्षण से लेकर महिलाओं  के प्रति होने वाली हिंसा तक, खबरों में प्रमुखता से दिखाई जाती हैं लेकिन वो अपनी खबर क्यों नहीं रखता। मीडिया में महिलाओं के लिए ऐसी स्थिति क्यों बन पड़ी है जिससे उनको पत्रकारिता में आने का मतलब ‘रोज कुआं खोदना और पानी पीना है’ लगने लगा है। जवाब शायद- तनख्वाहें कम, सुविधएं नगण्य, तरक्की नदारद और काम उबाऊ ।  महिला सशक्तिकरण की खबर और यौन उत्पीड़न की खबर करने वाला मीडिया यह क्यों भूल जाता है कि 100 में से 22.7 प्रतिशत मीडिया में काम करने वाली महिलाओं ने माना है कि कार्यक्षेत्र में उनका यौन उत्पीड़न हुआ है लेकिन वे चुप रही हैं। दरअसल उनकी इस चुप्पी से दो सवाल खड़े होते हैं कि वे ये सब इसलिए सहन कर लेती हैं कि उनको काम की जरूरत होती है या फिर  अन्यत्र भी हालात ऐसे ही हैं। हालांकि महिलाओं की स्थिति और हालात यहीं नहीं ठहरते। महिलाओं का मुद्दा तो एक प्रकार से कामधेनु  हो गया है क्योंकि दो दशक से महिला आरक्षण का मुद्दा तो फैशनेबल मुद्दा बना ही है और सभी पार्टियां गाहे-बेगाहे इस पर राजनीति भी करती रही हैं। इसके बाद महिलाओं की भूमिका वैश्विक परिदृश्य में भी तलाशी गई। जब भारत की इंदिरा नूई को अमेरिका की पेप्सिको कम्पनी का सीईओ बनते भारतीय महिलाओं ने देखा तो उनकी भी उम्मीदें जगीं लेकिन शायद उस वक्त उन्हें ये नहीं पता था कि देश में 80 प्रतिशत औरतें स्त्री -पुरुष भेदभाव की शिकार बन चुकी हैं। अर्थात् उन्हें किसी-न-किसी प्रकार घर की चहारदीवारी में रोका गया। हालांकि महिलाओं के प्रति हिंसा और अन्य मुद्दों के प्रति कानून ने सक्रियता दिखाई। घरेलु हिंसा कानून ने अपने व्यावहारिक दृष्टिकोण से महिलाओं के प्रति होने वाली न सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक प्रताड़ना को भी दंडनीय माना। कानून ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए ये बात भी स्वीकारी की समाज अपनी दकियानूसी परम्परा की वजह से न सिर्फ पत्नियों को बल्कि बहन-बेटियों को भी नुकसान पहुंचाता है। लेकिन कानून यह सुनिश्चित नहीं कर पाता है कि महिलाओं के प्रति हिंसा होती ही क्यों हैं? अगर किसी पुरुष को बलात्कार, हिंसा आदि करने के लिए सजा दी जाती है तो यातना पूरे समाज या परिवार को उठानी पड़ेगी ही। ऐसे में एक सुखमय परिवार या समाज की कल्पना आकाशकुसुम जैसी होगी। इस बीच बच्चों (लड़कियों) में यौन शिक्षा को लेकर काफी कुछ लिखा-पढ़ा गया है। दरअसल यह मुद्दा बन गया है कि उन्हें इस प्रकार की शिक्षा देना कितना उचित रहेगा कितना अनुचित। बहरहाल इस पूरे वैचारिक लेख संग्रह में मृणाल पाण्डे ने स्त्री  मुक्ति पर विचार किया है लेकिन इस उम्मीद में नहीं कि यह कोई निष्कर्ष निकालेगा, बल्कि इस मंतव्य से कि स्त्री -चर्चा के स्थायी आधार क्या हैं? इस संग्रह में शामिल लेखों ने यह स्पष्ट किया है कि समाज ने महिलाओं को प्रारम्भ से मुक्ति के विपरीत बंधन और बुधि के विपरीत कौटिल्य चरित्र का पर्याय माना है। लेकिन मृणाल पाण्डे ने जो सवाल छोड़े हैं वो वाजिब हैं। इन आलेखों के मर्म और गहराई को समझने से पहले स्त्री  विमर्श के स्थूल धरातल  पर जीवित परम्परा को समझना होगा। दरअसल इस पूरे परिदृश्य में एक जरूरत तटस्थ लेकिन मार्मिक दृष्टिकोण की भी है, नहीं तो ये वैचारिक लेखों की श्रृंखला पत्र-पत्रिकाओं में ही सिमट कर रह जाएंगी। 

स्त्री : लम्बा सफरः मृणाल पाण्डे
राधाकृष्ण प्रकाशन, प्रा.लि.
7/31, अंसारी मार्ग
दरियागंज, नई दिल्ली-02
कीमतः  250 रु.

Friday, 21 September 2012

यहां कोई रावण नहीं रहता!

पुस्तक समीक्षा
अजय पाण्डेय
व्यंग्य वह विधा  है जो व्यंग्यकार के भीतर की नकारात्मक प्रतिक्रिया है और यह समाज और जीवन मूल्यों के क्षरण से उत्पन्न होता है। व्यंग्य शैली का इतिहास इस बात का साक्षी है कि जितनी भी व्यंग्य रचनायें हुई हैं वो तत्कालीन समाज के पतन, राजनीति का अवमूल्यन, शिक्षा नीतियों का बाजारीकरण आदि क्षेत्रों के नैतिक पतन पर केन्द्रित है। दरअसल ये सभी पृष्ठभूमि व्यंयग्यकारों को विषय प्रदान करते हैं। पिछले कुछ सालों में राजनीति व्यंग्यकारों के सम्मुख एक ऐसा विषय बनकर सामने आया है जिसमें व्यंग्यकार काफी संभावनाएं तलाश रहे हैं। दरअसल राजनीति अपनी परिभाषा और परिधि को  इस कदर कुंठित और सीमित कर चुकी है कि इसे मात्र नीतिविहीन परम्परा का द्योतक माना जा सकता है। वर्तमान राजनीति एक ऐसा खेल बन चुका है जहां सिर्फ और सिर्फ स्वहित की बातें होती हैं। इसमें ‘आम आदमी’ के लिए कुछ भी नहीं होता। ‘आम आदमी’ तो उसके लिए एक मोहरा होता है जिसकी बलि लेकर वो सत्ता को या तो बचाए रखता है या पिफर सत्तासीन होना चाहता है। शंकर पुणतांबेकर द्वारा रचित ‘रावण तुम बाहर आओ!’ राजनीति के इसी पतन की पराकाष्ठा की पृष्ठभूमि पर आधारित  है। दरअसल यह व्यंग्यात्मक नाटक, लेखक के बेचैन मन की उपज है जिसे वह समकालीन राजनीतिक परिवेश में देखता है। वस्तुतः यह एक ऐसा कथानक प्रस्तुत करता है जो राजनीति के वर्तमान स्वरूप से एकाकार हो जाता है और उस पर मंथन के लिए उत्प्रेरित करता है। ‘रावण तुम बाहर आओ!’ राजनैतिक परिपाटी पर आधारित  नाटक है जहां सामाजिक और मानवीय मूल्यों का अवमूल्यन कदम-कदम पर होता है। नाटक के केन्द्र में राजा वीरसेन होता है जिसके इर्द-गिर्द सारी कहानी घूमती है। राजा उस भ्रष्टतंत्र का प्रतिनिधि है  जहां हर आदमी दो व्यक्तित्व को जीता है। अंदर से रावण होते हुए भी राम बनने की जुगत हर व्यक्ति का आंतरिक प्रवृत्ति होता है। राजा वीरसेन उन्हीं में से एक है। वस्तुतः राजा एक विलासी महत्वाकांक्षी शासक का प्रतीक है जिसकी सोच एक सीमित परिधि में ही घूमती है। वह अपने पास उन सभी वस्तुओं को बंधक  बनाकर रखना पसंद करता है जो उसके विलासिता का मानक होते हैं। इसी क्रम में उसने सोने का पलंग भी बनवाया, जिसे वह प्रदर्शनी के लिए सबके सामने रखता है। दरअसल यह नाटक दो गुटों में बंट गया है। एक वो जो राजा की नीतियों का विरोध् करते हैं। इसमें राजा का बेटा कुमार, उसका दोस्त विक्रम और राजा की पत्नी रत्ना शामिल हैं। जबकि दूसरे गुट में राजा के वे चाटुकार हैं जो सिर्फ राजा की हां में हां मिलाते हैं। ये किसी भी परिस्थिति में राजा के प्रति वफादार नहीं माने जा सकते। हालांकि राजा को इन चाटुकारों से काफी सहारा मिलता है इसीलिए वो उन्हें हमेशा अपनी दराज में बंद करके रखता है। लेकिर ये चाटुकार राजा को सदैव अँधेरे  में धकेलने  का उपक्रम करते रहते हैं। ये चाटुकार वर्तमान राजनीति के उन नेताओं के प्रतिबिम्ब हैं जो अपनी राजनीतिक महात्वाकांक्षा के लिए स्वार्थ, भ्रष्टाचार, विश्वासघात को पोषित करते हैं और फिर  इसी को सीढ़ी बनाकर सत्ता की कुर्सी पर आसीन हो जाते हैं। सम्प्रति ये वो लोग हैं जो अपने राजा के मरने पर शोक तो मनाते हैं लेकिन उसके शोकसभा को जश्न के रूप में मनाते हैं और कहते हैं कि ‘चलो, साला मर गया।’ राजा उस निरंकुशता का प्रतिरूप है जो देश के संविधान  को बंधक  बनाकर उसे पंगु बना दिया है। दरअसल उसने संविधान  को लेकर एक विरोधभाष पैदा कर दिया है जो आम आदमी को अधिकार  तो देता है साथ ही राजा, नेता या विशिष्ट वर्ग को यह भी अधिकार  देता है कि वह आम आदमी के अधिकार  का प्रतिकार कर सके। नाटक के अन्य पात्रों की जहां तक बात है तो वीरसेन का बेटा कुमार, उसका दोस्त विक्रम और युवा पत्रकार शीला राजा के भ्रष्टाचार और भ्रष्टतंत्र से आहत युवा पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं  जो राजा की विलासिता, नीतिविहीन महत्वाकांक्षा का विरोध् करते हैं। वीरसेन की पत्नी रत्ना भी उसके पक्ष में नहीं है वो अपने पति की अतिमहात्वाकांक्षा का पुरजोर विरोध् करती है। इस क्रम में राजा कभी-कभी अकेला पड़ जाता है परन्तु इस मौके पर उसके चाटुकार बड़े काम आते हैं जो राजा के एकाकीपन को अपनी चाटुकारिता से भर देते हैं। इस नाटक का अन्त आम नाटकों की तरह नायक की जीत के साथ नहीं होता। बल्कि इसमें जीत की परम्परा के विपरीत खलनायकों की जीत के साथ होता है। दरअसल यह जीत साले हाल राजनीति को परिलक्षित करता है कि आप चाहे जितना भी ईमानदार बन लें, सत्यनिष्ठ बन जाएं, भ्रष्टाचार के खिलाफ झंडा उठा लें राजनीति के इन खलनायकों के खिलाफ जीत हासिल नहीं कर सकते। इन खलनायकों की एक लम्बी परम्परा बन चुकी है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी सत्ता पर आरूढ़ होते हैं। उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं कि लोग उन्हें रावण कहते हैं या राम। अगर राम कहते हैं तो बेहतर और रावण कहते हैं तो उसके चाटुकार हैं न राम के रूप में प्रस्तुत करने के लिए। ‘रावण तुम बाहर आओ!’ एक ऐसी पृष्ठभूमि पर आधरित नाटक है जिसका आवरण काफी व्यापक है। लेखक ने राजनैतिक परम्परा की छोटी-छोटी बातों पर भी सूक्ष्मता से दृष्टिपात किया है। आमतौर पर पत्रकारों की खबरों के प्रति बाध्यता, छोटी-छोटी घटनाओं पर जांच आयोग बैठाने की मांग, राजनैतिक चाटुकारिता, वादे-इरादे के बीच राजनैतिक रोटी सेंकने की परम्परा इस नाटक को जीवंत बनाती है। जहां तक इस नाटक के शिल्प की बात है तो यह वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य पर बिल्कुल सटीक बैठता है। नेपथ्य से आने वाली ‘पिंजरे की औरत’ की आवाज इस बात का एहसास कराती है कि देश, समाज और मानव राजा के दराज में किस प्रकार बंधक  हैं। लेखक इसके माध्यम से एक शिल्पगत प्रयोग करता है। मंचन के दृष्टिकोण से यह नाटक संतुलित कहा जा सकता है जिसमें किसी भारी-भरकम साजो सामान की जरूरत नहीं पड़ती। आधुनिक  रंगकर्मियों के लिए इसमें काफी गुंजाईश  है जिसे आधुनिकता  को मिश्रित कर और ज्यादा प्रभावशाली बनाया जा सकता है। 
रावण तुम बाहर आओ!: शंकर पुणतांबेकर
वाणी प्रकाशन, 4695, 21ए
दरियागंज, नई दिल्ली-110 002
कीमतः 195रु. 
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AMAR BHARTI (HINDI DAILY)
Pratap Bhawan, 5, Bahadurshah Zafar Marg,
New Delhi-110002
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